पुरानी दिल्ली (Purani delhi) के हवेलियों की दरो दीवारें कहानियां सुुनाती हैं। कहानियां जो ताजा कर देती हैं उन पुराने दिनों की यादें जब हवेलियों में उर्दू की महफिलें सजती थी। मिर्जा गालिब से लेकर जौक तक अपनी शेरो शायरी सुनाते थे। इन हवेलियों में पुरानी दिल्ली (Old Delhi) का खालिस संस्कृति विकसित हुई। इन्हीं गलियों में गंगा जमुनी तहजीब के फूूल खिले। समय के साथ हवेलियों की दरो दीवार को भले ही नुकसान हुआ हो लेकिन इनकी कहानियां आज भी पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों में जिंदा है। गाहे बगाहे, बड़े बुजुर्ग अाज भी हवेली व उससे जुड़ी कहानियाें को सुनाते है। पुरानी दिल्ली (Delhi) की इसी रिवायत एवं हवेलियों को जिंदा रखनेे की कोशिश में नगर निगम व इंटैक भी जुटे हैं। इंटैक दिल्ली चैप्टर ने तो शाहजहानाबाद में विरासत भवनों का संरक्षण नाम से मकान मालिकों के लिए नियमावली का भी प्रकाशन किया था। इंटैक हवेलियों के संरक्षण के लिए मकान मालिकों को भी जागरूक कर रही है।

ताकि सुरक्षित रहे हवेलियां

इंटैक दिल्ली चैप्टर के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इतिहासकार स्वपना लिडले के नेतृत्व में अभियान चलाया जा रहा है। बकौल पदाधिकारी हवेलियों का इतिहास, इनकी बनावट, इनके संरक्षण के लिए बनाए गए नियमों समेत बनावट की बारीकियों से मकान मालिकों को रूबरू करया जा रहा है। हवेलियों की वास्तुकला के बारे में जानना काफी दिलचस्प है। स्वपना लिडले कहती हैं कि 17वीं शताब्दी में शाहजहानाबाद की चारदीवारी से घिरे मुगल शहर के रिहायशी इलाके में मेहराबी प्रवेश द्वार वाली भव्य और शानदार हवेलियां थी। शहर का 18वीं और 19वीं शताब्दी में विकास हुआ। यहां बड़ी संख्या में हवेलियां बनाई गईंं, हालाकि ये बहुत छोेटी थी और कूचेे, कटरा और मोहल्लों में स्थित थी। जिन मालिकों की दुकानेंं थी, उन्होंने इनकी उपरी मंजिलों पर अपना ठिकाना बना लिया। आज, अधिकांश ढांचों का वाणिज्यिक उपयोग किया जा रहा है। शाहजहानाबाद की इन हवेलियों को दिल्ली के उप-उष्णकटिबंधीय जलवायु को ध्यान में रखते हुए बनाय गया था। पुरानी दिल्ली की पारंपरिक हवेलियोंं का गहन अध्ययन करने पर उन विशेषताओं का पता चलता है जो उन्हें अन्य वास्तुकला शैलियों या इतिहास के काल से अलग करती है। मूलरूप से हवेली की योजना में कई घटक शामिल थे, जिनमे पुरुषोंं व महिलाओं के लिए अलग कमरे, मालिक का कार्यालय, एक पुस्तकालय, एक ड्राइंगरुम, फव्वारे, बैरकें, अस्तबल और संभवत: एक कारखाने सहित औपचारिक उद्यान शामिल थेे। घरों का नक्शा एक समान होता था, जिसमें एक आंगन और कम से कम दो मंजिले होती थी। दीवारों पर फूलों की नक्काशी के पैनल लगे थे या उन्हें ज्यामितीय डिजाइन से चित्रित किया गया था। बकौल स्वपना लिडले यह सौभाग्य ही है कि आज भी कई हवेलियां है, जिन्हें अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है, जो हमें उन विशेषताओं और पहलुुओं के बारे में बताती हैं जो मुगलों की रिहायशी वास्तुकला में संजोयी गई थी।

छत

स्वपना कहतीं हैं कि शाहजहानाबाद के प्राचीन शहर का विहंगम दृश्य देंखे तो हमें हर कहीं सपाट छत वाली इमारतें और सीढ़ियां दिखाई देंगी। मस्जिद जैसे कुछ प्र्रमुख स्मारकों में गुंबद वाली छत दिखाई देगी जबकि अधिकांश इमारतों की छतें सपाट है। ये सपाट छतें घनी आबादी वालो चारदीवारी से घिरे शहर में बेहद जरुरी खुली जगह प्रदान करती हैं। इनका निर्माण मुख्यरूप से रोेड़ी-पत्थर-चूना-गारा, इमारती लकड़ी के स्तंभों या धाु के गार्डरों और वजन उठाने वाली ईंट की दीवारों से किया गया है और पानी के रिसाव से बचने के लिए इन पर चूना, कंक्रीट का इस्तेमाल किया गया था। सपाट छतोें में एक और ढलान बनाई जाती थी ताकि बारिश का पानी बहकर पाइपों से नीचे चला जाए या जगह जगह लगाए गए खुर्रा से बाहर निकल जाए। परंपरागत रुप से छत मिट्टी या घास, फूस पर ईंट की टाइल रखकर बनाई जाती थी या उन्हें चूने की चिकनी परत बिछाकर छोड़ दिया जाता था। प्रत्येक घर की छत को उससेे सटी कम ऊंची दीवारों से अलग किया जाता था।

