उस्ताद हलीम जाफर खां का जीवन परिचय,Ustad Abdul Halim Jaffer Khan biography
Ustad Abdul Halim Jaffer Khan biography: पद्मभूषण उस्ताद अब्दुल हलीम जाफर खां भारतवर्ष के प्रतिष्ठित सितार वादकों में से हैं। उनका जन्म 19 फरवरी, 1927 को मध्य प्रदेश के इंदौर के निकट जावारा में हुआ। जब वे एक साल के थे, तभी पिता के साथ बंबई आ गए। पाaच साल की उम्र में पिता उस्ताद जाफर खाa साहब से संगीत सीखना शुरू किया।
पिता अपने समय के एक प्रसिद्ध सितार वादक के साथ धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। बालपन तो खेलने-कूदने की उम्र थी। संगीत में उतना मन बालक अब्दुल हलीम का नहीं लगता। किंतु पिता के भय से ये सितार लेकर बैठ जाते आरोह-अवरोह मिजराब पहनना, सितार पकड़ना आदि प्रारंभिक शिक्षाएं उन्होंने पिता से ही सीखीं।
उनका कंठ बड़ा ही सुरीला और मधुर था तथा उसकी बदौलत सितार वादन के साथ गायन की ओर इनकी विशेष अभिरुचि रही। जब भी मौका मिलता तो वे गाने से नहीं चूकते थे। बारह-तेरह वर्ष की उम्र में पहली बार बंबई रेडियो से उन्हें गाने का अवसर प्राप्त हुआ।
सन् १९४१-४२ में पिता का देहांत हो गया। तत्पश्चात् परिवार की सारी जिम्मेदारी उनके सिर पर आ गई। अर्थोपार्जन की दृष्टि से किसी भी कार्यक्रम में छोटा-मोटा प्रोगाम दे दिया करते। मौका मिलता तो कहीं बजा देते, कहीं गा लेते।
उस्ताद हलीम जाफर खां की शिक्षा
Ustad Abdul Halim Jaffer Khan biography: सितार की विधिवत् शिक्षा पिता के बाद इंदौर में प्रसिद्ध बीनकार उस्ताद मुराद खां के शिष्य उस्ताद बाबू खां से प्राप्त की। किंतु दो वर्ष के बाद उस्ताद बाबू खां की मृत्यु हो गई।
बाबू खां की मृत्यु के बाद वे उस्ताद महबूब खां से सितार सीखने लगे। पारिवारिक जीवन-यापन हेतु उनका झुकाव फिल्मों की ओर हुआ। वे सितार के साथ-साथ जलतरंग भी बजा लेते थे।
उस्ताद हलीम जाफर खां का फिल्मी जीवन
Ustad Abdul Halim Jaffer Khan biography: अपने गुरू के निधन के बाद उस्ताद जी टूट गए। अब जीविकोपार्जन के लिए फिल्मों की तरफ रुख करने का मन बनाया और अंतत: अपनी पहली फिल्म ‘याद’ में सितार और जलतरंग दोनों बजाया।
यहीं एशियाटिक पिक्चर्स में अंशकालिक नौकरी मिल गई। इस नौकरी से बचे समय में यह अभ्यास करते थे। उनका सबसे पहला रेडियो प्रोग्राम सन् १९४७ में हुआ, जिसकी वजह से आकाशवाणी के विविध केंद्रों से आमंत्रण मिलने लगे और अलग-अलग केंद्रों पर बजाने का मौका मिलने लगा।
जनता में भी धीरे-धीरे लोकप्रियता बढ़ने लगी। फिल्मों में प्रारंभिक दौर में तो वे बैंक ग्राउंड म्यूजिक तथा सोलो के अंश बजाते रहे। बाद में केवल खास फिल्मों में, जहां बैंक ग्राउंड में शास्त्रीय संगीत की जरूरत होती उसी में वे बजाते थे। ऐसी फिल्मों में ‘झनक झनक पायल बाजे’, ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘कोहिनूर’, ‘गूंज उठी शहनाई’, ‘मुगले-आजम’, ‘यादें’ आदि हैं। फिल्मों में शास्त्रीय संगीत की लोकप्रियता के संवर्द्धन में उनका बड़ा ही योगदान रहा।
बिरजू महाराज संग प्रस्तुति
Ustad Abdul Halim Jaffer Khan biography: उनके जीवन का पहला और महत्त्वपूर्ण म्यूजिक कॉन्फ्रेंस ऑल बंगाल म्यूजिक कॉन्फ्रेंस १९४३ था, जिसमें प्रसिद्ध नर्तक पं. बिरजू महाराज ने भी पहली बार अपने नृत्य की प्रस्तुति की थी। इस समारोह में दो बैठकों के अंतर्गत करामतुल्ला खां और अहमद जान थिरकवा के साथ उनका कार्यक्रम हुआ, जिसमें वे स्वर्ण पदक से सम्मानित किए गए।
पिता के निधन के बाद बाबू खां व महबूब खां के अलावा रजब अली खां और झंडे खां से भी बहुत कुछ सीखने का उन्हें अवसर मिला। पिता बीनकार, सितारिए और गायक भी थे। झंडे खां फिल्मों के अलावा नाटकों में भी संगीत देते थे। ‘चित्रलेखा’ फिल्म की सारी धुनें झंडे खों की ही बनाई हुई हैं। सबसे पहली बार १९५५ में विदेश यात्रा के रूप में उन्हें चीन जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां शास्त्रीय संगीत के साथ वहां के लोकगीत और राष्ट्रगान बजाकर उन्होंने श्रोताओं के हृदय को जीत लिया। १९५८ के गणतंत्र दिवस के अवसर पर प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में काठमांडू, फिर १९६४ में अफगानिस्तान गए।
नवीन शैला विकसित की
Ustad Abdul Halim Jaffer Khan biography: जाफर साहब ने मसीतखानी और रजाखानी से अलग एक नवीन गत शैली का प्रचार-प्रसार किया, जिसे ‘जाफरखानी बाज’ कहा जाता है। इसमें मिजराब का प्रयोग कम तथा बाएं हाथ के काम को अधिक किया जाता है। उन्होंने कुछ नए रागों का भी सृजन किया, जिसमें प्रमुख है-खुसवनी, चक्रथुन, कल्पना, फुलवन, मध्यमी। दक्षिण भारतीय रागों को अपनी प्रस्तुति द्वारा उत्तर भारत में लोकप्रिय बनाया, जिसमें प्रमुख हैं-किरवाणी, लतांगी, चलतार मुखप्रिया हेमावती, चलनती आदि।
उन्होंने कई रागों को पुनः संस्कृत कर प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंचा दिया जैसे- वसंतमुखारी, चंपाकली, राजेश्वरी, श्याम केदार फरगना, रूपमंजरी, मल्हार तथा अरज।
उनके सितार वादन के बहुत से रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। राग पहाड़ी, मारवा, कीरवानी,केदार तथा बागेश्वरी में निबद्ध रचनाएँ आज भी श्रोताओं को विमुग्ध कर देती हैं। उन्होंने भारत सरकार की ओर से भारतीय सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल के सदस्य की हैसियत से अनेक बार विदेश यात्रा की है। सन् १९७० में उन्हें भारत सरकार की ओर से ‘पद्मश्री’ अलंकार से विभूषित किया गया।
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