भारतीय शिक्षण मंडल, शालेय प्रकल्प, दिल्ली प्रान्त तथा संस्कृत एवं प्राच्य अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित शिक्षक स्वाध्याय आनन्दशाला का समापन ४ नवम्बर २०२३ को जेएनयू के संस्कृत तथा प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान में हुआ। आनन्दशाला का आरम्भ २ नवम्बर २०२३ को हुआ था। तीन दिन तक चलने वाली इस आनन्दशाला के संचालक भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय संगठन मंत्री माननीय श्री शंकरानंद जी रहे।

कार्यक्रम का उद्घाटन भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय संगठन मंत्री माननीय श्री शंकरानंद जी, भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय शालेय प्रमुख श्री प्रीतम सिंह, संस्कृत एवं प्राच्य अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के संकायाध्यक्ष प्रोफ़ेसर सुधीर कुमार आर्य, भारतीय शिक्षण मंडल, दिल्ली प्रान्त के अध्यक्ष प्रोफ़ेसर अजय कुमार सिंह तथा भारतीय शिक्षण मंडल, शालेय प्रकल्प दिल्ली प्रान्त की प्रमुख डॉ. अर्चना जी के द्वारा दीप प्रज्ज्वलित कर किया गया।

कार्यक्रम में भारतीय शिक्षण मंडल दिल्ली प्रान्त के अन्य पदाधिकारी तथा शिक्षक गण उपस्थित थे। उद्घाटन सत्र में प्रोफ़ेसर सुधीर आर्य ने सभी अतिथिगण का स्वागत करते हुए कहा कि यदि आचार्य पूर्व रूप है तो विद्यार्थी उत्तर रूप है। उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि शिक्षक का महत्वपूर्ण उत्तरदायत्व अपने विद्यार्थियों को जीवन जीने की कला सिखाना है। डॉ. अर्चना ने शालेय प्रकल्प का परिचय देते हुए बताया कि आनन्दशाला से आचार्यों के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं। प्रोफ़ेसर अजय कुमार सिंह ने कहा कि प्रत्येक विषय में भारतीयता का समावेश करने हेतु सभी को योगदान देना चाहिए।

आनन्दशाला के प्रथम सत्र में माननीय शंकरानंद जी द्वारा अत्यंत रोचक तथा समावेशी शैली में शिक्षक वृन्द के साथ संवाद के माध्यम से शिक्षण के अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा हुयी। माननीय शंकरानंद जी ने कहा कि जब जीवन सफल तथा अर्थपूर्ण तथा उद्देश्यपूर्ण होता है तब उससे आनंद की प्राप्ति होती है और यह आनंद व्यक्ति के चेहरे पर स्पष्ट देखा जा सकता है। उन्होंने शिक्षक जीवन के वास्तविक अर्थ, उद्देश्यों तथा राष्ट्र को योगदान पर समग्र प्रकाश डालते हुए कहा कि निरंतर साधना तथा सीखने की प्रवृत्ति से शिक्षकों में विनम्रता, विकास तथा विवेक का उद्भव होता है। इस दृष्टि से उन्होंने शिक्षकों को निरंतर आत्मावलोकन करने के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि शिक्षकों को “वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहितः” की भावना से सर्जक का कार्य करना चाहिए तथा राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देना चाहिए। पूरे सत्र के दौरान शिक्षकों ने अपने अनुभव भी साझा किये। कल्याण मंत्र के साथ आनन्दशाला के प्रथम दिवस का समापन हुआ।

