हवेली फारसी का शब्द है। इसका अर्थ है पृथ्वी का एक टुकड़ा या खुला स्थान जो लश्कर यानी फौज के लिए निश्चित कर दिया गया हो। ऐसी जमीनों की आमदनी से सेना का खर्च चलाया जाता था। समय बीतने के साथ-साथ जमीन के किसी भी विस्तृत खंड को, जिस पर चारदीवारी खिंची हुई हो और कुछ कमरे या कोठरियां बनी हुई हों, लोग हवेली कहने लगे। अपने नए अर्थ में हवेली एक आलीशान, लंबी-चौड़ी इमारत को कहते हैं जो एक मंजिल की और कई मंजिलों की हो सकती है। पुरानी दिल्ली में हवेली लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी, सभ्यता और रहन-सहन का एक अभिन्न अंग थी और इसके बिना उस समय के सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

दिल्ली की हवेली

दिल्ली की हवेली क्या थी मुगल इमारतों का एक छोटा-सा नमूना थी। लाल पत्थर का संगीन, ऊंचा दरवाजा, लोहे की कीलों से जड़े दो फाटक जो हाथियों की टक्करों से भी न टूटें। दरवाजे के दोनों तरफ पत्थर की दो चौकियां पहरे के लिए बनी हुई; दरवाजे से अंदर लंबी, पेंचदार ड्योढ़ी लाज-परदे के लिए। ड्योढ़ी से तीन सीढ़ियां उतरकर एक लंबा-चौड़ा आंगन। जिसके बीचोंबीच एक अठपहलू हीज और उसमें फव्वारा, जिसके चारों ओर फूलों के गमले रखे रहते थे।

आंगन में ही हौज के पास दो-तीन ककरौंदे, अनार और खट्टे के पेड़ होते थे। हिन्दुओं की हवेली में आंगन में एक कोने में तुलसीजी का थांवला भी रखा रहता था। हर रोज सवेरे मुंह अंधेरे घर की औरतें नहा-धोकर तुलसी की पूजा करतीं और जल चढ़ाती थीं। कार्तिक के महीने में तुलसीजी को चुनरी चढ़ाई जाती थी। जब घर की बहू-बेटियां कहतीं —- जो मैं पूतों-पड़वा नहाई, जानो सारा कार्तिक नहाई। इस पर बड़ी-बूढ़ियों कहतीं – जो मैं जानती ऐसा पुन्न, कार्तिक नहाती तीसों दिन ।

तुलसी पंच महापिय प्यारी कर पर तगिया विकट संवारी तुलसीजी का बिरला थला सलाए तीन बेर नारायण आए आप फिरें औरों को तारें मातु-पिता को वही निस्तारें

तुलसी माता अर्थ तुम्हारा धर्म तुम्हारा

घर की स्त्रियां तुलसी माता की कहानी भी सुनाया करती थीं।

आंगन के एक ओर मेहराबदार दालान दर दालान थे और दालानों के बाजुओं पर दुतरफ़ा कोठे-कोठरियां भी थीं। दालानों में परदे पड़े रहते थे। परदे बहुत मोटे और भारी होते थे। जाड़ों में परदे गिरा दो सर्दी नाम को भी न आए। गर्मियों में परदे हटा दो तो खुले आंगन का मजा आए। परदों का यह कमाल था कि जाड़ों में सख्त सर्दी में बाहर निकलो तो बत्तीसी बजने लगे लेकिन अंदर आ जाओ तो ठंड और हवा का नाम नहीं। इसी तरह गर्मियों में परदे हटाए नहीं कि गर्मी और तपिश समाप्त। कोठे-कोठड़ियों के ऊपर तीन दर के झरोखे बने हुए थे और उन झरोखों के आगे कटहरे लगे थे। शादी-ब्याह, तीज-त्योहार में स्त्रियां झरोखों में चिलमन के पीछे बैठकर नीचे दालान में नाच मुजरे और रस्मों का अच्छी तरह आनंद उठाती थीं। शादी-ब्याह में जब कोई नाचने-गाने वाली दूल्हे का सेहरा गाती और बन्ने और घरवालों की तारीफ़ के पुल बांधती तो औरतें अपने दुपट्टे के पल्लू में रुपए बांधकर नीचे लटकाकर नाचने-गाने वाली को बेल देतीं गाने वाली झुक-झुक कर आदाब बजा लाती और बी नायिका खड़ी होकर पल्लू में से रुपए खोलकर साज़िन्दों को देती जातीं।

