दिल्ली में राजनीतिक दलों समेत अखबारों को सेंसर का करना पड़ा सामना

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।  

आठवें दशक की दिल्ली में हलचल तो उस दिन पैदा हुई जब 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने 1971 में राजनारायण द्वारा दाखिल की गई याचिका पर फैसला सुनाकर इन्दिरा गांधी के चुनाव को रद्द करते हुए अपने फैसले की कार्यान्विति के लिए बीस दिन का समय दे दिया। इन्दिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट में फैसले के खिलाफ अपील करते हुए माँग की कि उनकी अपील का फैसला होने तक (20 जून) इस फैसले पर बिलाशर्त रोक लगा दी जाए।

सुप्रीम कोर्ट के वैकेशन बेंच ने रोक लगाने की उनकी माँग स्वीकार करते हुए फैसला दिया कि इन्दिरा गांधी संसद की कार्यवाही में वोट के अधिकार का उपयोग किए बिना (जून 24 तक) हिस्सा ले सकती हैं। बाद में नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को नामंजूर करते हुए श्रीमती गांधी के चुनाव को वैध ठहराया। पर जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विरोधी पार्टियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद ही इन्दिरा गांधी के इस्तीफे की माँग को लेकर अभियान चालू कर दिया था। ख़तरा सिर पर मँडरा रहा था।

उस स्थिति में श्रीमती गांधी ने अपने कार्यकाल का सबसे विवादास्पद निर्णय लिया। अफ़वाह यह थी कि उन्होंने तो इस्तीफा देने का मन बना लिया था पर उस समय तक उनके छोटे बेटे संजय गांधी राजनीति में निर्णायक भूमिका निभाने लगे थे। उन्हीं के मजबूर करने पर इन्दिरा गांधी ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से, आन्तरिक फ़सादों के हवाले से, देश में आपात् स्थिति लागू करने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने प्रधानमन्त्री की सिफ़ारिश को स्वीकार करके आपात् स्थिति की घोषणा कर दी। इस घोषणा से पूरे देश के साथ राजधानी दिल्ली भी सकते में थी।

यह एक ऐसी परिघटना थी जिसका देश के राजनीतिक चरित्र और संरचना पर दूरव्यापी प्रभाव पड़ा। इतनी आपाधापी, इतना अनाचार और अवसरवाद, तात्कालिक सिद्धियों के प्रति ऐसी मोहान्धता, साध्य के लिए साधनों में इतनी अनैतिकता, झूठ-फरेब, चापलूसी, कुल मिलाकर ऐसा बवंडर मचा जिसने अच्छे-अच्छों की बोलती बन्द कर दी।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के 12 जून, 1975 के फैसले के साथ ही दिल्ली के माहौल में अफरातफरी मच गई। अगले ही दिन सी.पी.आई. के अलावा अन्य विरोधी दलों के नेता भी इन्दिरा गांधी के इस्तीफे की माँग करते हुए राष्ट्रपति भवन के सामने धरने पर बैठ गए। पूरे शहर में अफवाहों का बाज़ार गरम था। जीवन लगातार किसी अनहोनी की आशंका के साये में चल रहा था।

जयप्रकाश नारायण श्रीमती गांधी के विरुद्ध आन्दोलन को अखिल भारतीय स्तर पर चलाने की घोषणा कर चुके थे। 26 जून को देश में स्वाधीनता के बाद पहली बार दो बड़ी घटनाएँ घटीं। भारतीय प्रेस पर वैधानिक सेंसरशिप लगा दी गई और बड़े पैमाने पर विरोधी पक्षों के नेताओं की गिरफ्तारी हुई। इनमें जयप्रकाश नारायण के अलावा मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी, एल.के. आडवाणी, चरण सिंह और अशोक मेहता शामिल थे। उसी दिन, राष्ट्र के नाम ब्रॉडकास्ट में इन्दिरा गांधी इस कार्यवाही की भूमिका बना चुकी थीं।

उनका कहना था कि कुछ लोगों की हरकतों से विशाल बहुसंख्यक आबादी के अधिकारों के लिए खतरा पैदा हो गया है और देश की एकता बनाए रखने के लिए सख़्त क़दम उठाना ज़रूरी है। अगले ही दिन 27 जून को उनकी सिफारिश पर ‘देश में आन्तरिक फ़सादों और ख़तरे’ का हवाला देते हुए, राष्ट्रपति ने इमरजेंसी की घोषणा कर दी।

