इस सुहावने मौसम पर संस्कृत के कवि भवभूति की एक कविता में इस दृश्य-चित्रण और भावनाओं की अभिव्यक्ति देखिए-

ऊदे ऊदे बादल आसमान पर घिर आए हैं।

बिजली कभी कभी बड़ी गरज के साथ चमक रही है

बादलों के छाज में से बूँदें टप टप गिरने लगीं

देखते ही देखते वर्षा इतनी तेज हो गई कि नदी-नाले बहने लगे

हवा चीखें मार कर चलने लगी

दिन रात की नाई अंधकारमय हो गया है

बरखा और हवा खिड़कियों में से घर के अंदर भी आ रही है

मेरे प्रियतम यादों के महीने में मुझे छोड़कर न जाना

क्योंकि बिरहा की अग्नि विष की भाँति तड़पा देती है !

यह मौसम बरसात का एक रूप है जहाँ सावन-भादों की झड़ी है और फुइयाँ-कुइयाँ वर्षा मशहूर है वहाँ इस मौसम की धूप और उमस जानलेवा है। बारिश का छींटा भी नहीं पड़ता और हवा बंद होती है। सूरज अपनी पूरी आब-ताब के साथ चमकता है तो दम घुटने लगता है। प्राचीन काल में जब बिजली भी नहीं थी तो दिल्ली में लोग पंखों को पानी से तर करके झलते रहते। लू से बचने के लिए मोटे-मोटे परदे डालते या अगर तहखाने हैं तो उनकी ठंड में पड़े रहते। सावन-भादों से पहले मई और जून की गर्मी तो तड़पा देती।

न खाने-पीने का स्वाद और न बासी पानी ठंडा हो, न ताजा । हर वक़्त पसीना बहता। इधर कपड़ा पहना, उधर तर हुआ। चटाई का पंखा लिए पड़े हॉप रहे हैं। हाथ-पाँव ढीले पड़ जाते हैं और दिल में किसी प्रकार का उत्साह नहीं रहता। सावन के आते ही सबकी आँखें आसमान पर लग जातीं। कभी घरों में सात लड़ाका औरतों के नाम लिए जाते ताकि आँधी या झक्कड़ ही आ जाए जिससे पानी बरस जाए। क़िले की बेगमें और शहजादियाँ बाहर परिन्दों के नाम, जो ‘ब’ से शुरू होते हैं, एक साँस में लेती थीं जैसे बगला, बुलबुल, बाउ, बया, बटेर, बहरी, बारश, भिड़, भनेरा, भुनगा, बुत और बुद्ध उस समय यह विश्वास था कि अगर बिना सांस टूटे ऐसे बारह पक्षियों के नाम ले लें तो हवा चल पड़ेगी और बादल घिर आएँगे।

लेकिन एक साँस में औरतों के लिए जिन्हें ये सारे नाम याद भी न रहते, मुश्किल से लिये जाते और साँस टूट जाता। मगर इस तरह बेगमों और शहजादियों का जी लग जाता। अगर कोई इन बारह नामों को बिना साँस टूटे लेने में कामयाब हो जाती तो सब तालियाँ बजाती और यकीन कर लेतीं कि अब किसी भी समय ठंडी हवा चलने वाली है और पेड़ की डाली की तरफ देखती रहती कि कब हवा से हिलती है।

मगर सावन-भादों का मौसम है तो तान टूटेगी ही। लीजिए पेड़ों की डालियाँ हिलने लगीं। पहले आहिस्ता-आहिस्ता और फिर जोर से बड़ी ठंडी हवा है और देखते-ही-देखते आसमान पर ऊदे मटियाले बादल घिर आए हैं। एक मोटी-सी बूँद पड़ी, फिर बहुत-सी मोटी बूँदें। चारों तरफ़ लड़कों-बालों का शोर मच गया। बहुत जरा से बच्चे बिल्कुल नंगे और बड़े बच्चे सिर्फ जापिया पहनकर गलियों और सड़कों पर निकल आए हैं। बारिश दम-ब-दम तेज हो रही है। ऐ लो, ये तो पर नाले पायें पायें करके गिर रहे हैं। कैसा खूबसूरत अंधेरा छा गया है। बिजली भी कड़क रही है और कभी-कभी तो दिल धड़क जाता है।

