नया नया दिन पारसियों का हजारों वर्ष पुराना और पुण्य त्योहार है। प्राचीन दिल्ली में पारसियों की आबादी तो ज्यादा नहीं थी मगर दिल्ली के मशहूर त्योहारों में इसकी गिनती इसलिए होती थी क्योंकि उसे मुग़ल भी मनाते थे। दरअसल नौरोज मुग़लों के समय का सबसे बड़ा राष्ट्रीय त्योहार था। यह भी वसंत ऋतु का त्योहार था और पहली फ़रवरदीन (फ़ारसी साल का पहला महीना 20 या 21 मार्च) को पड़ता था। इस त्योहार को हिन्दुओं में वसंतागमन का प्रतीक मानते हैं। ईरान का भी यह सबसे बड़ा राष्ट्रीय त्योहार है और वहाँ भी इसे वसंत का त्योहार समझा जाता है जो दिलों में जोश, उमंग और नई आशाएँ जगाता है। वसन्त और होली की तरह यह त्योहार भी खुशियों का त्योहार है मुग़ल यह त्योहार उन्नीस दिन तक मनाते थे। पहला और आखिरी दिन बहुत शुभ समझे जाते थे। इन दोनों दिनों पर रुपए-पैसे और विभिन्न वस्तुएँ उपहार के रूप में दी जाती थीं।

नौरोज़ हर्ष उल्लास का त्योहार है और वसंत ऋतु की पहली फसल कटने पर मनाया जाता है। इसमें होली का रंग झलकता है। अनाज की हरी और नरम बालियाँ, एक कटोरा दूध का और कुछ पक्का खाना अलग रख दिया जाता है। ये जीवन के चार तत्त्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। आग का वही महत्त्व होता है जो अफ़रगान में पवित्र अग्नि का या तेल और घी के किसी दीए में ज्वाला का होता है। इस रोज़ लोग इबादत करते और घरों में भाँति-भाँति के खाने बनते थे। इस दृष्टि से हर प्राणी के “लिए प्रार्थना की जाती और गाय को समग्र पृथ्वी की माता माना जाता।

नौरोज की खुशी में फ़ारसी औरतें, मर्द, बच्चे और बूढ़े बहुत सवेरे से घर की सजावट में व्यस्त हो जाते थे। पारसी औरतें घर के दरवाज़े को चंदन और रोली से सजाती थीं। सब लोग बढ़िया और उजले कपड़े पहनकर अग्नि मंदिर जाते थे। अग्नि मंदिर के बीचोंबीच अफ़रग़ान में तेज आँच की लपटें उठती दिखाई देती थीं। वहाँ से वापस आने पर दोस्तों और रिश्तेदारों का एक-दूसरे के घर जाने का ताँता लग जाता था। जब वे एक-दूसरे से मिलते थे तो ‘हमा रोज़’ कहते थे। भूल-चूक की माफी माँगते थे शिकवे शिकायत मिटने के बाद बड़ी-बड़ी दावतें होती थीं। इस रोज के खाने में दही, सिवैयाँ, मछली, दाल-भात और रखे की कोई चीज जरूर बनती थी।

किले में और अमीरों की हवेलियों में नीरोज का जश्न बड़ी ज्ञान-शौकत से मनाया जाता था। लंबी-चौड़ी दावतें दी जाती थीं और एक-दूसरे को क़ीमती तोहफ़े दिए जाते। बादशाह को नजे पेश होती और बादशाह खुद भी बेगमात, शहजादे शहजादियों और अमीरों को इस खुशी के मौके पर उपहार देते। किले में नाच-गाने की महफ़िल भी होती जिसमें मशहूर नर्तकियाँ और संगीतकार अपनी कला प्रदर्शित करते। हँसी-खुशी के ये आयोजन किसी-न-किसी रूप में कई दिन तक होते रहते।

आईन-ए-अकबरी में लिखा है कि नौरोज एक आलम-ए-अफ्रोजदन है और एशिया के हर देश और जाति के लोग इसे ईद मानते हैं। चूँकि हिन्दू भी अग्नि और सूर्य की पूजा करते हैं और उनके राजाओं को कई बड़ी सफलताएँ नौरोज के दिन ही मिलीं और अकबर का संबंध हिन्दू राजाओं से बहुत था, इसलिए वह भी नौरोज बड़ी शान-शौकत से मनाता था। दीवान-ए-आम और दीवान-ए-ख़ास के गिर्द, 20 आलीशान दीवान थे। एक-एक दीवान एक-एक अमीर के सुपुर्द हो जाता कि वह उसे सजाए । जब ये दीवान सज जाते तो उनमें संगीत की गोष्ठियों आयोजित होतीं। फिरंगी भी मुबारकबाद का संगीत प्रस्तुत करते। नौरोज से लेकर अठारह दिन तक हरेक अमीर अपने-अपने दीवान में दावत करता वादशाह आते और अमीर ज्जने गुजारते ।

हजार-दो हजार की संख्या में कश्मीरी, ईरानी, तूरानी और हिन्दुस्तानी संगीतकार नर्तकियाँ, अभिनेत्रियाँ और कंचनियाँ इकट्ठी हो जातीं और जिधर देखो राजा इन्द्र का अखाड़ा नजर आता। नौरोज के एक दिन पहले शुभ घड़ी में एक सुहगान बीवी अपने हाथ से दाल दलती, उसे गंगा जल में भिगोती और पिट्ठी पीस कर रखती उत्सव की घड़ी क़रीब आती तो बादशाह गुस्ल के लिए जाते। रंगीन जोड़ा साअत और सितारों के अनुसार पेश किया जाता। बादशाह जामा पहनते, खिड़कीदार पगड़ी राजपूती ढंग से बाँधते, मुकुट सिर पर रखते, कुछ अपना ख़ानदानी और कुछ हिन्दू गहना पहनते । जश्न की साअत आती। ब्राह्मण माथे पर टीका लगाता और जवाहर कंगन हाथ में बाँधता कोयले दहक रहे हैं, खुशबूएँ तैयार हैं। उधर हवन होने लगा। बादशाह ने तख्त पर कदम रखा और दौलत के नगाड़े पर चोट पड़ी। नौबतखाने में नौबत बजने लगीं। ख़्वानों और किश्तियों पर सोना चाँदी के रुपए, बादाम और पिस्ते आदि जवाहर, अशरफ़ियाँ और फल वगैरह लिए अमीर खड़े हैं और ऐसे निछावर कर रहे हैं, जैसे ओले बरस रहे हों। चारों तरफ़ खनक खनक की आवाजें आ रही हैं।

सारा दरबार ईश्वर की सृष्टि का चित्र था। राजाओं के राजा महाराजा और बड़े-बड़े ठाकुर जो आकाश के सामने भी सिर न झुकाएँ ईरानी तूरानी सरदार जो रुस्तम और इसफंदयार को भी न पूछें, ताक़त और शान की तसवीर बने खड़े हैं। खास शहजादों के सिवाय किसी को बैठने की इजाजत नहीं। पहले शहजादों ने और फिर अमीरों ने कोरनिश’ बजा लाकर नवें पेश कीं। मलिकुश्शुअरा ने सामने आकर मुबारकबाद का क़सीदा पढ़ा। खिलअत और इनाम पाया।

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