तुगलकाबाद किले का विस्तृत इतिहास

तुगलकाबाद शहर और किला दिल्ली के दक्षिण में करीब 12 मील की दूरी पर है। तुगलकाबाद रेलवे स्टेशन से चार मील बदरपुर से कुतुब की तरफ जो सड़क गई है, उस पर दाएं हाथ स्थित है। यह स्थान गदर से पहले राजा वल्लभगढ़ के अधिकार में था। 1857 ई. के गदर में बल्लभगढ़ के राजा ने बगावत की। इसलिए यह रियासत जब्त कर ली गई। इस किले और शहर की बुनियाद 1321 ई. में पड़ी और 1323 ई. में वह पूरे हुए।

मुसलमानों की यह चौथी दिल्ली थी। इब्नबतूता लिखता है- ‘पहला शहर पुरानी दिल्ली रायपिथौरा का किला था, दूसरा किलोखड़ो या नया शहर तीसरा सीरी या नई दिल्ली मय जहांपनाह के और चौथा यह तुगलकाबाद।’ फर्ग्यूसन इसे ‘अफगान शासकों का बहुत बड़ा किला’ लिखता है।

यह किला त्रिकोण है- पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में एक-एक कोण है जो, तीन-चौथाई मील से कुछ बड़ा है। किले के चारों ओर खंदक है, जो पानी का एक बहुत बड़ा तख्ता दिखाई देता है, जिसके दक्षिण और पूर्वी कोने में बंद बांधकर पानी रोका गया है। तुगलकाबाद का घेरा चार मील से कम है।

किला पहाड़ी पर स्थित है और पहाड़ियों से घिरा हुआ है। फसील भारी-भारी पत्थरों की बनी हुई है। फसलों में दोमंजिला बुर्जी और हुजरे बने हुए हैं। सबसे बड़ा पत्थर 14’2″ : 10 2″ है, जिसका वजन छह टन है, अर्थात करीब 162 मना किले की पहाड़ी का दक्षिणी रुख ढलवां है। इस स्थान की फसील 40 फुट ऊंची है जिसमें जगह-जगह गोली के सूराख बने हुए हैं। किले के छठे भाग में एक महल के खंडहर दिखाई देते हैं। फसील के बाज-बाज बुर्ज अब भी अच्छी हालत में हैं। रक्षा के लिए बादशाह ने इसे हर तरह सुरक्षित बनाया था। किले के साथ एक बहुत बड़ा तालाब है, जहां से फौजें पानी लेती होंगी।

हर तरफ मकानांत बने हुए थे। हर मकान में जाने का एक ही दरवाजा था। किले के सदर फाटक की चढ़ाई बड़ी सख्त, ऊंची और पथरीली है। शहर के कुल मिलाकर 56 कोट और 52 दरवाजे थे। तुगलकाबाद के सात तालाब हैं। इमारतों की कोई गिनती ही नहीं है। मसलन जामा मस्जिद और ब्रिज मंजिल है जिसे शेरमंडल कहते हैं। तीन बड़ी बावलियां हैं, जो अब भी अच्छी हालत में हैं। बड़े-बड़े पुख्ता तहखाने हैं, जो सतह की जमीन से 30 से 40 फुट गहरे हैं। किला अंदर से वीरान पड़ा है, बाहर से इतना बड़ा, मगर अंदर जाकर कुछ नहीं।

शेरमंडल अच्छी हालत में है। इस पर से सारे किले की इमारतें दिखाई दे जाती हैं। दीवारें तो सैकड़ों खड़ी हैं, मगर छतें नदारद। सारी इमारतें खारे के पत्थर और चूने की बनी हैं। फसील भी बहुत जगह से गिर गई है, मगर बहुत कुछ बाकी हैं। शेरमंडल के पास एक बहुत बड़ी बावली है- 111 फुट लंबी 77 फुट चौड़ी और 70 फुट गहरी । यह खारे के पत्थर से बनी है। यहां एक बहुत लंबी सुरंग भी है, जो एक तरफ बदरपुर रोड की तरफ किले के बाहर निकल गई है। इतनी बड़ी इमारत के लिहाज से सदर दरवाजा बहुत छोटा है। किले के जो दरवाजे इस वक्त मशहूर हैं, उनके नाम हैं- चकलाखाना दरवाजा, धोबन-धोबनी दरवाजा, नीम वाला दरवाजा, बंडावली दरवाजा, रावल दरवाजा, भटोई दरवाजा, खजूर वाला दरवाजा, चोर दरवाजा, होड़ी दरवाजा, लालघंटी दरवाजा, तैखंड दरवाजा, तलाई दरवाजा वगैरह। इतनी बड़ी इमारत बनाने के लिए कितने मजदूर मेमार काम पर लगे होंगे और इस पर कितना सामान लगा होगा तथा तीन वर्ष के अर्से में यह तैयार कैसे हुई होगी यह आश्चर्य है और दूसरा आश्चर्य यह है कि इतनी बड़ी इमारत कैसे इस कदर वीरान हो गई, जैसे वह किसी खिलौने की तरह बनाकर गिरा दी गई हो। शायद औलिया की बानी फलीभूत हुई होगी कि ‘या रहे ऊजड़ या बसें गूजर’। गूजर यहां अब भी आबाद हैं।

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