जरा बारिश रुकी तो आँखों में तरावट आ गई। वाह! क्या मौसम है, इन्सानों पर जानवरों पर, परिन्दों पर पौधों, दरख्तों पर सारी पृथ्वी पर ही एक निखार आ गया है। लगता है प्रकृति ने सबके मुँह धो दिए हों। दिल्ली बाग़ों का शहर था और चप्पे-चप्पे पर बाग-बगीचे थे। मोर झीकार रहे हैं. कोयले कुक रही हैं और पपीहा पी-पी की रट लगा रहा है। तितली अलाप रही है। प्राणियों का तो कहना ही क्या, वनस्पति पर भी एक नया निखार आ जाता है। जिन पेड़ों को पतझड़ ने ठंड-मुंड बना दिया था, हरी-हरी कोपलों और पत्तियों से मालामाल हो रहे हैं।

दाग़ों में चारों ओर हरियाली छा गई है और खेत लहलहाने लगे हैं। जिन बागों में खास बहार होती थी, लोग सैर-तफरीह को जाते थे, उनमें मुबारक बाबा महलदार खाँ, बागडेखों और शालीमार बाग खासतौर पर मशहूर थे। रोशनआरा दाग़ में भी बड़ी रौनक होती थी। सावन में झूले घरों में पड़ते थे और बाग़ों में जब अनाज कटना शुरू हो जाता तो ये चिड़ियाँ भी फुरफुर करके कहीं और चली जातीं।

बरसात के मौसम में जब बीर बहूटियों निकल पड़तीं तो किले की शहजादियों को उनका लाल मखमलीपन बहुत पसंद आता एक-एक बीरबहूटी एक-एक अशरफी की मोल ली जाती और फिर उन्हें बच्चों को बाँटा जाता। एक बार पाँच वर्ष की भोली शहजादी ने वीरबहूटी को अपनी हथेली पर रखा तो उसने हाथ के हिलने-डुलने से अपने जे समेट लिए और गोल-मटोल होकर ऐसी लगने लगी जैसे मर गई हो। शहजादी रोती रोती अपनी माँ के पास गई और बोली, “अम्मीजान, बीरबहूटी मर गई ।” बरसात में दिल्ली के सैलानियों की टोलियों बाहर निकल पड़ती। कोई टोली महलदार खी जा रही है तो कोई जमना के किनारे पर किसी ने फीरोजशाह कोटला की राह ली तो किसी ने धौला कुएँ की।

चंद टोलियाँ मदरसे जा पहुँची तो चंद टोलियाँ हुमायूँ के मकबरे में जा धमकी जो टोलियाँ जरा सुकून की जगह पसंद करती वे हौज ख़ास का रुख करतीं। वे ओखले में दिन गुजारती फालेज की सैर मर्दों की होती थी। उसमें घर की औरतों को शरीक नहीं किया जाता था। यह सैर आमतौर पर रात को होती थी। जमना की ठंडी रेत पर दरी-चाँदनी का फ़र्श हो जाता था। रोशनी के हंडे साथ होते थे, जिन्हें गैस के हंडे कहा जाता था। हर हंडे के साथ एक पीपा मिट्टी के तेल का होता था, जिसमें पंप से हवा भरी जाती थी। कई लोग गैस की लालटेन भी ले जाते थे। रात को बहुत देर तक लोग ठहरते, खाते-पीते, मौज़ मनाते और मौसम का लुत्फ़ लेते। अचानक बारिश हो जाने की सूरत में कहाँ शरण लेनी है और क्या करना है, इसके बारे में सोचकर रखते। दिल्ली वाले सावन के मौसम में अगर खुला हो तो घर न टिकते। यह अकसर सुनने में आता – “भला इस चारदीवारी में क्या मजा, सैर होनी चाहिए।”

