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होली का त्योहार हिन्दुओं से बड़ा प्राचीन त्योहार है। इस त्योहार में जाति-पाँति का भेदभाव नहीं होता और इस मौके पर पुरानी दुश्मनी भी दोस्ती में बदल जाती है। स्त्री-पुरुष सब मिलकर इस त्योहार को मनाते आए हैं। मंदिरों में बने चित्रों और प्राचीन चित्रकला में स्त्रियों को पुरुषों के बीच होली खेलते दिखाया गया है। मुसलमानों के हिन्दुस्तान आने के बाद बादशाह से लेकर फ़कीर तक सबने इस पुण्य त्योहार को बड़ी धूमधाम से मनाया और आपस में मिलकर होली खेली।

होली क्या आती है, दिल की कली खिल जाती है। होली का त्योहार मिलन का त्योहार है, दोस्तों के मेल-मिलाप का त्योहार है। बदलते हुए मौसम की बहार, नई उमंगों से भरपूर मस्ती सब कुछ ख़ुमार से भरा लगता है। होली के पुराने रंग की बात ही कुछ और थी। मीसम बदला, हवा की ठण्डक टूटी और जाड़ा भागा। वंसत पंचमी के आते ही लोगों के हाथ में गुलाल आ जाता और होली शुरू हो जाती। इधर-उधर देवी-देवताओं पर सरसों के फूल चढ़ते, उधर अबीर-गुलाल हवा में उड़ने लगता। होली के रसिया ढाक और टेसू के फूलों को पानी से भरे मटकों में भर देते। होली के मतवाले मस्त कलंदर बने गली-गली, कूचे-कूचे घूमते फिरते थे। सारंगी, दफ़, मजीरे और चंग की ताल पर बेहाल होकर तान उड़ाते-

तेरे भोले ने पी ली भंग

कौन जतन होली खेलें

कोई ऊंची, रसीली तान में गा रहा है मैं कैसे होली खेलू रे साँवरिया के संग कुछ टोलियाँ ऐसी भी होती जिनके पास दफ़, मजीरे न होते तो टूटे कनस्तर और फूटी हँडियाँ बजाकर होली के राग अलापते सुनाई देते। शाही किले में होली का त्योहार भी ईद की ही तरह बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता था। लाल किले के पीछे जमना के किनारे मेले लगते थे। शाहवाई से लेकर राजघाट तक बड़ी भीड़ इकट्ठी हो जाती। दफ़, झाँझ और नफ़ीरी बज रही है। जगह-जगह वेश्याएं नृत्य कर रही हैं। स्वाँग भरने वालों की मंडलियाँ किले के नीचे आती और तरह-तरह की नकलें और तमाशे दिखातीं स्वाँग भरने वाला बादशाह और शहजादों शहजादियों पर भी चोट करता मगर कोई बुरा नहीं मानता बेगमें शहजादियाँ और अमीरजादियाँ झरोखों में बैठकर तमाशा देखतीं। बादशाह इनाम देते। रात को क़िले में होली का जश्न मनाया जाता था। रात-रात भर गाना-बजाना होता था। बड़ी-बड़ी नामी वेश्याएँ दूर-दूर से बुलाई जाती थीं। ‘उफ़र’ की कही हुई ‘होरियाँ’ बहुत चाव से गाई जातीं।

शहर में अमीरों और रईसों की हवेलियों की इयोदियों और छज्जों के नीचे लोगों की टोलियाँ इकट्ठी हो जातीं। ये ‘कुफ कचहरियाँ कहलाती थीं जो जिसके मुँह में आता, बकता। अमीरों पर फब्तियाँ कसी जातीं। किसी के कहे का कोई बुरा न मानता। बीच-बीच में बोलते रहते”आज हमारे होली है, होली है भाई होली है।” इसी तरह दिल्लगी होती रहती और सारा दिन हैंसी-खुशी में गुजर जाता दुलहंडी के दिन बेगम जहाँआरा के बाग़ (गाँधी ग्राउंड) में धूमधाम से मेला लगता। क्या बड़े, क्या बच्चे सभी बढ़िया, उजले कपड़े पहन कर जाते। चाटवालों, सौदेवालों और खिलौनेवालों की चाँदी हो जाती ।

