फिल्मों के दुखद पात्र दिलीप कुमार की जिंदगी को करने लगे प्रभावित
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
फिल्मों के आकाश पर लगभग पचास वर्षों से भी अधिक समय सूर्य की माफिक चमकने वाले tragedy king Dilip Kumar (दिलीप कुमार) किसी परिचय के मोहताज नहीं। उनकी फिल्मों से उनके अभिनय को ऊंचा उठते देखने वाली पीढ़ी ने ही अचानक पाया कि उनका व्यक्तित्व भी अब उनके कृतित्व से ऊंचा उठ गया है।
उनके करोड़ों प्रशंसकों के लिए दिलीप कुमार एक व्यक्ति न रहकर अब एक संस्था, एक स्कूल तथा एक जीवित किंवदंती बन गए।
ज्वार-भाटा से करियर की शुरुआत
दिलीप कुमार का यशस्वी कैरियर चालीस के दशक में बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘ज्वार-भाटा’ से शुरू हुआ। जिन लोगों को उनके नाम बदलने पर ऐतराज रहा है,उनकी जानकारी के लिए इतना बताना काफी होगा कि बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी को उनका असली नाम कुछ जंचा नहीं और उन्होंने ही यूसुफ को जहांगीर, वासुदेव तथा दिलीप कुमार में से एक को अपने फिल्मी नाम के रूप में चुन लेने को कहा।
इनमें से अंतिम को उन्होंने क्यों चुना इसका खुद उनके पास भी कोई खास बतलाने लायक कारण नहीं था। प्रारंभिक फिल्मों ‘प्रतिमा’ तथा ‘ज्वार-भाटा’ में तो उन्हें अपनी प्रतिभा का कोई खास मौका नहीं मिला लेकिन ‘शहीद’ (कामिनीकौशल) तथा नितिन बोस की ‘मिलन’ ने एक गंभीर अभिनेता के रूप में उनकी संभावनाओ का परिचय दे दिया।

‘शहीद’ फिल्म के साथही अंत में नायक के अवश्यंभावी रूप से मरजाने वाली दुःखांत फिल्मों का सिलसिलाप्रारंभ हो गया। ‘वतन की राह में वतन केनौजवाँ शहीद हो’ गीत के साथ जब शहीमें उनकी अंतिम यात्रा निकली, तो दर्शकोकी आँखों से आँसू बह निकले थे।
‘अंदाजफुटपाथ/ शिकस्त | मेला | बाबुल / दीदार तथा उड़न खटोला’ जैसी फिल्मों ने उन्हें ‘ट्रेजेडी किंग के सिंहासन पर बैठा दिया कि उनके प्रशंसक उनकी हर नई फिल्म देखने जाने के पूर्व आश्वस्त हो जाना चाहते थे कि इसमें दिलीप मरता है या नहीं?
नायक के जीवित रह जाने से उन्हें लगता था जैसे उनके साथ उनके हीरो ने कोई धोखाधडी कर दी है। लेकिन अपने कैरियर के काफी प्रारंभिक दौर में ही दिलीपकुमार ने यह महसूस कर लिया कि उनका दुखांतिका नायक के रूप में इस तरह पर्दे से जाना न केवल उनके कलाकार की अकाल मृत्यु साबित होगा, बल्कि वह फिल्मी व्यक्तित्व उनके निजी व्यक्तित्व पर भी धीरे-धीरे हावी होता जा रहा था। इस मुकाम पर उन्होंने दो काम किए एक तो उन्होंने मनोवैज्ञानिकों की मदद ली, जिन्होंने उन्हें इस पस्त हिम्मत और शिकस्त पात्र से अपने आपको मुक्त करने की सलाह दी। दूसरे इस सलाह को मानकर ही उन्होंने हल्की-फुल्की भूमिका वाली महबूब खाँ की पहली रंगीन फिल्म ‘आन‘ स्वीकार की। यहीं से उनका विविधता के प्रति आग्रह शुरू हुआ।
लेकिन जैसा कि फिल्म उद्योग में अक्सर होता है, किसी भी कलाकार के लिए अपनी स्थापित और लोकप्रिय छवि को तोड़ना आसान नहीं होता। आखिर हर कलाकार अपने दर्शकों के लिए ‘उपयोग की एक वस्तु ‘भी होता है और ‘ग्राहक ही हमेशा सही होता है’ यह बात लोकप्रिय नायकों पर भी लागू होती है। इसी का नतीजा थी ‘अमर, ‘देवदास’ तथा ‘मुगले आजम’ की उनकी अविस्मरणीय भूमिकाएँ।
किसी नसीरुद्दीन शाह या संजीवकुमार जैसे अभिनेता के लिए बहुविध पात्रों को परदे पर साकार करना उतना कठिन नहीं होता क्योंकि उनके वैसा करने में जोखिम न उनके खुद के लिए ज्यादा होता है न निर्माता, निर्देशक या दर्शक के लिए ही। लेकिन, परिपाटी को तोड़ना किसी सुपर-स्टार के लिए भी कितना कठिन हो सकता है, यह अमिताभ बच्चन से पूछने पर पता चल सकता है।
उनकी असंदिग्ध बहुविध अभिनय प्रतिभा के बावजूद वे उनके प्रशंसकों द्वारा तय की गई लीक से हट नहीं पाए।
दिलीप के लिए श्रेय की सबसे बड़ी बात यही है कि उन्होंने इस असंभव को संभव कर दिखलाया। शहजादे सलीम और बिगड़े दिल शराबी प्रेमी देवदास की अति गंभीर और चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं के बाद ही उन्होंने काफी. अंतराल के साथ ‘आजाद (१९५५)’, ‘नया दौर’, ‘मधुमती’, ‘कोहिनूर (१९६०)’, ‘लीडर (१९६५) तथा ‘राम और श्याम (१९६७) जैसी हास्य, ऍक्शन मारा-मारी से भरपूर भूमिकाएँ की और उन सभी के लिए उन्हें ‘फिल्म फेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी मिला।
जैसे कि यह पर्याप्त नहीं था १९६३ में उनकी खुद की फिल्म ‘गंगा-जमना’ भी प्रदर्शित हुई, जिसमें शीन काफ से दुरुस्त उर्दू मुकालमें अता करने वाले शहजादे सलीम को एकबारगी हम पूरवी भाषा बोलने वाले गँवार किसान मजदूर तथा बाद में अनिच्छुक डाकू की भूमिका करते तथा एक बार फिर ‘फिल्म फेयर पुरस्कार जीतते देखते हैं। दिलीप कुमार बड़ी विनम्रता से एक इंटरव्यू में कहा था कि असली सृजन-शीलता तो उस लेखक की होती है, जो कागज पर पात्र रचता है, लेकिन इस आकार और रंग-रूप विहीन पात्र को ठोस इंसान का रूप देने के लिए अभिनेता को खुद में किस दैवी सृजनशीलता को पैदा करना होता है वह ‘देवदास’ में उनका अभिनय देखकर ही जाना जा सकता है। जहाँ शरद बाबू रुके वहाँ से दिलीप ने आगे चलना शुरू किया और उसी यात्रा को तकमील तक पहुँचाया। बहरहाल, ‘गंगा-जमना’ एक युग प्रवर्तक तथा ‘ट्रेंड सेटर’ फिल्म थी।
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