काठरी के अंदर रास्ता

उन झरोखों में जाने के लिए कोठरी के अंदर से ही जीना होता था और स्त्रियों को मर्दाने में से होकर ऊपर जाना नहीं पड़ता था। दालान -दर-दालन और झरोखे सब एक ही छत के नीचे होते थे। गर्मियों में तो खुले आंगन में ही ब्याह-शादी, तीज-त्योहार और रस्में हो जाती थीं, लेकिन जाड़ों में दालानों को खूब सजा दिया जाता था और सजे हुए दालान महल से लगते थे। सफ़ेद चांदनी का फ़र्श होता, उस पर क़ालीन बिछ जाते और गावत किए लग जाते। उगालदान, पानदान, चांदी की तश्तरियां और इत्रदान ढंग से रख दिए जाते थे। विशिष्ट जनों के लिए फर्श के ऊपर एक छोटा-सा कालीन मसनद की तरह बिछा रहता था और गावतकिए लगे रहते थे। उन पर हर रोज़ के इस्तेमाल के लिए तो सफेद गिलाफ रहते मगर खास-खास मौकों पर रेशमी और कारचोबी काम के गिलाफ चढ़ा दिए जाते थे।

चांदनी के चारों कोनों पर लोहे या संगमरमर के गुंबदनुमा मीरफ़र्श (भारी पत्थर) कोनों को दबाए रखते ताकि वे मुड़ न जाएं और उन पर शिकन न पड़ें। मसनद के ऊपर दीवार में एक ताक बना होता जिसमें आईना लगा रहता और ताक के हाशिए पर उभरवां बेल-बूटे बने होते थे। दालानों और कमरों की दीवारों पर सफेदी की पुताई से खूब चमक रहता था। दालान- दर दालान की पछीत की दीवारों पर दो पांखों में एक छोटा-सा रास्ता बना होता था। यह रास्ता नौकरों के आने-जाने के लिए बनाया जाता था। उससे नौकर-चाकर गुलाम-गर्दिश’ से आकर बड़े आदर भाव और शांति से खड़े रहते थे और मेजबान के इशारे पर काम करते रहते थे। आंगन के एक कोने में चौड़ी-चौड़ी सीढ़ियों का एक घेरदार जीना ऊपर की मंज़िल और तिखने पर जाने के लिए था। ऊपर की मंजिल में कई कमरे होते थे। एक कमरे से दूसरे में जाने के लिए छज्जा था। छज्जे में रस्सी से बांधकर रस्सी या तार के छीके आंगन में लटका दिए जाते थे। इन छीकों में खाने-पीने की चीजें और गिलास कटोरी रख दी जाती थी ताकि ऊपर-नीचे के चक्कर बच जाएं। रात-विरात को किसी को भूख लगती तो वह छींके में रखा बर्तन खींचकर कोई चीज ले लेता था, नौकरों या घरवालों को आवाज़ देने की जरूरत नहीं पड़ती थी। छींकों का एक यह फ़ायदा भी था कि चूहे-बिल्ली मुंह नहीं डाल सकते थे।

रहने के कमरों में जगह-जगह ताक बने हुए थे। उनमें सब तरह की छोटी-छोटी चीजें रख दी जाती थीं। लेकिन बैठने के कमरों में भी दीवार के बीचोंबीच एक बहुत उम्दा, बड़ा ताक बना रहता था। उसमें एक आईना भी लगा होता था। ताक के हाशियों पर उम्दा बेल-बूटे बने होते थे जिन पर काफ़ी लागत आती थी। कमरों में दीवारों पर सफेदी की पुताई होती और उनकी छतों पर उजली, सफ़ेद छतगीरी खिंची होती थी। उसके चारों तरफ़ चुन्नट दी हुई झालर लटकी रहती। जब कभी छत की चादर किसी तरफ़ से उधड़ जाती थी तो चिड़ियों के लिए घोंसला बनाने की एक अच्छी जगह निकल आती थी। दिन भर चिड़ियां मुंह में तिनके लेकर कारनिस और उधड़ी हुई छतगीरी में आर-जार रखती थीं।