महरौली के इर्द-गिर्द अमराइयाँ भी इस मौसम में झूला झूलने और सैर-तफरीह के लिए बड़ी लोकप्रिय थीं कुनये के कुनबे खाने-पीने का सामान लेकर वहाँ पहुँच जाते झूले पड़ जाते, पेंगें बढ़ाई जाती और कढ़ाइयाँ चढ़ जातीं। दूसरे बागों में भी यही मेला नजर आता। लोग आम और जामुन के पेड़ों पर टूट पड़ते। दोनों बरसात के मेवे हैं। जरा पेड़ को हिलाया और जामुनों का मेह बरस पड़ा। खा भी रहे हैं और झोली में भी भर रहे हैं। आमों के दरख्त भी देखते-ही-देखते साफ़ हो जाते। चारों तरफ गुठलियाँ ही गुठलियाँ नज़र आतीं। लक्खी बाग़ अपने आमों के झुंड के लिए मशहूर था। उसमें जामुन के भी बहुत पेड़ थे और जामुन के गुच्छे हर वक़्त हवा में झूलते रहते अमराइयों में झूले पड़े हैं और गीत गाए जा रहे हैं-

झूला किन डारो रे अमरियाँ झूला किन डारो रे अमरियां

रैन अंधेरी ताल किनारे मुरला झंगारे, बादल कारे

बुंदियाँ पड़े, फुइयाँ-फुइयां झूला किन डारो रे अमरियां

चार मिल गइयाँ भूल भुलैयाँ दो सखि झूलें, दो ही झुलाएं

झूला किन डारो रे अमरियाँ

सुनो सखि सैयां जोगिया हो गए

सुनो सखियां जोगिया हो गए

मैं जोगन तेरे साथ सुनो सखि सैयां जोगिया हो गए

जोगिया बजाए दीन बंसरी जोगन गाए है मल्हार

सावन-भादों के मौसम में क़िले में और शहर में खूब रंगरलियाँ मनाई जातीं। रेशमी रस्सियों के झूले डालते थे और उनमें गंगा-जमनी पटरियों पड़ी होती थीं। घटाएं उमड़कर आती और लोगों के दिलों में नई-नई उमंगें पैदा हो जातीं। सावन में नई-नवेली दुलहन अपने मैके जाती है। यह रस्म दिल्ली के मुसलमानों और हिन्दुओं में सामान थी। अमीर खुसरो का यह गीत सदियों से गाया जा रहा है-

आमां मेरे बाबा को भेजो री कि सावन आया

बेटी तेरा बाबा तो बुड्ढा री कि सावन आया

आभी मेरे भैया को भेजा री कि सावन आया

बेटी तेरा भैया तो चाला री कि सावन आया

आम मेरे मामू को भेजो री कि सावन आया

बेटी तेरा मागू तो बाँका री कि सावन आया

सावन में बहू का सिंधारा भेजा जाता है। इसमें एक रेशम का रस्सा और दो चांदी की पटरियों बहू के झूलने के लिए और एक पतली रस्सी और दो पटरियों उसकी गुड़िया के लिए भेजी जाती है।

सावन-भादों के महीने पकवानों के महीने होते थे। घर पर पकौड़े, मालपूड़े और दूसरा पकवान बनता रहता था। बरसात में इन चीजों के खाने का मजा ही कुछ और होता। बारिश में भूख भी अच्छी लगती और खाने का भी मजा आता। खाने की फ़रमाइशें आमतौर पर घर के मर्द बड़े-बूढ़े करते । जहाँ वारिश की बूँदों से मीसम ठंडा होता तो सलाह दी जाने लगतीं-“देखो जी, पालक और हरी मियों के पकोड़े और धनिए की चटनी बना लो, मजा आ जाएगा।” बहू आज तो मालपूड़े का दिन है। वह जो मेरठ से घी आया है, उसे इस्तेमाल करो ना और भई जरा-सी अजवाइन भी डाल देना ।

तीज हिन्दू लड़कियों की और सिंधारे बहुओं के होते हैं। लड़कियों और बहुओं को इस मौके पर उपहार और ढेर सारे कपड़े, जेवर आदि दिए जाते हैं। यह बड़ा खुशियों भरा त्योहार है और कुनबे की औरतों की विशाल हृदयता, रख-रखाव और न्यायप्रियता को दर्शाता है।