आनन्दशाला के द्वितीय दिवस दो सत्रों का आयोजन हुआ। माननीय शंकरानंद जी ने प्रथम सत्र में अत्यंत रोचक तथा संवादात्मक शैली में शिक्षकों से संवाद करते हुए बताया कि शिक्षकों की दिनचर्या का अनुशासित होना अत्यंत आवश्यक है। अनुशासित नहीं होने से हम अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर सकते। उन्होंने कई उदाहरणों का प्रयोग करते हुए बताया कि जन्म से सभी एक समान क्षमतावान होते हैं किन्तु बाद में हम समान नहीं रहते। सबमें एक अद्वितीयता होती है जो उन्हें अपने आप में सबसे अलग तथा विशिष्ट बनाती है। “मेरी अद्वितीयता क्या है?” यह पहचानकर अपने स्वधर्म का पालन करना ही जीवन का धर्म है। शंकरानंद जी द्वारा उपस्थित शिक्षकों को अत्यंत प्रेरणादायक स्त्रोत प्राप्त हुए। शिक्षकों ने जाना तथा आत्मसात किया कि तप में जलना तो पड़ता है पर इसका आनंद ही विशिष्ट है। शंकरानंद जी ने सुन्दर उदाहरणों के माध्यम से शिक्षकों को अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते हुए चिंता क्षेत्र को कम करने के तरीके भी बताये। आनन्दशाला के द्वितीय दिवस के द्वितीय सत्र में शिक्षकों ने अपने आप को पांच समूहों में विभाजित किया तथा राष्ट्र निर्माण से सम्बंधित पांच विषयों पर सामूहिक चर्चा की।  इस चर्चा के प्रमुख बिंदुओं पर मंथन के साथ इस सत्र का समापन हुआ। 

कार्यक्रम के अंतिम दिन प्रथम सत्र में मा. शंकरानंद जी द्वारा शिक्षकों को स्पर्धा से बचते हुए सहयोग के माध्यम से ऋषि बनने की दिशा में आगे बढ़ने के प्रेरक स्त्रोत प्राप्त हुए। शंकरानंद जी ने शिक्षकों से संवाद करते हुए कहा कि संकल्प मात्र शब्दों का नर्तन नहीं है। संकल्प नाप सकें ऐसा हो, व्यक्तिनिरपेक्ष हो और समयबद्ध हो तथा इस पर क्रिया होना आवश्यक है। जिस संकल्प को साकार करने से क्षमताओं का विकास नहीं होता वह संकल्प नहीं हो सकता। उन्होंने विश्व कल्याण तथा आत्मकल्याण को केंद्र में रखते हुए संकल्प के महत्त्व को समझाया। इसके लिए उन्होंने वातावरण निर्मिती, संकल्पना स्पष्टीकरण, जीवनध्येय, राष्ट्रगौरव, संवेदना, सेवा तथा ज्ञान संकल्प पर चर्चा की।

शंकरानंद जी ने सभी शिक्षकों का आह्वान किया कि वे अपने विद्यार्थियों में इन समस्त मूल्यों के विकास कर कम से कम पांच विद्यार्थियों का जीवन इस प्रकार से गढ़ें कि वे राष्ट्र निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान दे सकें। शिक्षा में भारतीयता के गौरव से अपने शिक्षण संस्थानों को आलोकित करना प्रत्येक शिक्षक का दायित्व होना चाहिए। तत्पश्चात समूह विमर्श के लिए शिक्षक गण अपने समूहानुसार चर्चा के लिए एकत्रित हुए। समापन सत्र में समूह विमर्श पर मंथन हुआ तथा शिक्षकों से सुझाव आमंत्रित किये गए। शिक्षकों ने आनन्दशाला के सन्दर्भ में हुए अपने-अपने अनुभव साझा किये। भारतीय शिक्षण मंडल के अखिल भारतीय शालेय सह प्रमुख श्री पुष्पेंद्र राठी ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि इस आनन्दशाला के माध्यम से निरंतर शिक्षकों के साथ संवाद कर उन्हें राष्ट्र निर्माण के लिए जोड़ने का काम हो रहा है। सकारात्मकता, कृतिशीलता, समयबद्धता, क्षमता-विकास, आत्मनिर्भरता, सामूहिकता तथा त्याग के मूल्यों को अपने में विकसित करने हेतु उपस्थित शिक्षकों ने संकल्प किया तथा भारत माता को पुष्पार्चन के साथ अपने अपने संकल्प को समर्पित किया। सभी शिक्षकों के हृदय में आनंद, प्रेरणा तथा आत्म एवं राष्ट्र गौरव के संचार के साथ धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात आनन्दशाला का समापन हुआ।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here