होली के मतवाले अपनी धुन में सवार अनोखी सजधज से निकालते और रास करने वालों की नकलें और हँसी उड़ाते किसी लौंडे ने किसी साहब की फटी टाई और फटा-पुराना कोट पहन रखा है तो कोई काला कलूटा लौंडा चुहिया मेम बना हुआ है और गिटपिट कर रहा है। एक-दूसरे से छेड़खानी हो रही है और होलियाँ गाई जा रही हैं। कोई नया आदमी इधर को आ निकलता तो उस पर ‘होली का भड़वा’ है। कहकर टूट पड़ते और पलक झपकते उसे ऊपर से नीचे तक गुलाल और रंग से पोत देते। शहर के सभी छोटे-बड़े लोगों में जोश भरा होता। धोबी है तो घाट पर पानी में छुआछू करते हुए ठिठोलियाँ कर रहा है। हलवाई भंग और माजून की मिठाइयाँ अपने लगे-बँधे ग्राहकों को खिलाकर उनका तमाशा देख रहा है। बाजार में आने-जाने वाले लोग भी लुत्फ ले रहे हैं। होली के दिन गली के बड़े-बड़े भी सींग कटाकर बछड़ों में मिल जाते। बच्चों को इकट्ठा करके उन्हें नई-नई बातें सिखाते और बहकाकर एक तरफ तमाशा देखने खड़े हो जाते। होली के मौके पर लड़कों की तो कुछ न पूछिए। छेड़छाड़ का नया गुर हाथ आया नहीं और उसे फ़ौरन आजमाया नहीं। पीतल, टीन और बाँस की पिचकारियों से पूरे तौर पर लैस रहते। रंग पहले से ही साथ होता वरना रास्ते में जिसकी दुकान पर नजर आया, भर लिया। लड़के क्या थे आफ़त का टुकड़ा थे गुलाल से भरे चमड़े या काँच की गेंद की तरह गुब्बारों को एक-दूसरे को हर वक़्त मारते रहते। रास्ता चलने वालों को अच्छा ख़ासा बुद्ध बना देते। सड़क के बीचों-बीच चाँदी का चमकता सिक्का इस तरह चिपका देते कि आने-जाने वालों की नजर उस सिक्के पर जरूर पड़ती। अगर कोई राह चलता मूले से भी या लालच में आकर उस सिक्के को उठाने के लिए झुकता तो उसकी शामत आ जाती थी। आड़ में छिपे लड़के उस बेचारे को आ घेरते और बेईमान और चोर ठहराते और उस वक़्त तक उसका पीछा न छोड़ते जब तक कि वह उन्हें हलवाई की दुकान से हलवा-पूरी का नाश्ता न करा देता ।

कोई साहब अंगरखा पहने, दुपल्ली सर पर जमाए घर में बाहर निकलकर किनारे-किनारे सड़क पर चल रहे होते तो पुर ऊपर कोई शरारती लड़का मछली का काँटा लगा देता और जैसे ही वह साहब उसके नीचे से गुजरते वह काँटा लटकाकर उनकी दुपल्ली ऊपर खींच लेता। अब यह साहब हैं कि टोपी पकड़ने के लिए उछल रहे हैं, मगर यह लड़का कभी टोपी को बिलकुल नीचे लटका देता और यह पकड़ना चाहते तो कुएँ के डोल की तरह ऊपर खींच लेता। जब तक बहुत मिन्नत समाजत नहीं कर ली जाती या बड़े बीच में न पड़ते, टोपी वापस न की जाती। अक्सर कुछ खा-पीकर ही टोपी वापस की जाती।

