पहले नहीं होते थे मेडिकल स्टोर, हकीम-वैद्य करते थे इलाज

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

old delhi: पुरानी दिल्ली में आज की तरह मेडिकल स्टोर नहीं होते थे। उन दिनों में हकीम और वैद्य ही लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल करते थे। बीमार पड़ने पर दवाईयां देते थे। इस लिहाज से देखें तो उन दिनों हर मोहल्ला लगभग आत्मनिर्भर था। कैंचा सेठ के ही भीतर एक वैद्य जी थे जिनका धर्मार्थ औषधालय वहीं एक सिरे की गली में जैन मन्दिर से सटे आंगननुमा बड़े से कमरे में चलता था। सिर पर बड़ा-सा पग्गड़ बांधे, वे प्रायः बन्द गले का बुर्राक सफ़ेद शेरवानीनुमा कोट और धोती पहने रहते।

बहुत सर्दी में बन्द कोट स्वदेशी गर्म कपड़े का सिला रहता। मुंह हमेशा ताम्बूल-रंजित, चेहरे पर हलके से चेचक के दाग, हाथ में चांदी की मूठवाली छड़ी। बड़ा रौबीला व्यक्तित्व था उनका। इत्मीनान से फर्श में गांव तकिए के सहारे बैठे वे लोगों की नब्ज़ देख-देखकर दवा बांटा करते। भस्म की शक्ल में दवा की पुड़ियां जिन्हें बीमारी के हिसाब से शहद, शर्बत या मलाई में मिलाकर खाने की हिदायत।

औषधालय दान के पैसे से चलता था। वैद्य कन्हैयालाल जी इलाज के लिए आनेवाले अधिकांश परिवारों की अच्छी-बुरी बातों के राज़दार और सलाहकार की भूमिका भी निभाते, लगभग परिवारी जैसे।

दूसरे सिरे पर कूंचे और गली अनार के संगम से जरा दाहिने हाथ मुड़कर हकीम जोरावर सिंह का दवाखाना था। हकीम साहब चुस्त मोरी के चूड़ीदार पाजामे और सलेटी/भूरी अचकन में लैस बड़े सजीले जवान थे। बड़ी-बड़ी मारक आंखें, सुतवां नाक और नोकदार मूंछें, जिन पर हमेशा ताव दिए रहते। सिर पर किश्तीनुमा बांकी कुछ ऊंचे पाड़ की टोपी। मुंह में सलीके से दबा पान।

मुस्काननुमा हंसी ऐसी कि कोई भी कुर्बान हो जाए। मगर क्या मजाल, किसी के साथ कभी कोई बदफैली की हो! तरीका वही, नब्ज़ देखकर दवा देनेवाला। बच्चों में बड़े लोकप्रिय क्योंकि दवाओं के साथ मिट्टी की छोटी-सी प्याली में जो खमीरा देते, वह प्रायः बीमारी के बहाने का कारण बन जाता। कभी-कभी कुछ अर्क सौंफ, पुदीना के, जिन्हें लेने पैदल की जद में आनेवाले बाजार गुलियान में छोटे लाल अकतार की दुकान तक जाना पड़ता।

हकीम जी की दवाइयों के लिए कुछ भुगतान होता-बस, दो-चार आने। ज़रूरत पड़ने पर वैद्य और हकीम दोनों ही घरों पर भी मरीज देखने आते। मालूम नहीं, इसके लिए कोई फीस मुकर्रर थी या नहीं। जो होगी वह इतनी कि देनेवाले पर उसका बोझ न पड़े क्योंकि ऐसे बोझ की कभी चर्चा नहीं सुनी।

बीमारी कुछ गम्भीर होती और वैद्य-हकीम के कब्ज़े नहीं आती तो डॉक्टर भी पहुंच के भीतर था। चांदनी चौक में व दरीबा कलां से निकलकर दाहिने हाथ पर पांच-छह दुकानें छोड़कर डॉ. कपूर की डिस्पेंसरी थी।

वे खुद बड़े खुशमिजाज गोरे-चिट्टे पैंट-कोटधारी रौबीले इनसान थे। मामूली जुकाम-खांसी से मलेरिया, मियादी बुखार, पीलिया, तपेदिक तक सब बीमारियों के विशेषज्ञ। यहां तक कि जरूरत पड़ने पर टांके लगाने जैसी छोटी-मोटी सर्जरी को भी अंजाम देते। उनकी आमदनी का जरिया थे वे हलके-गहरे लाल-गुलाबी रंग के मिक्सचर जो उन्हीं की डिस्पेंसरी से एक-दो रुपए में मिलते थे।

घर आने की फीस तय थी, जो शायद दो रुपए के आसपास रही होगी। बहुत ज़रूरी होने पर कभी-कभी रक्त, थूक, टट्टी-पेशाब की लेबोरेट्री जांच के लिए भी दरीबे के ठीक सामने सीढ़ियां चढ़कर डॉ. एस.के. सेन की बड़ी-सी पैथ लैब थी। बोली-बानी, पारम्परिक धोती-कुर्ते में सजे ठेठ बंगाली मोशाय। बड़े शिष्ट, मिष्टभाषी शालीन व्यक्ति।

इन सबसे निराली हस्ती थी, जर्राह अयूब खां की। दरीबे से निकलकर जामा मस्जिद की तरफ़ जाते हुए, पचास गज़ की दूरी पर दाहिने हाथ मोहल्ला छिपीवाड़ा और गली गुलियां मिलते थे। इसी संगम पर एक मकान की निचली में बाहर की तरफ़ खुलती, दो पत्थर सीढ़ियां चढ़कर अयूब खां की दुकान थी।

छोटी-मोटी फोड़ा-फुंसी से लेकर बालतोड़ और कर्बकिल जैसे गम्भीर फोड़ों का शर्तिया इलाज था उनके पास। मोटे काग़ज़ की नलकियों में भरी भूरी काली मलहमों के फाए बना-बनाकर वे शरीर के प्रभावित हिस्सों पर लगाते जाते। ज़रूरत पड़ने पर नश्तर-चीरा भी वहीं सम्पन्न हो जाता। मरीज़ों में बच्चों की संख्या ज़्यादा रहती थी। उनकी चीख-पुकार और अयूब खाँ की अबे-तबे वाली डाँट-फटकार के बीच इलाज सम्पन्न होता चलता।

न ऐंटी-बायटिक, न स्टरलाइज़ेशन, नश्तर को वे फटे कपड़े से कसकर साफ़ करते और तेल की कुप्पी या मोमबत्ती की लौ में घुमा-फिराकर उसकी शुद्धि हो जाती। इलाज पर खर्च वही इकन्नी-दुअन्नी से एक रुपए तक। चारों तरफ़ खत्री, जैन, बनियों और कायस्थों के परिवारों से घिरे मियाँ अयूब खाँ उस पूरे परिवेश का सहज हिस्सा थे। अपनी वेश-भूषा, बोली-बानी सबसे सोलह आने मुसलमान दिखाई पड़ते। पर आसपास के मोहल्लों की सारी आबादी से उनका दुआ-सलाम से कुछ अधिक आपसदारी का सम्बन्ध था।

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