swami shailendra saraswati
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स्वामी जी ने जो कहा वो मोह और अहंकार छोड़ने का बनेगा जरिया, बदल जाएगी आपकी जिंदगी

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

विपरीत परिस्थितियों का आना जीवन में उतना ही निश्चित है, जितना सूर्य का उगना। हाल ही में, आध्यात्मिक गुरु स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने अपने एक विशेष प्रवचन में इस समस्या पर विस्तार से साधकों संग बातचीत की। गुरुदेव ने जोर देकर कहा कि आपकी पीड़ा का कारण बाहरी घटनाएँ नहीं, बल्कि आपका लोभ, मोह और न्याय की अपेक्षा है। चाहे ज़मीन का अवैध कब्ज़ा हो या सार्वजनिक अपमान, मनुष्य तब तक दुखी रहता है जब तक वह अपनी हानि और अपमान को निजी क्षति मानता है।

स्वामी जी ने एक नए दृष्टिकोण को सामने रखा है: स्वीकार भाव उन्होंने बताया कि किस तरह अन्याय से जूझ रहे एक व्यक्ति ने तीन महीने की पीड़ा के बाद सब कुछ स्वीकार कर लिया और कोर्ट-कचहरी का मार्ग छोड़कर आंतरिक शांति का मार्ग चुना। यह केवल एक व्यक्तिगत कहानी नहीं है, बल्कि यह एक ताज़ा प्रवृत्ति (Fresh Trend) है जो दिखाती है कि अपनी ऊर्जा को बाहरी लड़ाई में बर्बाद करने के बजाय, खुद को शांत रखना और आगे बढ़ना ही बुद्धिमानी है। यह प्रवचन आज के तनावपूर्ण माहौल में मानसिक शांति (एक सेकेंडरी कीवर्ड) खोजने की कुंजी देता है।

लोभ और मोह: आनंद के मार्ग की सबसे बड़ी चट्टान

स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती के अनुसार, जब भी कोई नुकसान होता है, तो सबसे पहले भीतर लोभ और मोह जागृत होते हैं। “जो गया सो गया, अब इसके लिए अपने आगे का समय और खराब नहीं करना है”—यह सरल वाक्य भीतर की सबसे बड़ी गांठ को खोल देता है।

एक व्यक्ति की 75 लाख की ज़मीन पर ग़ैर-क़ानूनी क़ब्ज़ा हो गया। विपरीत परिस्थितियों में, वह महीनों तक पीड़ा में रहा। वह गुंडों से लड़ना चाहता था, कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाना चाहता था। गुरुदेव ने विश्लेषण किया कि ऐसा करने से 75 लाख का नुकसान डेढ़ करोड़ तक पहुँच जाएगा, और केस कभी ख़त्म नहीं होगा। उनकी सबसे बड़ी सीख यह है कि दुनिया में हम न ज़मीन लेकर आए हैं, न लेकर जाएंगे। जैसे ही व्यक्ति ने ज़मीन से मोह छोड़ा, वह तुरंत निश्चिंत हो गया। आंतरिक शांति प्राप्त करने के लिए भौतिक वस्तुओं की हानि को स्वीकार करना पहला और सबसे महत्वपूर्ण कदम है।

न्याय की अपेक्षा है एक भ्रम: जंगल राज की सच्चाई

मनुष्य के मन में एक आदर्शवादी धारणा है कि जगत में न्याय होना चाहिए। लेकिन स्वामी जी स्पष्ट करते हैं कि इतिहास से लेकर वर्तमान तक इसके प्रमाण कहीं नहीं मिलते। जंगल राज आज भी चल रहा है—जिसके पास ताकत, पैसा, या ऊंची पोस्ट है, वह अपनी मनमानी करेगा।

सरकारी अफ़सर और फैक्ट्री मालिक का उदाहरण इसी सच्चाई को उजागर करता है। जब अफ़सर को अपमानित होकर दंश महसूस होता है, तो यह उसके अहंकार से जन्मा होता है कि “मैं बड़ा हूँ, मुझे इज़्जत मिलनी चाहिए”। लेकिन अपराधी की नज़रों में अफ़सर दुश्मन होता है। नाम बदल गए हैं: राजा-महाराजा, ज़मींदार, नेता, पूंजीपति—पर शोषण करने वाला एक वर्ग हमेशा से रहा है और रहेगा। इस वस्तुस्थिति को विवेक से स्वीकारना ही दुखों से मुक्ति दिलाता है।

स्वीकार भाव की पराकाष्ठा: काश्यप का त्याग

पुराण काश्यप की कहानी स्वीकार भाव का सर्वोच्च उदाहरण है। बुद्ध के शिष्य काश्यप सूखा क्षेत्र (पूर्णिया) में संदेश देने गए, जहाँ के लोग अत्यंत हिंसक थे।

अपमान पर खुशी: उन्होंने कहा कि यदि लोग अपमानजनक शब्द कहें (गालियाँ दें), तो खुशी होगी कि सिर्फ़ गालियाँ ही दे रहे हैं, शारीरिक हिंसा नहीं कर रहे।

हिंसा पर धन्यवाद: यदि लोग मारें-पीटें, तो धन्यवाद देंगे कि सिर्फ़ मारपीट कर छोड़ दिया, जान नहीं ली।

