ब्रितानिया अफसर हडसन के लिए जासूसी करता था रजब अली। यह ब्रितानिया हुकूमत को यह भी बताता कि किस सिपाही ने रात में क्या खाया है। रजब अली ने दिल्ली पहुंचकर फौरन जासूसी का एक जाल बिछा दिया, जिसमें बड़े-बड़े हिंदू साहूकार, अंग्रेज़ों के तरफदार मुगल संभ्रांत और कुछ पूर्व अंग्रेज़ अफसरों की मदद से वैगनट्राइवर के दिल्ली गजट का एक सब-एडीटर भी शामिल था। सबसे अहम यह कि उसने सिपाहियों के एक नामवर कमांडर हरियाणा रेजिमेंट के ब्रिगेड मेजर गौरी शंकर सुकुल को भी अपने जासूसों में शामिल कर लिया। वह उसे अहम फ़ौजी मालूमात मुहैया करता था और उधर सिपाहियों को उकसाता था और उनकी काउंसिलों में कुछ बिल्कुल बेकसूर अफसरों पर जासूसी और अंग्रेज़ों की मदद का इल्जाम लगाकर वहां झगड़ा खड़ा करा देता था। रजब अली ने जीनत महल से भी संपर्क स्थापित कर लिया था और ज़फ़र के प्रधान मंत्री हकीम अहसनुल्लाह खां से और किले में अंग्रेज़ों के तरफदार लोगों से भी, जिनके लीडर मिर्ज़ा फखरू के ससुर मिर्ज़ा इलाही बख़्श थे, जो अंग्रेज़ों के पक्षधर थे।

होडसन के जासूसी जाल का केंद्र रेजिडेंसी का मोटा मीर मुंशी जीवनलाल था। हालांकि वह अपने तहखाने में बंद था, लेकिन वह वहीं से शहर में अंग्रेज़ों का सबसे बड़ा जासूस बन गया। हर सुबह वह ‘दो ब्राह्मण और दो जाट भेजता था कि वह जाकर हर तरफ से बागियों की सरगर्मी की ख़बर लाएं, ताकि मैं हर बात अपने मालिकों के लिए नोट करता रहूं।” जीवनलाल ने अपनी डायरी में लिखा है कि 19 मई को ही उसे ‘फकीर के भेस में एक नीली आंखों वाले अंग्रेज़ के जरिए निर्देश दे दिया गया था कि वह शहर में ही रहे और ख़बरें हासिल करे।

“वह आदमी गेरुआ रंग का कुर्ता पहने था, जैसा साधु पहनते हैं, उसके गले में माला और माथे पर रामानंदी का निशान बना था। सिर्फ उसकी आंखें नीली थीं… उसके मुंह पर पीले रंग की ‘पियोरी’ भी लगी हुई थी। उसने मुझे बताया कि वह कई साल बनारस में रहा था और उसने बहुत अच्छी उर्दू और संस्कृत बोलना सीख ली है, इसलिए कोई उस पर उसकी बोली से शक नहीं कर सकता। वह दो घंटे तक बैठा अपने किस्से सुनाता रहा और बागियों की बेवकूफी और मूर्खता की बातें करता रहा उसने अपनी लंबी धोती की तहों में से, जो वह ब्राह्मणों की तरह पहने था, कुछ ख़त निकाले… और मुझसे कहा कि में उन्हें झज्जर, बहादुरगढ़ और बल्लभगढ़ के नवाबों और राजाओं को भिजवा दूं। फिर उसने मुझसे कहा कि में शहर में ही रहूं और बागियों की सब ख़बरें हासिल करूं जो हुकूमत के लिए कारगर हों। और कहा कि हमारे अपने आदमी तुम्हारे यहां आएंगे और सब ख़बरें ले जाएंगे। “सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि तमाम लोग जो शहर की सड़कों या दरवाज़ों से गुजरते थे, बागी उनकी बड़ी बारीकी से तलाशी ले रहे थे। यहां तक कि उनकी पैंट और जूते तक उतरवा लिए जाते थे, और कुछ भी उनके पास से बरामद हुआ, तो उनको मार डाला जाता था। अगर किसी पर संदेशवाहक होने का शक होता, तो उसका घर लूट लिया जाता और उस पर बिल्कुल रहम नहीं किया जाता था। लेकिन मैं फिर भी वह ख़त बहुत से इनाम का लालच देकर अपने नौकरों के हाथ भिजवाता रहा, जो फकीरों के भेस में होते थे।

