कर्नल ने जिस फौजी लीडर से सीखी फारसी, वही जंग में आया सामने

1857 की क्रांति: दिल्ली में बगावत के दौरान अंग्रेजी फौजों के कमांडर विल्सन ने देखा कि 1 जुलाई को कश्तियों के पुल से इतनी बड़ी तादाद में फौज आई थी, जो ब्रिटिश अफसरों ने पहले कभी नहीं देखी थी। रिज पर से जहां तक नज़र जाती थी बरेली ब्रिगेड की फौज की कतारें ही कतारें तब तक नजर आती रहीं, जब तक कि वह गर्मी की धुंध में गायब नहीं हो गई।

इसमें कम से कम चार रेजिमेंट पैदल सिपाहियों की थी–कोई 2,300 लोग, और 700 घुड़सवार, 600 तोपें जिनमें से कुछ घोड़ों पर थीं, जिनकी सख्त जरूरत भी थी। 14 हाथी, 300 अतिरिक्त घोड़े, एक हज़ार बैलगाड़ियां और ऊंट जिन पर खेमे, हथियार, रसद और चार लाख रुपए का खज़ाना लदा था। और पीछे ‘तीन या चार हज़ार बागी ‘।

2 जुलाई को यह सब कश्तियों के पुल से गुजरे और कलकत्ता दरवाज़े पर उनका फलों और मिठाईयों से स्वागत हुआ, जो जीनत महल के पिता नवाब कुली खान ने भेजे थे। सारे अंग्रेज बेबस अपनी दूरबीनों से उन्हें देख रहे थे। जब वह बड़े विजयी अंदाज से झंडा लहराते शहर में दाखिल हुए, तो उनका बैंड ‘चीयर्स बॉय चीयर्स’ बजा रहा था, वही धुन जिस पर मार्च करती हुई एक छोटी सी ब्रिटिश फौज की टुकड़ी सुबह फीरोजपुर से ब्रिटिश कैंप में आई थी।

सईद मुबारक शाह के अनुसार, “शहर में कोई इतनी बड़ी खुली जगह नहीं थी, जहां इतनी बड़ी फौज समा पाती। इसलिए उसने दिल्ली दरवाज़े के बाहर पड़ाव डाला। ऐसा इसलिए जरूरी था कि शहर के सब मकानों और दुकानों पर पहले से आए हुए सिपाहियों ने कब्ज़ा जमा लिया था। जैसे, पूरी 73वीं एनआई ने पूरे अजमेरी बाजार को अपने इस्तेमाल ले लिया था और हर दुकान में छह-सात सिपाही रह रहे थे।

इस बरेली फौज का एक और अहम पक्ष इसका नेतृत्व था-दो व्यक्ति जिनमें लीडरशिप और एकजुटता पैदा करने की योग्यता मौजूद थी, जिसकी अब तक क्रांतिकारियों  में कमी थी। उनमें से एक तोपों के दस्ते का सूबेदार बख्त खां था, जिसको अफगान लड़ाइयों का ज़बर्दस्त तजुर्बा था, और जो बहुत से इनाम हासिल कर चुका था। ऊंचे कद और दोहरे बदन के इस रुहेले की लंबी मूंछें और लंबे-लंबे गलमच्छे थे। बख्त खां को बरेली की फौज ने जनरल चुना था और उसके बारे में कहा जाता था कि वह एक बहुत काबिल प्रशासक और फौजी लीडर था।

किस्मत की खूबी देखिये कि बख़्त खां को रिज पर कई ब्रिटिश अफसर जानते थे। कर्नल जॉर्ज बूशियर ने शाहजहांपुर में उसके घर पर उससे फारसी सीखी थी। उसका कहना था कि उसे ‘अंग्रेज़ सोसाइटी बहुत पसंद थी… और वह बहुत जहीन था।'” कुछ दूसरे अफसर उसके बारे में इतनी अच्छी राय नहीं रखते थे बल्कि उसको एक मोटा, सोसाइटी में ऊंचा उठने की कोशिश करने वाला, और अंग्रेज़ अफसरों की नज़र में सबसे ज्यादा शर्मनाक ‘एक बुरा घुड़सवार’ कहते थे।

दूसरे बागी लीडर बख़्त खां के आध्यात्मिक रहनुमा इस्लामी उपदेशक मौलवी सरफाज अली थे। यह मौलवी अब ‘मुजाहिदीन के इमाम’ कहलाते थे, जिन्होंने कई साल दिल्ली में गुजारे थे और किले और शहर दोनों जगह उनका रुसूख था। वह सबसे पहले मौलवी थे, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ जिहाद का फतवा दिया था। और वह भी उन दिनों में जब बगावत का आंदोलन शुरू हुआ थाः 1 मार्च को शाहजहांपुर में उसने एक भाषण में लोगों से कहा था, “हमारा मजहब खतरे में है। हम अपने ही मुल्क की हुकूमत खो बैठे हैं।

हमको नापाक काफिरों के सामने आज्ञाकारिता में झुकना पड़ा है। अब क्या हमको वह सब विरासत भी खोनी पड़ेगी, जो हमें अपने पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तरफ से मिली है?” लेकिन एक अहम बात यह थी कि पहले सरफ़ाज़ अली दिल्ली में मुफ्ती सदुद्दीन आजुर्दा के मदरसे दारुल बका में पढ़ाते थे, जो जामा मस्जिद के दक्षिण में था। वहां वह ज्यामिति और बीजगणित में काबलियत रखने की वजह से दिल्ली के उलमा में बहुत सम्मानजनक हैसियत रखते थे।

गदर से पहले सर सैयद अहमद खां ने उनको खासतौर से “दिल्ली के इल्मी ताज के सबसे चमकदार जवाहरों में से एक” कहकर तारीफ की थी। गदर से पहले सरफराज अली और बख्त खां का क्या रिश्ता था, यह कुछ साफ तौर से जाहिर नहीं है, लेकिन कुछ लोगों का कहना है कि सरफराज अली ने ही बख्त खां को बगावत में शामिल होने को कहा था। जब तक यह फौज दिल्ली पहुंची, बख़्त खां पूरी तरह से सरफराज अली के प्रभाव में आ चुका था। और सिर्फ वही नहीं, बल्कि जो चार हजार जिहादी फौज के साथ आए थे, वह भी सरफराज अली को अपना आध्यात्मिक रहनुमा मानते थे। अगर क्रांतिकारियों , सिपाहियों और दिल्ली के संभ्रांत लोगों को कोई एकजुट कर सकता था, तो वह यही दोनों आदमी कर सकते थे।

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