मृत्यु पर अनुग्रह: यदि प्राण ही हर लें, तो मरते क्षण धन्यवाद भाव से विदा होंगे, क्योंकि लंबे जीवन में मूर्छा के क्षणों में कोई गलत कर्म या कर्म बंध होने की संभावना नहीं बची।

यह दृष्टिकोण सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में सामने वाले के बुरे कर्मों को अपना दंश न बनाएं। आप उसकी स्थिति को नियंत्रित नहीं कर सकते, पर अपनी मनःस्थिति को नियंत्रित कर सकते हैं। यह आपको पूर्णतः निर्भीक और शांत कर देता है।

बराबरी का भाव: रिश्तों में अहंकार का ज़हर

एक और महत्वपूर्ण सीख संबंधों में बराबरी बनाए रखने पर है। एक संपन्न व्यक्ति के परिवार वाले उससे ईर्ष्या करते थे, हालाँकि वह उनकी पूरी मदद करता था।

स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने बताया कि जब आप किसी को कुछ देते हैं, तो वह व्यक्ति भीतर ही भीतर अपमानित महसूस करता है। वह दाता को लुटेरा या शोषणकर्ता मानकर मन ही मन शाप देता है।

समाधान यह है कि गुप्त दान की महिमा को समझें—मदद ऐसी करें कि दूसरे को पता न चले किसने की। साथ ही, उन्हें भी दाता बनने का मौका दें। उनसे छोटी-मोटी मदद लें (जैसे चाय बनवाना या कोई काम सौंपना)। जब लेन-देन बराबरी का होता है, तभी मैत्री पनपती है। यदि एक सुपीरियर (Superior) और दूसरा इनफीरियर (Inferior) बना रहेगा, तो वह शत्रुता में बदल जाएगा।

विपरीत परिस्थितियों को केवल बाहर की आँख से नहीं, बल्कि विवेक और स्वीकार भाव के लेंस से देखना ही सच्ची मानसिक शांति देता है। स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती का यह संदेश स्पष्ट है: अपने लोभ, मोह और न्याय की आदर्शवादी अपेक्षाओं को त्यागें। दुनिया का सच जैसा है, उसे स्वीकार करें। जब हम बाहरी घटनाओं को धन्यवाद भाव से देखते हैं, तो भीतर से आनंद का झरना फूट पड़ता है। अपने अहंकार को छोड़कर बराबरी के संबंध बनाएं और जीवन को एक अनावश्यक बोझ की तरह ढोना बंद कर दें। भविष्य का दृष्टिकोण यही है कि आंतरिक मुक्ति ही हर बाहरी युद्ध को जीतने का एकमात्र उपाय है।

Q&A Section

Q1: क्या हमें अन्याय के खिलाफ लड़ना छोड़ देना चाहिए?

A: स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती का कहना है कि लड़ने या न लड़ने के मार्ग में से आपको शांति का मार्ग चुनना चाहिए। बाहरी न्याय की अपेक्षा एक भ्रम है, क्योंकि दुनिया हमेशा से जंगल राज के नियम पर चल रही है। कोर्ट-कचहरी में ऊर्जा नष्ट करने से बेहतर है कि आगे का समय बर्बाद न किया जाए और वस्तुस्थिति को स्वीकार भाव से लिया जाए।

Q2: गरीब व्यक्ति अमीर दाता से क्यों ईर्ष्या करता है?

A: गरीब (या कम संपन्न) व्यक्ति, अमीर से मदद लेने पर ऊपर से धन्यवाद करता है, पर भीतर ही भीतर अपमानित महसूस करता है। वह अमीर व्यक्ति को समाज का शोषणकर्ता मानकर लुटेरा समझता है, न कि सच्चा दाता। यह ईर्ष्या अहंकार को चोट लगने के कारण पैदा होती है।

Q3: रिश्तों में बराबरी बनाए रखने का क्या उपाय है?

A: बराबरी बनाए रखने का उपाय यह है कि आप सिर्फ़ दाता न बनें; उनसे भी छोटी-मोटी सहायता लें। उन्हें भी दाता बनने का मौका दें। जब लेन-देन बराबरी का होता है, और मदद इस तरह की जाती है कि दूसरे को पता न चले (गुप्त दान), तो मैत्री का भाव निर्मित होता है और अहंकार को चोट नहीं पहुँचती।

Q4: पूर्ण काश्यप का उदाहरण विपरीत परिस्थितियों में कैसे मदद करता है?

A: पूर्ण काश्यप का उदाहरण हमें सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में किसी भी अपमान, शारीरिक हिंसा, या यहाँ तक कि मृत्यु को भी धन्यवाद भाव से स्वीकार करना चाहिए। यह दृष्टिकोण हमें बाहरी घटनाओं से निर्भर कर देता है और कोई भी परिस्थिति हमारी मनःस्थिति को डगमगा नहीं सकती।

Q5: स्वामी जी के अनुसार, हमारे दुखों का मूल कारण क्या है?

A: स्वामी जी के अनुसार, हमारे दुखों का मूल कारण बाहरी घटनाएँ नहीं, बल्कि हमारी आदर्शवादी धारणाएँ हैं—जैसे जगत में न्याय होना चाहिए। साथ ही, लोभ, मोह और अपनी उच्च पोस्ट या धन के कारण दूसरों से इज्जत मिलने की अपेक्षा भी दुखों को जन्म देती है।

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