इस तरह हज़ारों ख़त शहर से बाहर भिजवाए गए। ज़्यादातर उन लोगों के हाथ जो फकीरों और साधुओं का भेस बदले थे। यह ख़त अब भी नेशनल आर्काइव्ज ऑफ  इंडिया में गदर के पुराने कागजात में मौजूद हैं। इनमें से कई में तफ्सील से बागियों की मौजूदा स्थिति, तोपों के रखने के मुकाम, विभिन्न टुकड़ियों के हथियार और उनके गोदामों से लेकर बागियों की मुश्किलों तक का जिक्र है, जैसे पानी की कमी या बारूद की गोलियों के ऊपर की ओपी की कमी, या सिपाहियों के आपस में विवाद और झगड़े। अक्सर यह छोटे-छोटे कागज़ के पुर्जे जूतों या कपड़ों में सिले होते और बहुत छोटे अक्षरों में लिखे होते और उनमें सिपाहियों को ख़बरदार किया जाता कि कब और कहां हमला होने वाला है और कभी यह भी निर्देश होते कि किस तरह गोलाबारी करना चाहिए और किस तरह कमज़ोर मोर्चों पर हमला करना चाहिए और कश्तियों के पुल को किस तरह नष्ट किया जा सकता है।

लेकिन होडसन और उसके साथियों ने जल्दी महसूस किया कि यह सारी सूचनाएं हमेशा बिल्कुल सही नहीं होती थीं। कभी तो उनके जासूस उनको बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बताते और कभी वह कहते, जो उनके अंग्रेज़ मालिक सुनना चाहते थे। लेकिन जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, उन सब ख़बरों की तादाद, जो अंग्रेज़ों की मिल रही थीं, उससे कहीं ज़्यादा थी, जो बाग़ी सिपाहियों को मिल रही थीं। और यह उस अंजाम की एक बड़ी वजह थी, जो दिल्ली की बगावत के आखिर में हुआ। दिल्ली की पुलिस के एक बड़े अफसर सईद मुबारक शाह का बाद में कहना था कि “यह जाहिर बात थी कि बाग़ी फौज को बिल्कुल सही अंदाज़ा नहीं था कि अंग्रेज फौज कितनी है और कहा है। उनके पास कोई एक भी ऐसा जासूस नहीं था, जिसकी बात पर भरोसा किया जा सकता था।

जून के पहले हफ्ते में होडसन अपनी दिल्ली फील्ड फोर्स के साथ करनाल से दिल्ली की तरफ मार्च कर रहा था। उसका नया कमांडर साठ साल का जनरल सर हेनरी बरनार्ड था, जो सर जॉन लॉरेंस के मशवरे पर अमल कर रहा था कि “फौरन कार्रवाई शुरू करना और जो भी अंग्रेज़ सिपाही मिल सकें उनके साथ मौके पर पहुंचना, तो ख़तरा खुद ही टल जाएगा। लेकिन अगर इसमें देर हुई, तो यह सब जगह आग की तरह फैल जाएगा। उस वक्त बरनाई के पास सिर्फ 600 घुड़सवार सिपाही और 2,000 पैदल सिपाहियों का दस्ता था, और एक घेराबंदी की गाड़ी थी जिसमें कोई पचास के करीब तोपें और मैदानी बंदूकें थीं। होडसन अपने अनियमित सवारों के साथ आगे चल रहा था ताकि वह निगरानी कर सके कि कहीं बागी तो घात में नहीं छिपे हैं। एक मौके पर होडसन दिल्ली की जली हुई छावनी से आगे दिल्ली रेसकोर्स तक पहुंच गया था। रास्ता में उसे कोई बाग़ी पहरेदार या सिपाही नहीं मिला।” निकल्सन उस वक्त फ्रंटियर में सिख और पठान घुड़सवारों का एक अनियमित दस्ता इकट्ठा करने की कोशिश में था ताकि जो सिपाही बगावत में उसकी फौज को छोड़कर चले गए थे उनकी भरपाई की जा सके। अब देर नहीं थी जब होडसन और निकल्सन की संयुक्त फौजें अंग्रेज़ों के इंतकाम की पूरी ताकत बहादुरशाह ज़फ़र की नई आज़ाद हुई मुग़ल दिल्ली के दरवाज़े पर ले जाएं।

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