ब्रितानिया हुकूमत के दौरान दिल्ली आए विद्वान फ्रेजर ने एक अनोखी पहल की। यहां आने के फौरन बाद उसने यहां के ‘पढ़े-लिखे और आलिम लोगों की तलाश शुरू कर दी जिनकी उसके ख्याल में अच्छी-खासी तादाद थी, और जो गरीबी में रह रहे थे। लेकिन जिनसे भी वह मिला, वह ज्ञान का भंडार’ थे। उनमें से एक ग़ालिब भी थे, जिन्होंने फ्रेजर के कत्ल के बाद लिखा कि “मुझे ऐसा लगा जैसे मेरे पिता की मौत का गम ताजा हो गया है”।
फ्रेजर ने सूअर का और गाय का गोश्त खाना भी छोड़ दिया था ताकि वह अपने हिंदू और मुसलमान दोनों के साथ खाना खा सके। वह पूरे मुग़ल अंदाज़ से रहता था और मुगलिया लिबास भी पहनता था। और दिल्ली में मशहूर था कि वह सिर्फ दिल्ली के पुराने खानदानों के लोगों के मेहमान ही मिलता है जिनमें ज़्यादातर मुग़ल नस्ल और मुसलमान थे और दरबार की बदहाली का शिकार थे। एक फ्रांसीसी सैलानी और वनस्पति-विज्ञानी विक्टर जौकमोंट लिखता है:
“फ्रेजर, अपनी आदतों में आधे एशियाई हैं। मगर दूसरी बातों में पूरे स्कॉट। वह बहुत उम्दा आदमी हैं जिनके पास न सिर्फ विचारों की मौलिकता है बल्कि वह तत्वज्ञानी भी हैं। अपने रहन-सहन की वजह से वह और किसी भी अंग्रेज़ से ज़्यादा हिंदुस्तान के रस्मो-रिवाज जानते हैं। वो हिंदुस्तानियों की निजी जिंदगी से पूरी तरह परिचित हैं और उनको समझते हैं और वह हिंदुस्तानी और फारसी अपनी मादरी जबान की तरह जानते हैं।
फ्रेजर ने 8 फरवरी 1806 को अपने माता-पिता को पहला खत भेजा, जिसमें उन्होंने दिल्ली का ज़िक्र करते हुए लिखाः
दिल्ली में मेरी नौकरी इतनी अच्छी है जितनी कि हो सकती है। मैं यहां की जबानें सीख रहा हूं जो मेरे लिए बहुत खुशी का कारण है। दिल्ली में और भी कई मशगले हैं, मैं एक मसौदों का संग्रह भी तैयार कर रहा हूं।”
फ्रेजर अकेला अंग्रेज़ नहीं था जो मुग़लों की संस्कृति में दिलचस्पी रखता था। उसका आला अफसर ऑक्टरलोनी भी दिल्ली की दरबारी संस्कृति का प्रशंसक था। एक बार इत्तफ़ाक़ से राजस्थान में उसकी मुलाकात पादरी हीबर से हो गई जब वह मुगल लिबास पहने एक हुक्के और नाचने वालियों के साथ वहां ठहरे हुए थे। उनको देखकर हीबर दंग रह गए। वह हिंदुस्तानी पाजामा और पगड़ी पहने बैठे थे और पीछे खड़ा नौकर उनको मोरपंखी पंखा झल रहा था। उसके खेमे के एक तरफ एक लाल रेशम का खेमा था जहां उसकी औरतें सोती थीं और दूसरी तरफ उसकी बेटियों का ख़ुमा था, जो, चकित पादरी के शब्दों में ‘सब लाल पर्दे से ढकी हुई थीं। ऐसा लगता था मानो कोई अरब शाहज़ादा सफर कर रहा हो।
कहा जाता था कि ऑक्टरलोनी की तेरह बीवियां थीं। उनमें से एक जिक्र उसके वसीयतनामे में ‘बीबी महरुतन मुबारकुन्निसा बेगम उर्फ वेगम ऑक्टरलोनी, मेरे छोटे बच्चों की मां” कहकर किया गया है। वह और सब बीवियों से ऊंचे दर्जे पर थी” और उससे उम्र में बहुत कम थी। वह बुढे जनरल को उंगलियों पर नचाती थी। और लोगों का कहना था कि डेविड को दिल्ली का कमिश्नर बनाना ऐसा था जैसे जनरैली बेगम को।
विलियम डेलरिपंल अपनी किताब द लास्ट मुगल में लिखते हैं कि ऐसे मिले-जुले घराने में इस्लामी रस्मो-रिवाज का ख्याल रखा जाता था और उनका सम्मान किया जाता था। एक ख़त में लिखा है कि बेगम ऑक्टरलोनी ने हज पर जाने की इजाजत मांगी है।” ऑक्टरलोनी ने अपने बच्चों को मुसलमान बनाने तक के बारे में सोचा और जब मुबारक बेगम के बच्चे बड़े हो गए, तो उसने दिल्ली के बड़े रईस घराने नवाब लोहारू के घराने की एक बच्ची को गोद ले लिया।” मुबारक बेगम ने उसकी परवरिश की और जब वह बड़ी हो गई तो उसकी शादी एक रिश्ते के भाई से हुई जो गालिब का भतीजा था।”