फर्श

अगर फर्श की बात करें तोे अधिकांश इमारतें वजन उठाने वाली ईंटों के ढांचे सेे निर्मित है, फर्श का इमारती लकड़ी के बीच या धातु के गार्डर से विस्तार किया गया है। जिन्हें वजन उठाने वाली ईंटों तथा चूना कंक्रीट के स्लैब से बनाया जाता था। 20वीं शताब्दी की शुरूआत में इमारतों को ईंटो के जैक वाली मेहराबों और धातु के खंडोे से सहारा देकर चून और कंक्रीट से बनाया जाता था। कहीं कहीं ईंटों की मेहराब बनाकर नालियों या सीढ़ियों जैसी खाली जगह का भी इस्तेमाल किया जाता था। वहीं अधिकतर हवेलियों में फर्श को विभिन्न प्रकार से बनाया गया है। इनमें पत्थर का फर्श, चीनी पच्चीकारी, विशेष सीमेंट की टाइल वाले फर्श जैसे भारत टाइलें और आईीएस फर्श शामिल है। पत्थरों को स्लैब के आकार में चूना कंक्रीट की बिछाई गई सतह पर चूनेे-गारे से जोड़ों को बेहतरीन ढंग से भरकर बिछाया गया है।

दीवारें

अधिकांश इमारतें वजन उठाने वाली 00 मीमी मोटी दीवारों से निर्मित है। हवेलियों को पतली मुगल ईटोंं से बनाया गया है जिसे लखोरी ईटों या नानकशाही ईंटों के नाम से जाना जाता है। पत्थर का उपयोग मुख्य रुप से प्रवेश द्वार में ब्रैकेट, कॉलम के साथ साथ अावरण या पट्टी बनाने के लिए किया जाता था। अधिकांश ईंटोंं से निर्मित इमारतों को पारंपरिक रुप से चूना-गारा से पलस्तर करके उपर सफेदी की जाती थी। पुरानी दिल्ली की इमारतों में बड़े पैमाने पर ईंटों से निर्मित अर्धगोलाकार उभारदार, खंडवार और बेल-बूटों से निर्मित विविध मेहराबों का इस्तेमाल किया गया है। जबकि प्रवेश द्वार मेहराबी होता था। जिसके किवाड़ में कोटर बने होते हैं, प्रवेश द्वार के दाेनों तरफ आला बने होते हैं।

दरवाजे और खिड़कियां

इंटैक द्वारा हवेलियों पर तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि हवेली के निर्माण में इमारती लकड़ी का अधिक इस्तेमाल किया जाता था। लकड़ी एक कार्बनिक पदार्थ है, जो लिग्नाइट से बनी होती है जे इसे मजबूती और सैपवुड प्रदान करती है। यह नरम होती है और इसमें पोषक तत्व और नमी होती है। जब वृक्षों को निर्माण के लिए काटा जाता है तो इसे इमारती लकड़ी कहा जाता है। यदि लकड़ी का उपयोग सही ढंग से हो तो यह एक टिकाउ सामग्री होती है। शाहजहानाबाद में निर्मित अधिकांश दरवाजे पैनल दरवाजे है, जिनका निर्माण स्थानीय रुप से उपलब्ध लकड़ी से किया गया है। जैसे सागौन या शीषम की लकड़ी। मुगल काल के समय के कुछ दरवाजे महीन नक्काशीदार है जबकि 20वीं शताब्दी की शुरुआत में दरवाजे के पैनलों के साथ साथ रोशनदानों या पंखों की लाइटों के लिए बनावटी शीशे और लकड़ी के पैनलों का मिजा जुला उपयोग किया गया है। हवेलियों की अधिकांश खिड़कियों में लकड़ी के शटर आैर जालीदार रोशनदानों सहित सपाट लिंटेल ओपनिंग है। हवेलियों की खिड़कियोंं में उभारदार मेहराबेंं, तीन मेहराबों वाले झरोखे और अर्धवृत्ताकार मेहराब ओपनिंग थी। मुगल काल की इमारतों में बेलबूटेदार मेहराबों को देखा जा सकता है जबकि उभारदार अर्धवृत्ताकार मेहराब औपनिवेशिक स्थापत्य कला की विशेषता है।

छज्जे

रिपोर्ट में छज्जों के बारे में भी विस्तृत जानकारी है। यह जानना दिलचस्प है कि समय के साथ रेलिंग का विकास कैसे हुआ। इसकी शुरुआत लकड़ी के खंभों में लोहेे के काम से हुई और फिर बलुआ पत्थर और संगमरमर का जंगला या जालीदार कार्य होने लगा। इसके बाद गच्चकारी कार्य और अब हल्की स्टील रेलिंग का इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए छज्जे की रेलिंग शाहजहानाबाद के इतिहास की निशानी है। जबकि अधिकांश जैन परिवारों और मंदिरों में संगमरमर के जंगले बने है। जिन पर धार्मिक प्रतीक चिन्हों की महीन कारीगरी की गई है जबकि अन्य अधिकांश इमारतों में लोहे के साथ इमारती लकड़ी के खंभे या गचकारी जालियां लगाई गई है। शाहजहानाबाद की गलियोंं से हवेलियों की पहली मंजिल के छज्जों पर लगी महिन रेलिंग बेहद आकर्षक दिखाई देती है।

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