1971 में जिस आपात् स्थिति की घोषणा हुई थी और वह इस समय भी लागू थी, उसका सन्दर्भ बाहरी आक्रमणों से देश की सुरक्षा था। इस बार यह प्रावधान आन्तरिक फ़सादों के हवाले से किया गया था। घटनाएं बड़ी तेज़ी से घट रही थीं। जनता तक पहुंचने वाली खबरों के सारे स्रोत सेंसर की गिरफ्त में थे। ऐसे वातावरण में अफ़वाहों को बेहद्दी मैदान मिल जाता है। खबर की प्रामाणिकता तय करने का कोई ज़रिया नहीं था, इसलिए खबरियों की रचनाशीलता पूरे उरूज़ पर थी। झूठ और सच से ज़्यादा मिलावट और अतिरंजना का महत्त्व हो गया था। सब अपनी-अपनी जगह असुरक्षित महसूस कर रहे थे। शासन को जिनसे भय था, उन्हें पकड़कर जेलों में बन्द कर दिया गया था। कुछ समय तक तो यह पता चलाना भी मुश्किल हो गया था कि कौन कहां बन्द है।

केन्द्रीय सरकार ने 27 संगठनों और संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया, जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जमात इस्लामिए हिन्द, आनन्द मार्ग और नक्सलवादी गुट शामिल थे। नेताओं की पकड़ा-धकड़ी का आलम यह था कि जयपुर की महारानी गायत्री देवी तक को, जो स्वतन्त्र पार्टी और लोकसभा की सदस्य थीं, फेरा और स्मगलिंग का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया।

विडम्बना यह थी कि 29 जून को फेरा में संशोधन करते हुए राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी किया जिसके अनुसार गिरफ्तारी का कारण बताना भी गैर-ज़रूरी हो गया। 16 जुलाई को मीसा में और सख्ती बरतने के लिए एक और अध्यादेश जारी किया गया जिसके लागू होने पर कोई गिरफ़्तार किया गया व्यक्ति, जिनमें विदेशी भी शामिल थे, किसी क़ानून के हवाले से इस गिरफ्तारी से छूटने का दावा नहीं कर सकता था। कहना न होगा कि सत्ता का ऐसा आतंक फैलानेवाले स्वयं भीतर से कितने कमज़ोर और असुरक्षित होते हैं।

बहरहाल, इस स्थिति से एक विचित्र अन्तर्विरोधपूर्ण माहौल पूरे शहर में पसर गया। एक पक्ष यह था कि सब सरकारी दफ्तर और शिक्षा संस्थाएँ समय से खुलने-बन्द होने लगे। लोग अपने-अपने कार्य-क्षेत्र में समय पर पाए जाने लगे।

लंच अवकाश में दफ्तरों के बाहर से ताश खेलनेवाली टोलियां गायब हो गई। किसी टैक्सी-स्कूटरवाले की हिम्मत नहीं थी कि खराब मीटर की दुहाई देकर किराए में हेरा-फेरी करे। और तो और, डी.टी.सी. की बसों के लिए अनुशासित क्यू बनने लगे। आचार्य विनोबा भावे ने आपातकाल को बहुत जल्दबाज़ी में ‘अनुशासन पर्व’ कह दिया। ऐसा माननेवालों में सामान्य जनता का भी एक ऐसा वर्ग उनसे सहमत था, जो तटस्थ भाव से रोज़मर्रा के जीवन की अराजकता से मुक्ति को ही बड़ी उपलब्धि मान रहा था।

इसका दूसरा पक्ष भयावह था, जो अन्ततः आत्मघाती ही सिद्ध हुआ। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक लगाने का परिणाम यह हुआ कि पूरी सच्चाई से स्वयं सत्ता-पीठ भी वंचित हो गई। एक दूसरे क़िस्म की आतंकवादी अराजकता यत्र-तत्र सर्वत्र व्यापने लगी। जो लोग सत्ता-पीठ के प्रतिनिधि या उनके निकट होने का दावा करते थे, उन्होंने तमाम विरोधियों से अपने हिसाब चुकता कर लिए।

मनगढ़न्त आरोप लगा-लगाकर बड़े पैमाने पर पकड़-धकड़ शुरू हुई। विरोधी विचारधाराओं की आवाज़ घोटने के लिए अजब तरीके और हथकंडे अपनाए जाने लगे। प्रधानमन्त्री के तथाकथित कार्यालय के नाम पर तमाम पत्रों के सम्पादकों को धमकाया गया। एक दिन अचानक खबर मिली कि इलाहाबाद में हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् आलोचक प्रो. रघुवंश इस आरोप में गिरफ्तार कर लिए गए कि वे चौराहे पर तोड़-फोड़ और दंगे में शामिल थे।

किसी जन्मना विकलांग (वे दोनों हाथों का सहज प्रयोग नहीं कर सकते थे) व्यक्ति की गिरफ्तारी इतने बेहूदे बेबुनियाद आरोप के आधार पर करने का उद्देश्य आतंक फैलाने के अलावा क्या हो सकता था? यह एक उदाहरण है।

