20 फुट गहरी खाई पार करनी थी चुनौती

1857 की क्रांति: अंग्रेजों ने दिल्ली पर हमला बिल्कुल वैसे ही किया जैसे योजना बनाई गई थी। जैसे ही हर दस्ते का नेतृत्व कर रहे कमांडर को संकेत दिया गया, एक नारा बुलंद हुआ और तमाम सिपाही कुदसिया बाग के पेड़ों की आड़ से निकलकर गुलाब बाग से होते हुए जितना तेजी से भाग सकते थे, भागकर बाग और शहर की दीवार के बीच के पचास गज के खुले मैदान में आ गए। वहां आते ही इंतज़ार में बैठे तैयार बागी सिपाहियों की तरफ से फौरन बेतहाशा उन पर गोलियों की बौछार शुरू हो गई।’

पहली रुकावट 20 फुट गहरा और 25 फुट चौड़ा गड्ढा था। जब सीढ़ियां लाई गईं और जगह पर लगाई गईं तो चढ़ाई के पुश्ते पर पहुंचे दस्ते, जिनके लिए अब नीचे उतरना मुमकिन नहीं था, “उस जानलेवा गोलाबारी से धड़ाधड़ नीचे गिरते गए।” चढ़ाई के दूसरे सिरे तक जिंदा पहुंचने में पहले दस्ते को दस मिनट लग गए। लेकिन एक बार जब वह ऊपर चढ़ गए तो उनको रोकना मुश्किल हो गया।”

फ्रेड राबर्टस ने अपनी मां को लिखे पत्र में कहा- “हमारे सिपाही खूबसूरती से शिकारी कुत्तों की तरह ऊपर चढ़ते चले गए।””हम तोपचियों ने अपना काम इतनी अच्छी तरह किया कि दीवार में बहुत उम्दा सूराख बन गया था। और हम बहुत नुकसान उठाए बगैर किले के परकोटे पर चढ़ गए।” लेकिन अगर कोई रिचर्ड बार्टर की तरह पहला चढ़ने वाला होता तो उसके लिए यह इतना आसान नहीं था। आगे दौड़ते हुए बार्टर को, दीवारों के बीच में से बागी सिपाहियों के सिर उठते देखना याद है, “वह दीवारों के साथ-साथ मधुमक्खियों के झुंड की तरह जमा थे। सूरज उनकी सफेद पगड़ियों और काले चेहरों पर पूरी तेजी से चमक रहा था और उनकी तलवारों और संगीनों को दमका रहा था। दीवार के सूराख पर पहुंचते ही हमारे सिपाही खुशी से चीख पड़े।

“जब हमारी गोलियां चलना बंद हुईं, तो दुश्मनों की भी धीमी पड़ गईं। पहले तो वह हमें देखकर हैरान रह गए लेकिन जल्द ही वह संभले और फिर उन्होंने बड़ी शिद्दत से गोली चलाना शुरू कर दिया। हमारे दाईं तरफ से गोली पर गोली आ रही थी और करीब से छरें और गोले बरस रहे थे और दीवारें गोलियों की कतारें मालूम होती थीं। गोलियां हवा में सनसनाती आतीं, हमारे पैरों के पास गिरकर जमीन को उधेड़ रही थीं, और लोग तेजी से गिर रहे थे…

“तीन बार सीढ़ी लगाने वाले दल का सफाया कर दिया गया और तीन बार जख्मी और मुर्दा सिपाहियों से सीढ़ियां छीन ली गई… उस सूराख तक चढ़ना वाकई मुश्किल काम था क्योंकि लगातार होती गोलाबारी से वह रेत के ढलवां किनारे की तरह हो गया था। उसके पीछे कुछ पीपे थे, जिनके बीच से दुश्मन हमारे इतने करीब से निशाना लगाते थे कि हम उनकी फायरिंग की गर्मी अपने गाल पर महसूस कर सकते थे।

उनके निशानों को नाकाम करने के लिए मैं दाएं हाथ में पकड़े रिवॉल्वर से फायरिंग करता रहा और बाएं हाथ से सीढ़ी पकड़कर चढ़ता गया। और बगल में किसी तरह मैंने तलवार पकड़ी हुई थी क्योंकि हम उसे म्यान नहीं रख सकते थे। वह लोग हम पर भारी पत्थर भी फेंक रहे थे ताकि हम नीचे लुढ़क जाएं… “आखिरकार बागी शहर की तरफ वापस चले गए, और मैं और गेराल्ड वहां पड़े पीपों के पास खड़े रह गए। हमने हाथ मिलाया और अपनी-अपनी राह ली। वह नीचे सूराख की तरफ चला गया और मैं परकोटे पर चलता हुआ बाई ओर कश्मीरी गेट की तरफ चला गया। मैंने उसे फिर कभी नहीं देखा, मुझसे अलग होने के फौरन ही बाद यह गोलों के हमले से जख्मी होकर चारदीवारी के अंदर ही मर गया।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here