बरसात के मौसम के दो और मशहूर त्योहार हैं-सलोने यानी रक्षाबंधन और जन्माष्टमी। सलोनो का त्योहार दिल्ली में बड़े हर्ष उल्लास के साथ मनाया जाता रहा है। प्राचीन दिल्ली में तो उसकी बहार ही कुछ और थी और स्त्रियाँ बड़े उत्साह से उसकी प्रतीक्षा करती थीं। बहनों का अपने भाइयों के लिए स्नेह आदर्श है और इसका प्रदर्शन वे सलोनों के दिन अपने भाइयों की कलाई पर राखी बाँधकर करती हैं। भाई अपनी बहनों को रुपए और उपहार देते हैं और बहनों की हर प्रकार से रक्षा करने का मन-ही-मन प्रण करते हैं।

प्राचीनकाल में तो औरतें और लड़कियाँ घरों की शोभा थीं और उनकी रोजमर्रा की जिन्दगी अपने माँ-बाप और भाई-बहनों और रिश्तेदारों के अटूट प्यार के गिर्द घूमती थी। सलोनो वाले दिन दिल्ली की गलियों और बाजारों में एक नई रौनक आ जाती थी। उन दिनों जो राखियों मिलती थी ये सफेद और सुनहरी पन्नी सलमे-सितारे, रेशम, अभ्रक और मोतियों से बनती थीं। बहुत अमीर घरों में औरतें सच्चे मोतियों की राखियाँ भी बनवाती थीं। मगर राखी का सस्ता या क्रीमती होना निरर्थक था, क्योंकि बहनों का प्यार तो पैसे दो-पैसे की राखी में भी उतना ही गुँथा होता था। वह दौर संयुक्त परिवारों का था और आमतौर पर छोटे-बड़े भाई एक ही घर में होते थे।

बहनें सुबह सबेरे ही सजधज कर भाइयों के राखी बाँधतीं। भाई बहनों को नकदी और तोहफ़े देते और दोपहर का खाना जिसमें ख़ास चीजें यानी पूरी-कचौरी, रायता और खीर आदि होती, सब मिलकर खाते शादीशुदा बहनें जो शहर के ही दूसरे हिस्सों में होतीं भाइयों के यानी अपने मायके जाती और उनके राखी बाँधी दिल्ली के बाजारों और सड़कों पर ऐसी सजी-सजाई मिठाई की थाली या टोकरी हाथ में लिए पैदल या डोली या तांगे में बहनें भाइयों के घर की तरफ़ जाती नज़र आतीं। उस रोज़ भी और कई दिन पहले से राखी बेचने वालों की दुकानें जगह-जगह लग जातीं। उन दिनों पंडित भी रंगीन धागों (कलावे) की बनी राखी लोगों के बाँधते और लोग उन्हें पैसे देते थे। हिन्दुओं और मुसलमानों में इतना मेलजोल था कि बहुत-सी हिन्दू औरतें अपने मुसलमान भाइयों के, जिनका घरों में आना-जाना था, राखी बाँधतीं और उनके मुसलमान भाई उन्हें उसी तरह रुपये देते राखी बाँधे और तिलक लगवाए के मुसलमान भाई उसी तरह बाज़ार में घूमते और अपने घर लौटते और किसी को ख्याल भी न होता बल्कि खुशी महसूस करते। राखी उनके हाथ पर भी कई-कई दिन बंधी रहती।

हफ़्त तमाशा के लेखक मिर्जा मुहम्मद हसन ‘क़तील’ सलोने का जिक्र करते हुए लिखते हैं-

“उस दिन संपन्न हिन्दू नृत्य-गायन का आनंद उठाते हैं और शाम के समय शहर से बाहर जाकर मैदान में एकत्रित होते हैं। कुछ लोग किसी पेड़ की छाया में और कुछ लोग दरिया के किनारे फर्श बिछाकर बैठते हैं और खूबसूरत लड़कों को नचाते हैं।”

क़िले में भी यह त्योहार मनाया जाता था। इसकी शुरुआत के लिए एक घटना का उल्लेख किया जाता है जो ऐतिहासिक सत्य है जब आलमगीर द्वितीय को उनके वजीर ने कल कराके उनकी लाश को फीरोजशाह कोटला के पीछे फिकवा दिया था तो एक ब्राह्मण स्त्री रामजनी गौड़ जो जमना-स्नान से वापस आ रही थी, उसने बादशाह की लाश को पहचानकर सारी रात उसकी हिफ़ाज़त की थी। बादशाह शाह आलम ने रामजनी गौड़ को उसकी हितैषिता की भावना से प्रभावित होकर अपनी बहन बना लिया और उसे बहुत कुछ दिया। वे उसके साथ भी बहनों वाली सारी रस्में बरतते रहे। वह भी सालोनो के दिन बहुत-सी मिठाई वालों में लेकर किले में आती थी और बादशाह के हाथ में सच्चे मोतियों की राखी बाँधती थी। बादशाह उसको रुपए और अशरफ्रियाँ देते थे।