बनावट की खासियत

हिन्दू और मुसलमान दोनों की हवेलियां बनावट की दृष्टि से एक-सी होती थीं। कमरों की सजावट भी लगभग एक-सी होती थी। दीवारों पर हाथ की बनाई हुई तस्वीरें और शीशों में जड़े उर्दू के कत्अ (उर्दू फारसी नज्म की एक किस्म) और शेर लटकाए जाते। ऐसा मालूम होता जैसे किसी सुलेखक ने मोती जड़ दिए हैं। छत में झाड़-फानूस और हांडियां लटकी हुई होतीं। दीवारों पर दीवारगिरियां होती थीं। जब किसी झाड़ के शीशे की क़लम टूट जाती तो बच्चे उन शीशे की कलमों को सूरज की रोशनी में घुमा घुमाकर तरह-तरह के रंगों की किरणें देखते थे और खूब मजे लेते थे।

छत पर चढ़ जाते और चुपचाप सूरज की रोशनी में घुमा-घुमाकर बड़ी देर तक देखते रहते। कोठे-कोठरियों में भारी-भारी संदूकों में कपड़े रखे रहते थे जेवरात और कीमती चीजों के लिए गोलकें बनी हुई थीं। ये गोलकें ऐसे बनाई जाती थीं कि सिवाए घर के बड़ों के और किसी को उनका पता न लगे खाने के बर्तन बहुत करीने से चौके में ही रखे रहते थे ईंधन आम तौर पर घिरी हुई लड़कियाँ और उपले होते थे जिन्हें रखने के लिए उन दिनों छोटी-छोटी कोठरियाँ हुआ करती थीं।

यूं तो दिल्ली के बहुत से मकानों और हवेलियों में थोड़ी में घुसते ही पैखाने होते। ताकि भंगी को सारे घर में न घूमना पड़े, लेकिन कई मकानों और हवेलियों में आंगन के एक कोने में ड्योढ़ी के पास गुसलखाने और पैखाने बने हुए थे। पैखानों में ईंट और पत्थर के सिवाय और कुछ न होता था। वहीं टीन के हत्थेदार होंगे और हाथ साफ करने के लिए पीली मिट्टी रखी रहती थी। गुसलखानों में पीतल की गंगाल, पीतल की कूड जिसमें दो कुंडे या दस्ते लगे रहते थे। बाल्टी और लोटा रखा रहता था। नहाने के लिए पटड़े बिछे रहते थे। मैल साफ करने के लिए झांवे होते थे।

दिल्ली की बहुत-सी हवेलियों में सदर दरवाजे में एक छोटी खिड़की या छोटा-सा दरवाजा बना होता था जिसमें से खड़े होकर आते-जाते थे। या अगर सदर दरवाजा पूरा लंबा-चौड़ा मजबूत फाटक बिना किसी छोटे रास्ते के होता तो वह आमतौर पर बंद ही रहता और उसके अगल-बगल में एक छोटा दरवाजा और होता जिसमें से घर के लोग झुककर निकलते और अंदर आते रहते थे। मुगल वास्तुकला में यह प्रभाव इराक से आया था। जहां सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में बाहर के हमलों से डरकर लोग ऐसे मकान बनाते थे जो छोटे-छोटे किले होते थे और जिनके आने-जाने के दरवाजे इतने छोटे बनाए जाते थे कि बिना झुके न कोई अंदर आ सकता था, न बाहर जा सकता था। दिल्ली की हवेलियों में अंदरूनी सुरक्षा इराक़ के मकानों के नमूने पर ही थी यानी दालान दर दालान, ज्योड़ियां तहखाने, दोहरी दीवारें लेकिन दरवाज़े बहुत ऊंचे और शानदार होते थे।

