इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क्रद्र-ए-सुखन

कौन जाए जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर।।

शेख इब्राहिम जौक की लिखी ये लाइनें दिल्ली से उनका लगाव दर्शाती है। शहर जो गली कूंचों में बसता था। शहर जो अपना और अपनेपन के भाव से भरा था। लेकिन 1857 की क्रांति के बाद जब ब्रितानिया हुकूमत ने सत्ता की बागडोर संभाली तो गालिब अपने दोस्त को पत्र में बड़ी उदासी से लिखते हैं कि पांच चीजों से दिल्ली, दिल्ली थी। किला, चांदनी चौक, जामा मस्जिद के भीड़भाड़ वाले बाजार,जमुना पुल पर हर हफ्ते की सैर और फूल वालों का सालाना मेला। इनमें से कुछ भी नहीं बचा। फिर दिल्ली कैसे बची रहती। हां, कभी इस नाम का एक शहर हुआ करता था। यह दिल्ली, जिसके बार-बार बसने उजड़ने का हवाला जिक्र ए मीर में मिलता है। जिसके उजड़ने की दास्तां को शहर ए आशोब नाम देकर मीर और सौदा ने कलमबंद किया। लेकिन वक्त ने करवट बदली और सदी का पन्ना पलटते -पलटते इसी दिल्ली की खूबसूरती और रसूख पर लोग रश्क करने लगे। देश की हुकूमत चलाने वाली दिल्ली, तकदीरें बनाने और बिगाड़ने वाली दिल्ली, आपकी और हमारी दिल्ली। जिसने सवा सौ साल से ज्यादा का सफर तय किया है।

1911 delhi durbar

बंगाल बंटवारे के विरोध से सहमे अंग्रेज

सन 1910 में इंग्लैंड के नए राजा जॉर्ज पंचम की ताजपोशी हुई। तब तक देश पूरी तरह अंग्रेजी हुकूमत का गुलाम बन चुका था। कलकत्ता के रास्ते हिन्दुस्तान आने वाले अंग्रेज वहीं से देश की सत्ता चला रहे थे। एक नयी राजधानी की जरूरत अंग्रेजो को कई साल से महसूस हो रही थी लेकिन बंगाल के बंटवारे के फैसले ने इस जरूरत को मजबूरी बना दिया। 1905 में हुए बंगाल के बंटवारे का विरोध इतना बढ़ चुका था कि अंग्रेजों ने राजधानी वहां से समेटने में ही होशियारी समझी। 12 दिसम्बर 1911 को दिल्ली में शाही दरबार लगा। पहली बार खुद राजा और रानी दोनो इस दरबार में मौजूद थे।

रोशनी से नहाए तंबू

1911 का दिल्ली दरबार दरअसल, ब्रितानी ताकत की धमक सुना रहा था। दरबार के साक्षी बने लगभग सत्तर हजार लोगों में सिक्किम से लेकर बर्मा के नरेश-राजकुमार, हैदराबाद के निजाम और यहां तक कि भोपाल की बेगम भी पहुंची थी। उत्तरी दिल्ली में दिल्ल्ी यूनिवर्सिटी से सटा किंग्सवे कैंप वही इलाका था जहां से तंबु नगरी की राह गुजरती थी। तब आसपास के पच्चीस-तीस गांवों को करीब सालभर तक मशक्कत के बाद इस तंबु नगरी और इसके लिए जुटायी जाने वाली सुविधाओं में तब्दील कर दिया गया था।और तो और दिल्ली शहर से गुजरने वाली रेलवे लाइनों और आजादपुर जंक्शन तक को बदला गया, दुरुस्त किया गया और आज जिस जगह विधानसभा खड़ी है उसी सिविल लाइंस से लेकर बुराड़ी तक एक छोटी पटरी भी बिछायी गई थी। दरबार की शानो-शौकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस दौर के रिकार्ड में दर्ज है कि एक-एक तंबू रोशनी से जगमगाया था और लगभग 25 वर्ग मील में 233 तंबुओं को लगाया गया था। 85 एकड़ में अकेले सम्राट जॉर्ज पंचम का आशियाना सजा था।

.जब घोषणा हुई

दरबार खत्म होने को था, जब बड़े ही नाटकीय तरीके से इंग्लैंड के राजा ने खुद खड़े होकर एलान कर दिया कि अब हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली होगी। दरबार खत्म होने के तीन दिन बाद राजधानी की नींव रखी गयी। किंग और क्वीन ने शिला रखी। नयी राजधानी के एलान के बाद किंग्सवे कैंप के पास एक अस्थायी राजधानी बनाई गयी। फिर शुरू हुई राजधानी के लिए जमीन हासिल करने की कवायद। इतिहासकार बताते हैं कि दिल्ली उस समय अविभाजित पंजाब प्रांत का हिस्सा थी। नई दिल्ली बनाने के लिए दिल्ली और बल्लभगढ़ तहसील के 128 गांवों की करीब सवा लाख एकड़ जमीन ली गयी। दिल्ली के शिलान्यास के सिर्फ 9 दिन बाद 21 दिसंबर 1911 को पचास हजार किसानों और काश्तकारों को अधिग्रहण का नोटिस थमा दिया गया। नई राजधानी के लिए अधिग्रहित गांव की जमीन में मालचा, रायसीना, मंगलापुरी, जैसिंघपुरा, तालकटोरा, बाराखम्बा जैसे गांव शामिल थे।