जन्माष्टमी कृष्ण कन्हैया के जन्मदिन का त्योहार है और उस समय भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था इस रोज हिन्दुओं के बाजार और दुकानें बंद रहती थीं, मगर हलवाइयों की दुकानें खुली रहती थीं। बिड़ला मंदिर तो नई दिल्ली में बहुत बाद में बना है, मगर पुरानी दिल्ली के सभी छोटे-बड़े मंदिर इस मौके पर खूब ही सजाए जाते थे और उम्दा उम्दा नौकियों बनाई जाती थीं, जिनमें कृष्णजी के बचपन के विभिन्न दृश्य प्रस्तुत किए जाते थे। चाँदनी चौक में गौरीशंकर का मंदिर बहुत सजता था। दिल्ली में उन दिनों हर गली, बाजार और कूचे में कोई-न-कोई छोटा-बड़ा मंदिर होता था और ये मंदिर एक-से-एक बढ़कर सजाए जाते थे। इस सजावट में बस्ती और मुहल्ले के सब लड़के वाले और बड़े हिस्सा लेते थे और सजावट की ये तैयारियाँ हफ्तों पहले शुरू हो जाती थीं। इसके अलावा जन्माष्टमी के अवसर पर लोग अपने-अपने घरों में भी एक छोटा-सा मंदिर बना लेते। लड़कों को यह भी लालच होता कि जब गली-मुहल्ले के लोग देखने आएँगे तो उनके मंदिर में भी एक-एक दो-दो पैसे चढ़ाएँगे।

जहाँ शाम होती और बत्ती जलती मंदिरों में घंटे बजने शुरू हो जाते। मर्द औरतें और बच्चे दल-के-दल बनाकर लहरों की तरह गलियों और बाजारों में निकल आते और सबका रुख मंदिरों की तरफ़ होता। ज्यादातर आदमियों, औरतों और बड़ी उम्र के लड़कों ने भी सुबह से व्रत रखा हुआ होता मगर सबके चेहरे कृष्णभक्ति में डूबे हुए होते। एक मंदिर से निकलते, दूसरे में जाते और सबकी सजधज देखते झाँकियाँ ऐसी-ऐसी बनाई जातीं कि देखने वाले दंग रह जाते। आम तौर पर औरतें और बच्चे दस ग्यारह बजे रात तक अपने घरों को वापस लौट जाते थे, मगर कृष्णभक्त पुरुष और बहुत-सी स्त्रियाँ भी मंदिरों में ही बैठी रहतीं और पूजा करतीं। जब श्रीकृष्ण के जन्म की घड़ी आती यानी उनका जन्म होता तो लोग खुशी के मारे दीवाने हो जाते और भगवान कृष्णजी की जय-जयकारों से मंदिर गूंज उठते घण्टे घड़ियाल लगातार बजते और लोग मंदिर के प्रसाद से ही अपना व्रत खोलते और घरवालों के लिए भी प्रसाद ले आते घरों में औरतें पूजा करतीं और फिर सब व्रत वाले मिलकर खाना खाते घरों में उस दिन पूरी-कचौरी और तरह-तरह की पंजीरी बनाई जाती। आम तौर पर गोंद, मखाने और खरबूजे के बीजों की बहुत स्वादिष्ट पंजीरी बनती थीं।

हात तमाशा के लेखक अनुसार कुछ मुसलमान भी जन्मष्टमी के दिन कंस की प्रतिमा बनाकर उसका पेट चीरते थे। उसमें शहद पहले से भर देते थे और उसे उसका खून समझकर पीते थे। बहुत-से मुसलमान चलती-फिरती झाँकियों को भी बाजारों और सड़कों पर देखते थे और कृष्णजी और राधा का जिक्र बड़े आदरपूर्वक करते थे।

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