संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण देने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी जी का किया गया सार्वजनिक अभिनंदन
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
कांग्रेस के खिलाफ चार पार्टियों का गठजोड़ हुआ। इसे जनता दल नाम दिया गया था। कांग्रेस में विभाजन तो पहले ही हो चुका था। पर इसके बाद सभी पार्टियों में तरह-तरह के विनियोजन-संयोजन होने लगे, जिनमें विचारधारात्मक मतभेद नहीं, सत्ता के लिए दलबन्दी और छीना-झपटी प्रमुख थी।
24 मार्च को 81 वर्ष की आयु में मोरारजी देसाई ने प्रधानमन्त्री का पद सँभाला। कांग्रेस विरोधी लहर के नतीजे सामने आने लगे। जून में दिल्ली समेत सात राज्यों में जनता दल भारी बहुमत से विजयी हुआ। बाकी राज्यों में भी कांग्रेस की कोई हैसियत नहीं रही।
ध्यान देने की बात यह है कि नई सरकार ने विकास और प्रगति की दिशा में ठोस विधेयात्मक क़दम उठाने के बजाय कांग्रेस के किए को अनकिया करने पर ज़्यादा ध्यान दिया। सरकार ने पद्म-सम्मान देना बन्द कर दिया।
विश्व मंच पर हिन्दी का झंडा गाड़ने के लिए विदेश मन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी ने पहली बार (और शायद आखिरी बार भी) संयुक्त राष्ट्र संघ की आम सभा को हिन्दी में सम्बोधित किया। देश भर में उनका जय-जयकार हुआ। सरकारी खज़ाने से इस भाषण के अनुवाद की प्रक्रिया में करोड़ों रुपए खर्च हुए।
दिल्ली के हिन्दी साहित्य-सम्मेलन ने इस ऐतिहासिक क़दम उठाने के लिए नई दिल्ली के सप्रू-हाउस में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया। गोपालप्रसाद व्यास ने वन्दना के अनेक स्वरों में स्वर मिलाने के लिए मुझे और अज्ञेय जी को आमन्त्रित किया। मैंने तो अतिरंजना बचाते हुए जैसे-तैसे मौके के अनुरूप एक रस्मिया भाषण देकर मुक्ति पाई, पर अज्ञेय जी ने अवसर के अनुरूप, उनके इस क़दम की यथोचित तारीफ़ की। एक क्षण के लिए चुप हुए।
और फिर बड़े ठंडे निरावेग स्वर में सार्वजनिक रूप से वाजपेयी जी का ध्यान इस बात की तरफ़ दिलाया कि उनके अपने मन्त्रालय में सारे बोर्ड तब भी अंग्रेज़ी में लगे थे। उनके इस कथन का प्रभाव मारक हुआ। सभा में सन्नाटा छा गया। यह घटना अज्ञेय जी की कद्दावरी को उजागर करने के साथ-साथ इस बात के लिए महत्त्वपूर्ण थी कि देश की राजधानी में विदेशमन्त्री की उपस्थिति में उन्हें ‘चिराग तले अँधेरा’ दिखाने की हिमाकत करने के लिए बुद्धिजीवी स्वतन्त्र था।
निर्मला जैन अपनी किताब दिल्ली शहर दर शहर में लिखती हैं कि ऐसा नहीं था कि सबने इसी ढंग से साहस दिखाया हो। खुद अज्ञेय जी आपात्काल के दौरान चुप्पी साधनेवालों में थे। और उनकी नियुक्ति नवभारत टाइम्स के आपात्काल-भक्त अक्षयकुमार जैन को हटाकर उनके स्थान पर हुई थी।
आपातकाल के होने न होने से तमाम लोगों के मुखौटे बदले या फिर वे परिस्थिति का शिकार हुए। दिनमान के कवि-पत्रकार श्रीकान्त वर्मा गुमनामी में खो गए। रघुवीर सहाय ने जैसे-तैसे अपनी प्रतिष्ठा गँवाकर कुर्सी का बचाव किया।
मनोहरश्याम जोशी तो तत्कालीन विदेशमन्त्री अटलबिहारी वाजपेयी की रचनाएँ (कुंडलियाँ, दोहे और कविताएँ) छापकर अपनी निष्ठा प्रमाणित करने में जुट गए। कुछ ऐसा ही धर्मयुग के बम्बैया सम्पादक धर्मवीर भारती ने भी किया- सत्ता के प्रति वफ़ादारी का धर्म निभाकर। कहना न होगा कि यह परिवर्तन पत्रों के मालिकों की नीति और निष्ठा के साथ पूरी संगति में था। सरकार को भी इससे विशेष असुविधा नहीं हुई।
ध्यान देने की बात यह है कि राजधानी होने के कारण दैनिकों और पत्रिकाओं की दृष्टि से दिल्ली का महत्त्व राष्ट्रीय स्तर का था। अधिकांश पत्रों का सम्बन्ध बड़े औद्योगिक घरानों से था। विख्यात सम्पादक राजेन्द्र माथुर नवभारत टाइम्स और दैनिक हिन्दुस्तान को ‘रिफ्लेकटर’ कहा करते थे। मुख्यधारा की हिन्दी पत्रकारिता इन्हें अपना ‘रोल मॉडल’ मानती थी।
गोकि अंग्रेज़ी पत्रकारिता के बारे में स्थिति ठीक ऐसी नहीं थी। बौद्धिक हलके में ‘स्टेट्समैन’ की विश्वसनीयता और साख अधिक थी गरचे उसका सरकुलेशन हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ इंडिया से कम था। दरअसल ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ तो दिल्लीवालों का तब से अब तक चहेता अख़बार समझा जाता रहा है। यह बात अलग है कि स्टेट्समैन की जगह लम्बे समय से ‘हिन्दू’ ने ले ली है।