 न जाने कितने लोग शिक्षा-संस्थाओं से ऐसे ही अनर्गल आरोपों के आधार पर पकड़-पकड़कर जेलों में भर दिए गए। आलम यह था कि जिन्हें शक के दायरे में आने की ज़रा भी आशंका थी, उन्होंने चारण-भाटों की तरह अपने बचाव के लिए फुटकर कविताओं से लेकर ऐसे लेख और ग्रन्थ तक लिख डाले जिनमें इन्दिरा गांधी और संजय गांधी की विरुदावली गाई गई थी।

यह एक ऐसी परिघटना थी जिसका देश के राजनीतिक चरित्र और संरचना पर दूरव्यापी प्रभाव पड़ा। इतनी आपाधापी, इतना अनाचार और अवसरवाद, तात्कालिक सिद्धियों के प्रति ऐसी मोहान्धता, साध्य के लिए साधनों में इतनी अनैतिकता, झूठ-फरेब, चापलूसी, कुल मिलाकर ऐसा बवंडर मचा जिसने अच्छे- अच्छों की बोलती बन्द कर दी। सबसे बड़ी विडम्बना यह थी कि जिनके नाम पर सब किया जा रहा था, वे खुद इससे लगभग बेखबर, न जाने किस भ्रम की दुनिया में जी रहे थे।

दिल्ली शहर दर शहर में निर्मला जैन लिखती हैं कि एक घटना मेरी स्मृति से न कभी ओझल हुई, न उसके रंग फीके पड़े। विद्यार्थियों में विचारधाराओं के प्रति उस समय सही अर्थ में कर्तव्यनिष्ठा और सामाजिक बदलाव के लिए कुछ कर गुज़रने का माद्दा और साहस रहता था।

यह बात अलग है कि उस समय भी कुछ मौकापरस्त तत्त्व, इधर-उधर करते रहते थे। विभागीय राजनीति में विरोधी आवाजें उठानेवाली छोटी-छोटी टोलियाँ थीं। इन्हीं में से एक दिन अचानक थाने से एक तिकड़ी के सदस्यों में से एक विद्यार्थी का फोन आया। बेहद घबराई और रुआँसी आवाज़ में उसने सूचना दी कि गई रात उसको गिरफ्तार कर लिया गया और हवालात में बन्द करने से पहले उसे सिर्फ एक फ़ोन करने की अनुमति दी गई है। उस तिकड़ी में से विचारधारात्मक निष्ठा सबसे अधिक उसी गरीब पहाड़ी लड़के में थी।

सुनकर मैं सन्न, किंकर्तव्यविमूढ़। पहली प्रतिक्रिया उसके बाक़ी दो साथियों को ख़बर करने की हुई। एक हाथ नहीं आए, दूसरे हाथ आए तो मौखिक संवेदना और आधा-अधूरा आश्वासन देकर जो उन्होंने कहा, उससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता था कि वे कुछ नहीं करनेवाले। मैंने अपने मित्र डी.आई.जी. पुलिस मार्कंडेय सिंह को (जो बाद में दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर हुए) फ़ोन किया तो उन्होंने अपनी आदत के अनुसार पूरी साफगोई से मित्र धर्म का निर्वाह करते हुए सलाह दी कि इस मामले में मैं सामने न आऊँ वरना मानवीय संवेदना की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। साथ ही उन्होंने एक वकील की जानकारी दे दी जो उन दिनों ऐसे ही मामलों की पैरवी कर रहे थे, और उनके परिचित थे।

क़िस्सा कोताह यह कि वकील की सलाह के अनुसार अगले दिन पेशी के लिए जब उस विद्यार्थी को अदालत में लाया जाना था, मैंने उसके लिए घर से बनाकर खाना भिजवा दिया। स्थिति बहुत साफ़ थी। रिहाई और ज़मानत नामुमकिन। खतरा यह कि जमानत की पेशकश करनेवाला भी धर लिया जाए। इस तथाकथित मुज़रिम को जिस दूसरे व्यक्ति के साथ हथकड़ी में नाथ कर लाया गया था, वह हत्या के मामले में पकड़ा गया पेशेवर मुज़रिम था। पूरे प्रसंग में मानवीय तत्त्व केवल उस सिपाही में दिखाई पड़ा जिसने उसे भरपेट खाना खिलाने की इजाज़त सिर्फ यह सुनकर दे दी कि तथाकथित मुज़रिम, खाना लेकर आए निहायत शरीफ़ दिखाई पड़नेवाले इनसान की पत्नी का विद्यार्थी और एम.ए. का छात्र है। इससे ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सका। यहाँ तक कि बचा हुआ खाना, पैसा या कोई और सामान उसे देने का सवाल ही नहीं उठा। जो जितनी ख़बर वकील साहब के माध्यम से मिलती थी, उससे बस इतना पता लगता रहा कि वह ज़िन्दा है, पर छूटेगा तभी जब बाक़ी लोग छूटेंगे।

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