कमरों की छतों में फर्शी पंखे लटके रहते थे। उन्हें दो-तीन कड़ियों से लटकाया जाता था। उन पंखों में कपड़े या चटाई की झालर लगी होती थी। पंखों की रस्सियों को खींचने वाला नौकर या छोकरा अपने पैर के अंगूठे में गिरह देकर अटका लेता था और दिन भर लेटे-लेटे खींचता रहता था। कभी-कभी तो खींचते खींचते वह खुद भी ऊँघ जाता था तो भी पैर का अंगूठा काम करता रहता। घर के हर कमरे में निवाड़ के उम्दा पलंग बिछे रहते थे। पलंगों के ऊपर चादरें बिछी रहती थीं और सिरहाने की तरफ़ नरम-नरम तकिए रखे रहते थे। उन तकियों पर तनजेब या नैनसुख से कड़े हुए ख़िलाफ़ चढ़े रहते थे।

हवेली में नौकर-चाकरों के रहने के लिए भी कोठरियां होती थीं। नौकर-चाकर उनमें ही रहते थे। सामने अन्दर की तरफ़ और एक बग़ल में ऊंची दीवार बनी होती थी जिससे परदा और ओट हो जाती थी। उस जमाने के नौकर इतने वफादार होते थे कि मर कर ही निकलते थे। बच्चे उनकी इज्जत घर के बड़ों की तरह करते थे और वे भी बच्चों पर जान छिड़कते थे। सहन, ड्योढ़ी और दरवाजे के बाहर की बैठक के लिए मूंढे बिछे रहते थे। ये मूंढे सेठे और बानों से बनाए जाते थे। मजबूती के लिए उन मूंढों के किनारे पर चमड़ा चढ़वा लेते थे।

हवेली के दरवाजे की ड्योढ़ी के एक हाथ पर मर्दाना बैठने की जगह होती थी जिसे दीवानखाना और बैठक भी कहते थे। उसमें मर्दों और बच्चों के सिवाय कोई नहीं आता था। मर्दों के दोस्त और मिलने-जुलने वाले इसी में आकर बैठते थे औरतें अंदर महलसरा में ही रहती थीं।

हवेली के अन्दर दालानों के नीचे तहखाने होते थे। जिनमें तख्त बिछे रहते थे। गर्मियों में आंधी, लू और तपिश से बचने के लिए सारा कुटुंब इन तलघरों में आराम करता था। इनमें रोशनदान गली में खुलते थे जिनकी वजह से काफ़ी रोशनी रहती थी।तहखानों के फर्श और दीवारें कौड़ियों से घटी रहती थीं, सील का डर नहीं होता था इतनी ठंडक होती थी कि सर्दखानों को भी मात करते थे।

हवेली के धुर ऊपर लंबी-चौड़ी खुली छतें होती थीं। उनमें बरसातियां भी बनी होती थीं। बारिश के पानी के निकलने के लिए छतों की मुंडेरों के साथ मोरियां बनाई जाती थीं और पानी नीचे गली में बनी नालियों में गिरकर वह जाता था। बरसात शुरू होने से पहले और बरसात के बाद गर्मियों के दिन तो तहखाने में बीत जाते थे मगर रात को तिखने की छतों पर बान की चारपाइयां डाल लेते। चारपाइयों पर बिछी चांदनियों पर तकियों के सिरहाने मौलसिरी और चंपा चमेली के फूल रख दिए जाते जिनकी महक से दिमाग़ों में तरावट रहती थी जब उमस और घुटन होती थी और ऊपर से आग बरसती तो इन मूंज की चारपाइयों पर पानी छिड़क देते थे और कभी-कभी गुलाब या केवड़ा भी छिड़क दिया जाता था। जब कभी मेंह बरसने लगता तो चारपाइयों को खींचकर बरसातियों के अंदर कर लेते। हवेलियों की छतें इतनी लंबी-चौड़ी होती थीं कि घर में जब कोई आयोजन होता या दावत होती तो कई-कई पंगतें एक साथ जीम लेती थीं।

एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए जो छज्जा होता था उसकी छत में तोता, मैना, लाल और पटरियों पर पिंजरे टैंगे रहते थे। इन परिन्दों की बोलियां सुनकर सबको बड़ा आनन्द आता था तोते टुइयां भी होते थे और पहाड़ी भी पहाड़ी तोता बहुत जल्दी सीख जाता था। काकातुआ भी खूब बोलता और सीटी तो बहुत जोर से बजाता था। तोता बोलता रहता, “मिट्टू राम राम कहो-मिट्ठू भूखे हैं” कई तोते तो यहां तक बोले लेते, “सीतापति की कोठरी, चंदन जड़े किवार। ताली लागी प्रेम की खोलो कृष्ण मुरार” आमतौर पर तोते सभी दिल्ली वालों की हवेलियों में पाले जाते थे। कलकते की मैना जो बंगाली मैना और आग्रा मैना भी कहलाती थी, तोते से भी साफ़ बोलती थी छोटी बच्चियां जब प्यारी-प्यारी बातें करतीं तो औरतें प्यार से ‘मेरी आग्रा मैना’ कहकर उनका मुंह चूम लेतीं।