1912 में गठित हुई कमेटी

13 जून 1912 को जार्ज एससी के नेतृत्व में दिल्ली टाउन प्लानिंग कमेटी का गठन हुआ। मशहूर आर्किटेक्ट एडविन लुटियन और उनके साथी हर्बर्ट बेकर 1912 में दिल्ली आए। इन्होंने ही कोरोनेशन पार्क की जमीन को तंग और मलेरिया के खतरे से भरी बताते हुए अनफिट करार दे दिया। फिर शुरू हुई नयी ज़मीन की खोज जो रायसीना हिल पर आके रूकी। किंग्सवे कैंप पर जॉर्ज पंचम का लगाया पत्थर रातों रात चार मील दूर लगे इस रायसीना हिल पर पंहुचा दिया गया। यह बात मई 1913 की है। जहां ये पत्थर रखे गए आगे चल कर वहीं पर ये नॉर्थ और साउथ ब्लाक बने। रायसिना हिल्स की बंजर और पथरीली पहाड़ियों के आसपास देश की राजधानी की सबसे शानदार इमारतें बनाने का काम। मालचा गांव के पीछे की जमीन पथरीली थी, सो वहां पत्थर की खदान बनाई गई और पत्थर ढोने के लिए एक रेलवे लाइन भी बिछाई गयी। संसद भवन का निर्माण काफी पेचीदा था। इसके निर्माण का जिम्मा बेकर के पास था लेकिन लुटियन इसे गोलाकार बनाने पर अड़ गए और आखिरकार लुटियन की ही चली। 1921 में संसद भवन का शिलान्यास हुआ और पांच साल बाद 80 लाख रुपये की लागत से ये तैयार हुआ। इतिहासकार कहते हैं कि गोल गुंबद वाला राष्ट्रपति भवन जब बना तो इसका नाम था वायसराय हाउस। क्योंकि तब इस महल में वायसराय रहते थे।

कहानी कनॉट प्लेस की

राजीव चौक तब कीकर के जंगलों से घिरा गांव था- माधोगंज गाव। 1920 में कनॉट प्लेस का काम शुरू हुआ। घोड़े की नाल के आकार में बना ये बाजार उस वक्त यूरोप के बाजारों को खूबसूरती और शानो शौकत में पूरी टक्कर देता था। कनॉट प्लेस की चमक-दमक में माधोगंज का भुतहा जंगल खत्म हो गया।

नई दिल्ली का उदघाटन

पूरे 20 साल की तैयारी के बाद 15 फरवरी 1931 को औपचारिक तौर पर नई दिल्ली का उदघाटन हुआ। अंग्रेजों ने देश पर राज करने के लिए दिल्ली में डेरा डाल लिया था। हालांकि अंग्रेजों ने 1881 में ही सेंट स्टीफंस कॉलेज बना दिया और 1899 में हिंदू कॉलेज बनकर तैयार हो गया। 1917 में रामजस कॉलेज भी बन चुका था। इसलिए अंग्रेज यूनिवर्सिटी के नाम पर अनमने थे, लेकिन दबाव बना तो 1922 में तीनों कॉलेजों को मिलाकर बनी दिल्ली यूनिवर्सिटी। 14-15 अगस्त 1947 की आधी रात हिंदुस्तान ने आजादी की फिजा में सांस ली। उस समय दिल्ली 36 साल की हो चुकी थी। अब गोरों का नहीं आम हिंदुस्तानियों का राज था। 15 अगस्त 1947 को मानो पूरी दिल्ली संसद भवन पर उमड़ आई। गुलामी की जंजीरे टूटने की खुशी देश के बंटवारे के घाव के साथ आई। अपना सब कुछ लुटा कर आए लाखों शरणार्थियों के लिए नई जिंदगी की नई उम्मीद थी। कई कालोनियां बसने लगी। लाजपतनगर, राजेन्द्रनगर, निजामुद्दीन, ईस्ट पंजाबी बाग, ग्रेटर कैलाश, किंग्सवे कैंप जैसे इलाकों में बस्ती बसी। 50 और 60 के दशक में विकास की बयार बही। 1956 में ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस यानी एम्स बनकर तैयार हुआ। 1961 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी का दिल्ली में कैंपस खोलने का 16 साल पुराना सपना भी साकार हो गया। 1969 में जे एन यू, 1962 में दिल्ली हवाई अड्डा उस जगह शिफ्ट हुआ जहां आज हम इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल-थ्री यानी टी 3 है। दिल्ली के एतिहासिक पड़ाव में राष्ट्रमंडल खेलों, दिल्ली मेट्रो का जहां सौगात है वहीं दंगे आज भी दर्द का सबब बनते हैं।

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