लोदी खानदान (1451 ई. से 1526 ई. तक)

मोहम्मद गोरी से लेकर इब्राहीम लोदी तक, सब बादशाह पठान कहलाते हैं, लेकिन वास्तव में वे तुर्क थे। बहलोल लोदी से जिस खानदान की बुनियाद पड़ी, वह बेशक पठान था। शाह आलम के काल में राज्य का सारा काम यही करता था और असल बादशाह यही समझा जाता था। आखिरकार बादशाह ने गद्दी छोड़ दी और 1451 ई. में यह सिंहासन पर बैठा।

गद्दी पर बैठते ही इसने अपने वजीर को कैद कर लिया। जौनपुर का राज्य खुदमुख्तार हो गया और उसने 1451 ई. में, जब कि बहलोल दिल्ली में मौजूद न था, दिल्ली पर घेरा डाल दिया। बड़ी कठिनाई से यह घेरा उठा, मगर लड़ाइयां जारी रहीं। उनसे इसकी नाक में दम आ गया। तंग आकर इसने दिल्ली के कुछ जिले अपने बेटे निजाम खां के लिए रख लिए और बाकी का मुल्क भिन्न-भिन्न सरदारों को बांट दिया। यह 1488 ई. में बीमारी के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ और अपने बाग में, जो दरगाह चिराग दिल्ली के निकट है, एक मकबरे में दफन हुआ।

बाप की मृत्यु का समाचार पाकर निजाम शाह दिल्ली पहुंचा और सिकंदर के लकब से 1488 ई. में गद्दी पर बैठा, लेकिन फिर झगड़े शुरू हो गए। अफगान उमरा नहीं चाहते थे कि ऐसा व्यक्ति, जो सुनार कीम की हिंदुआनी के घर से पैदा हुआ हो, बादशाह बने। मुकाबला चचेरे भाई से हुआ, मगर वह पराजित हुआ। जौनपुर के बादशाह ने फिर करवट ली और अपना मुल्क वापस लेना चाहा, मगर वह भी परास्त हुआ। सिकंदर इन लड़ाइयों में इतना उलझा रहा कि 1490 ई. तक दिल्ली न आ सका। वह तीन महीने यहां ठहरा था कि फिर बदअमनी फैल गई जिसे दबाने उसे जाना पड़ा। इस प्रकार कई वर्ष बीत गए। आखिरकार 1504 ई. में उसने दिल्ली से राजधानी उठा देने का इरादा किया। बादशाह ने एक कमेटी बिठाई, जिसने घूम-फिरकर आगरा पसंद किया। चुनांचे राजधानी आगरा ले जाई गई। मगर इसके दूसरे हो वर्ष 1505 ई. में इतवार के दिन इतना जोर का भूकंप आया कि उसने सारे हिंदुस्तान और ईरान को हिला दिया। लोगों ने समझा कि प्रलय आ गई है। मगर सिकंदर ने आगरा नहीं छोड़ा, बल्कि नए सिरे से उसे आबाद किया।

सिकंदर से लेकर शाहजहां तक के काल में आगरा ही राजधानी रही। लेकिन जब तक ताजपोशी की रस्म दिल्ली में अदा न हो जाए, गद्दी पर बैठना पूरा नहीं समझा जाता था। आगरा में सिकंदर के नाम का मौजा, जहां अकबर की कब्र है, उसके नाम से मशहूर है। यहां उसने 1495 ई. में बारहदरी बनवाई थी। 28 बरस राज करने के पश्चात उसने नवंबर 1517 ई. में आगरा में मृत्यु पाई। उसकी लाश दिल्ली लाई गई और खैरपुरा की चौहद्दी में एक बहुत बड़े मकबरे से दफन की गई। कहते हैं, यह बादशाह मूर्ति पूजा का कट्टर विरोधी था। इसे जहां मंदिर और मूर्ति मिलती थी, तुड़वा देता था। इसने कितनी ही पुरानी इमारतों को दुरुस्त करवाया। कुतुब मीनार और फीरोज शाह के मकबरे को उसी ने ठीक करवाया था। अपने प्रारंभिक काल में इसने मोठ की मस्जिद भी बनवाई।

सिकंदर की मृत्यु के पश्चात उमरा ने उसके तीसरे बेटे इब्राहीम लोदी को 1517 ई. में गद्दी पर बिठाया और जौनपुर का राज्य उसके भाई सुलतान जलाल को दे दिया। इस पर लड़ाई हुई। जलाल मारा गया और इब्राहीम ने अपने दूसरे भाइयों को कैद कर लिया। इसमें अपने बाप का एक भी गुण नहीं था। गद्दी पर बैठने पर इसकी हालत और भी बिगड़ गई। यह बड़ा अभिमानी और क्रोधी था । उमरा को घंटों अपने सामने हाथ जोड़े खड़ा रखता और हर किसी को तुच्छ दृष्टि से देखता। पठान इसको कब सहन कर सकते थे? नतीजा यह हुआ कि एक तूफान खड़ा हो गया। कई उमरा मारे गए। हर पठान सरदार अपनी जगह तन गया और बागी हो गया। इसी कारण इस खानदान से सल्तनत निकलकर मुगलों के हाथों में चली गई। इसने जितने दिन राज किया, गुहयुद्ध होता रहा। इसके भाई अलाउद्दीन ने एक बड़ी सेना लेकर दिल्ली को घेर लिया। भाग्यवश वह सफल न हो पाया और उसे घेरा उठाना पड़ा।

अलाउद्दीन पंजाब की तरफ निकल गया। इस लड़ाई से पहले इब्राहीम ने सीरी के बगदादी दरवाजे के सामने बैल की वह तांबे की मूर्ति खड़ी करवाई थी, जिसे वह दक्षिण के हमले से लाया था। दौलत खां लोदी नाम का एक व्यक्ति पंजाब का गवर्नर बना हुआ था। वह भी खार खाए बैठा था। उसने काबुल के बादशाह को पहले बुलवाया था। बाबर हिंदुस्तान के हालात सुनकर स्वयं ही यहां का राज्य हस्तगत करना चाहता था। अब अलाउद्दीन ने पंजाब पहुंचकर बाबर को बुलवा भेजा। इशारे की देर थी। बावर तो तैयार ही बैठा था। वह तुरंत सेना लेकर रवाना हो गया। पानीपत के मैदान में, जो दिल्ली के उत्तर में व कुरुक्षेत्र और तारायन के पुराने लड़ाई के मैदान के करीब है, 21 अप्रैल 1526 ई. को इब्राहीम और बाबर का मुकाबला हुआ, जिसमें इब्राहीम मारा गया और वहां पानीपत में दफन हुआ। इस प्रकार पठानों का राज्य काल समाप्त हुआ। 1193 से 1504 ई. तक पठानों का दिल्ली में राज्य रहा और 22 वर्ष आगरा में, मगर खात्मा दिल्ली में ही हुआ।

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