मुगलई जायका पकाने में माहिर हैं बावर्ची
दिल्ली छह (delhi 6) की गलियों में कुछ रवायतें ऐसी हैं जो पीढ़ी दर पीढ़ी बदस्तूर चली आ रही हैं। इसमें दावतों का दस्तूर भी शुमार है। यहां बात-बात पर दावतें हो जाती हैं। जाहिर है, जब दावतें देने का सिलसिला इतना पुराना और खास है, तो इसमें मुगल जायकों का जिक्र होना भी लाजमी है। शायद इसलिए शाहजहांनाबाद (shahjahanabad) में अब भी बावर्ची की गली (rodgran lal kuan bawarchi) सालोसाल गुलजार रहती हैं। यहां खालिस कुटे हुए मसालों की गंध से ही लोगों के चेहरे खिल उठते हैं, भूख बढ़ जाती है। लाल रंग के पत्थरों से बनी बड़ी हवेलियों के बीच बने चूल्हे और बड़े बड़े देग देख कर ही खाना पकाने का शाही अंदाज का अंदाजा सहज ही लग जाता है। लालकुंआ के आसपास कई मशहूर बावर्ची की दुकानें हैं, जहां लोग अपना खाना पकवाते हैं।
शाहजहांनाबाद की कुछ गलियां सालो भर कुछ लजीज जायकों की खुशबू से गुलजार रहती है। बावर्ची की गली का पता वहां से आती खुशबू ही लोगों को दे देती है। दूर से ही इस गली से आती गरम मसालों और चूल्हे पर पकते मुगल जायकों की खुशबू अपनी ओर खींच लेती है। लाल कुआं के पास रौधग्राम गली के आसपास कई खानदानी बावर्ची रहते हैं जो मुगल जायकों न केवल पकाते हैं बल्कि उन्हें लोगों के घरों तक भी पहुंचाते हैं। मुगल के जमाने से चले आ रहे खानदानी बावर्ची के हाथ के जायके का कोई सानी नहीं है। शायद इसलिए लोग अपने दावतों को खास बनाने के लिए यही से पकाया हुआ खाना ले जाना पसंद करते हैं। अब तो यहां के खानदानी खानसामे लोगों के घरों तक खाना पहुंचवा भी देते हैं। यहां के मोहल्लों में आज भी दिन भर रौनक होती है। शायद ही कोई दिन ऐसा जाता हो, जब इन छोटी दुकानों में रखे बड़े बड़े देग में मुगलई खाना न बनता हो। लोग अपने घरों की दावतों में भी यही से खाना पकवा कर ले जाते हैं।
दिल्ली वालों की दावत देने का शगल आज भी इसी कारण जिंदा है। यही पके हुए मुगलई जायकों से पुरानी दिल्ली में दस्तरखान सजता है। कोरमा, आलू गोश्त, नहारी, चिकन आचारी, काजू कीमा, वाइट चिकन, सभी तरह की बिरयानी, मटन स्टीयू जैसे कई लजीज मुगलई जायके रोजाना पकाए जाते हैं। बावर्ची अब्दुल गनी बताते हैं कि पुरानी दिल्ली के लोग खाने पीने के मामले में बड़े शाही मिजाज वाले हैं। रोजमर्रा के खाने में भी स्वाद होना बेहद जरुरी होता है। तो फिर दावत तो उनके लिए बेहद खास मौका होता है। क्योंकि लोगों के दिल का रास्ता पेट से होकर जो गुजरता है। लोग जन्मदिन, सालगिरह, बच्चे की पास होने की खुशी, खोई हुई चीज मिल जाने पर भी दावतें हो जाती है। जब यहां परिवार भी एक साथ आ जाते हैं तो भी दावतें हो जाती है।
बावर्ची कम समय में भी यहां पचास लोगों के लिए खाना बना कर लोगों के घर भिजवा देते हैं। लोग अपनी दावत के मुताबिक मुगलई पकवान बनाने का समान यहां दे जाते हैं, पर मसाले यहीं पुरानी दिल्ली के ही इस्तेमाल किए जाते हैं। शाम को होने वाली दावतों के लिए सुबह से ही तैयारी करनी पड़ती है। धीमी आंच पर प्याज, आलू और मसाले फ्राई किए जाते हैं। खाने में स्वाद लाने के लिए इतमिनान से खाना पकाया जाता है। वे बताते हैं कि पहले पुरानी दिल्ली में इतना काम हुआ करता था कि यहां के बावर्चियों को बाहर का काम लेने की फुर्सत भी नहीं मिलती थी। लेकिन लोग अब मुगलई खाना पकाने के लिए दिल्ली के बाहर के दावतों में भी जाने लगे हैं। राज घराने में भी लोग शाही दावतों में दो दर्जन से अधिक किस्मों के नॉनवेज खाना बनाया जाता है।
अब्दुल हकीम बताते हैं कि उनके दादा के जमाने में तो यहां के बावर्चियों का नाम दूर दूर होता था। एक बार किसी बावर्ची का जायका लोगों को पसंद आ जाता था तो बस लोग उसी से ही खाना अपनी दावतों में बनवाते थे। दावतों में लोगों के खिले हुए चेहरे देख कर लोग अच्छी खासी बख्शीश भी देते थे। लोग अब भी यहां के बावर्चियों के हाथों से पका हुआ खाना पसंद करते हैं। लेकिन वो शगल अब कम हुआ है। केटरिंग वालों ने तो बावर्चियों का काम ही कम कर दिया है। पुरानी दिल्ली के लोगों को ही पता है कि यहां दावतों के लिए खाना बनाया जाता है। इसलिए आज भी यहां से गए लोग दावतों के लिए खाना बनवाने यही आते हैं।
बबलू बावर्ची बताते हैं कि खाना पकाने के लिए मसाले, बर्तन और बनाने का तरीका बेहद खास होता है। इस मोहल्ले में रहने वााले सभी बावर्चियों के हाथों में अलग अलग स्वाद होता है। कोई आलू गोश्त बहुत उम्दा बना लेता है तो किसी के हाथ की बिरयानी का कोई जवाब नहीं होता। इसलिए यहां के हर बावर्ची की अपनी पहचान है। लोग यहां से दुबई तक भी दावतों में मुगलई खाना पकाने के लिए जाते हैं।
दिलीप कुमार भी हैं मुरीद
बावर्ची अब्दुल हमीद बताते हैं कि उनकी दुकान पर दिलीप कुमार (dilip kumar) और जॉनी वाकर (johnnie walker) भी कोरमा बिरयानी का स्वाद लेने आते थे। उनको इसका स्वाद इस कदर पसंद था कि वे अपनी दावतों म ं यही से बावर्ची बुलाया करते थे। वे बताते हैं कि इंदिरा गांधी ने भी यहां शाही टुकड़ा का स्वाद चखा था।