मुगल शासन Mughal history

बात उन दिनों की है जब लखनऊ और मुर्शिदाबाद की रियासतें पाश्चात्य फैशन और वास्तुकला के प्रयोग कर रही थीं, दिल्ली ने बहुत फख और मज़बूती से मुगलिया वास्तुकला को ही अपनाया। कोई सोच भी नहीं सकता था कि ज़फर कभी भी दरबार में बड़े बर्तानवी अफसर या इंगलिस्तान के बड़े चर्च के पादरी के लिबास में देखे जाएंगे, जैसाकि लखनऊ के नवाब के दरबार के बारे में सुना गया था।

मुगल बादशाहों mughal emperor की बनाई हुई इमारतों में पाश्चात्य वास्तुकला की कोई मिलावट न थी। ज़फर के नए गर्मियों के महल ज़फ़र महल का बड़ा दरवाज़ा और महताब बाग का नाजुक तैरता हुआ तहनशीं (पवेलियन) और लाल किले का महकता बाग, सब बिल्कुल शाहजहां के जमाने के मुग़ल अंदाज़ के थे ।

और जो दरबार के लिए सच था वही शहर के लिए भी सच था। सिवाय एक दिल्ली बैंक की इमारत के जो बेगम समरू का पलाडियन तर्ज का महल हुआ करता था। उस वक्त जुलूस जिन इमारतों के सामने से गुज़र रहा था उनमें कोई पाश्चात्य मग़रिबी क्लासिक अंदाज़ नहीं था। और न ही शाह जॉर्ज के दौर की बड़ी-बड़ी चौकोर खिड़कियां थीं जो लखनऊ और जयपुर के घरानों में आम थीं।

1852 में दिल्ली की अंग्रेज़ तर्ज़ की इमारतों में सिर्फ एक गुंबद वाला गिरजा, एक क्लासिकी रेजिडेंसी की इमारत जो अब दिल्ली कॉलेज हो गई है और एक अच्छी तरह घेराबंद शस्त्रागार था जो सब लाल किले के उत्तर में थे और जुलूस के रास्ते से अलग। वैसे भी उस ज़माने में दिल्ली में अंग्रेज़ काफी कम थे, शायद सिर्फ सौ के करीब, जैसे आज़ाद जो एक शायर और आलोचक थे, उन्होंने कहा था, “यह वो दिन थे कि अगर दिल्ली में कोई अंग्रेज़ दिख जाता था तो लोग उसे ख़ुदा की असाधारण रचना समझते थे और एक दूसरे को दिखाकर कहते थे, “देखो, देखो वह यूरोपियन जा रहा है!

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