आंगन के ऊपर और छज्जों के नीचे कबूतरों की काबुकें भी बनाई जाती थीं। कहा जाता था कि जिस घर में कबूतर हों उस घर में बीमारी नहीं आती। हवेली में बनी काबुकों में लका और शीराजी’ के जोड़े भी होते और काबुली भी ये कबूतर कभी काबुकों से निकलकर आंगन में दाना चुगते और कभी छत पर बनी छतरी पर जा बैठते बहुत-सी हवेलियों के अंदर या उनसे लगा एक कुआं भी होता था। कुएं पर दिन-रात खिंचाई रहती थी। दूर-दूर से पनहारे आकर वहंगियों में घरे कलसे पानी से भरकर कंधों पर ले जाते थे। सक्के और बहिश्ती भी मश्कों को कुएं से पानी भरकर गली की मोरियां धुलवाया करते थे। कुएं के सोते के पानी पर सबका हक होता था। किसी के छप्पर में आग लग जाती तो सारे मुहल्ले वाले कुएं से पानी भर-भरकर आग बुझाते। कभी चरखी की खराबी से या रस्सी के टूट जाने से डोल कुएं में गिर जाता तो लोहे का बड़ा कांटा डालकर निकाल लेते। मगर डोल के गिरने की आवाज दूर-दूर तक जाती। शोर-सा मच जाता और बच्चे और बड़े भाग- भागकर कुएं पर आ जाते।

हिन्दुओं की हवेली में कुएं के पास ही एक छप्पर के नीचे गाय बंधी रहती थी। कुएं की तरह यह छप्पर भी हवेली का हिस्सा होता था। सुबह सवेरे ग्वाला आता, दूध दुहता, सानी करता और दिन में गाय को चराने के लिए जंगल भी ले जाता। घरवाले बाहर जाते समय गऊ माता के आगे हाथ जोड़ते और प्रार्थना करते कि सब काम सिद्ध हों और दिन आराम से कटे ।

परिन्दों के पानी पीने के लिए हवेली में कई जगह आंगन, छत और छज्जे पर मिट्टी के बर्तन पानी से भरकर रख दिए जाते थे उनमें से दिन-भर बाहर के परिन्दे आकर पानी पीते और फिर उड़ जाते थे। परिन्दों के लिए हवेली के अहाते की दीवारों में बहुत ख़ुशनुमा और निहायत उम्दा रंग के छोटे-छोटे घर भी बनवा लेते थे। उन मोखलों में तरह-तरह के परिन्दे बड़े इत्मीनान से अपने घोंसले बनाते रहते थे ये मोखले बिल्ली की पकड़ से सुरक्षित रहते थे क्योंकि काफी ऊंचाई पर बनाए जाते थे। घर के लोग इन परिन्दों की बहुत देखभाल करते थे। अगर कोई परिन्दा सख्त गर्मी में बेहोश हो जाता तो उसे जैन मन्दिरवाले परिन्दों के हस्पताल में ले जाते जहाँ ठीक होने पर उसे आज़ाद कर दिया जाता।

हवेली के अहाते की दीवारें आमतौर पर दोहरी होती थीं। मुग़लों के आखिरी टिमटिमाते दौर में हर वक़्त लुट्टस का डबका लगा रहता था। उन दिनों जब कभी ऐसी आफत आती तो क्रीमती जेवर और दुर्लभ वस्तुएं रुपया-पैसा गुल्लकों और जमीनों में बने चीबच्चों में से निकालकर इन्हीं दोहरी दीवारों के बीच में डाल दिया जाता था। बस यों समझ लीजिए कि सुरक्षा की दृष्टि से हवेली एक जड़ाऊ पत्थरों का संदूक था।

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