छोटे-छोटे बच्चों का तमाशा भी देखने के योग्य होता था। बड़े कच्चे आलू या मोटी गाजर को काटकर उस पर चाकू से उल्टे अक्षर खोद लेते और उनके ठप्पे बना लेते। फिर उस पर स्याही लगाते और हाथों में छिपाए फिरते मौक़ा मिलते ही किसी की पीठ पर मार देते तो उसके कुरते पर सीधे अक्षर छप जाते। इन ठप्पों में से किसी पर 420 खुदा होता, किसी पर ‘उल्लू’ और किसी पर कोई एक-दो शब्द वाली गाली। जिस किसी के यह ठप्पा लगता तो वह शर्म से पानी-पानी हो जाता, क्योंकि दूसरे भी उसे वही कहकर बुलाते, मगर शैतान की फ़ौज ये बच्चे खूब मजा लेते और उसके पीछे चल चलकर उसे 420 या उल्लू या जो कुछ भी ख़ुदा होता कहते रहते।

होली के दिन तो यों भी गुलगपाड़े और रंगरेलियों में गुजर जाते लेकिन रात को जगह-जगह महफिलें लगतीं। सेठ साहूकार, अमीर-गरीब सब चंदा जमा करते और दावतों, महफिलों और मशीनों के लिए बड़ी-बड़ी हवेलियों के आँगनों को या धर्मशालाओं के सहनों को खूब सजाया जाता। इन महफ़िलों में हिन्दू-मुसलमान सब शामिल होते और सब मिलकर काम करते। ऐसे आँगनों और सहनों में चाँदनी का फ़र्श बिछाया जाता और गावतकिए करीने से रख दिये जाते थे । इत्रदान, खासदान, पानदान और पेचवान भी रखे रहते थे। छतों पर खाने के लिए पंगतें बिठा दी जाती। पत्तलों में मेवा-मिठाई, साग-सब्ज़ी, पूरी, कचौरी, हलवा, पापड़ और दीगर चीजें रखकर सबको खिलाया जाता। दायत के बाद सब फिर सहन में आते। अब हुक्का याम लिया जाता और गायतकियों के सहारे बैठ जाते। अब लीजिए बाईजी भी आ पहुंचीं। उनका सबको इन्तजार था। सारी रात नाच-गाने की महफ़िल जमी रहती। ख़याल, ठुमरी, दादरा और ग़ज़लें गाई जातीं। जब होरियाँ गाई जाती तो एक अजब सभी बंध जाता।

गलियों-मुहल्लों और चौकों में रंग खेलने से एक दिन पहले होली भी जलाई जाती थी। उसके लिए भी चंदा होता था मगर लड़के टोलियों में घूम-फिरकर और घर-घर जाकर पैसे, लकड़ी और उपले भी इकट्ठी करते थे। कुछ-न-कुछ लिए बिना नहीं टलते थे। कोई आनाकानी करता था तो उसकी दहलीज में पड़ी लकड़ी की कोई भी टूटी-फूटी या सावित चीज उठाकर भाग लेते थे। ये चीजें हफ्तों पहले इकट्ठी करना शुरू कर देते थे और किसी भी छत पर या किसी दूसरी सुरक्षित जगह पर रखते जाते थे।

‘सिराज-उल-अख़बार’ के तीसवें खण्ड में भी होली के उत्सव का बड़ा अच्छा वर्णन है। उसके अनुसार बादशाह खुद भी हिन्दू-मुस्लिम अमीरों के साथ झरोखों में बैठते और शहर में जितने भी स्वाँग भरे जाते सब झरोखे के नीचे से होकर गुज़रते और इनाम पाते। बादशाही नाच-गान मंडलियों के लोग भी होली खेलते। बादशाह के हुजूर में पूरी होली खेली जाती थी और तख्त के कहारों को इस मौके पर एक-एक अशरफी इनाम के तौर पर मिलती थी। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि दिल्ली में होती प्राचीन काल में हिन्दू और मुसलमान मिलकर मनाते थे। मुगल बादशाह और मुस्लिम अमीर और नवाब भी होली के आयोजनों में पूरा हिस्सा लेते थे। आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह जफ़र तो अपनी रिजाया के साथ बड़े शौक़ और जोश से होली खेलते थे। उनका यह होली का गीत उनकी भावनाओं को व्यक्त करता था-

क्यों माें पे मारी रंग की पिचकारी

देखो कुंवरजी दूंगी गारी

माज सकूं मैं कैसे मोसों भाजा नहीं जात

ठारे जब देखूं मैं कौन जू दिन रात

शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी

मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।।

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