दिल्ली के शायर अपनी वेशभूषा, सजधज और अपनी आनवान के लिए मशहूर थे। तहजीब और शराफ़त के पुतले थे मशहूर शायद मीर दर्द में शराफत और सहनशीलता कूट-कूट कर भरी थी। वे एक ऐसे दरवेश स्वभाव के इन्सान थे, संतोष जिनका ओढ़ना-बिछोना था। खुदा जो देता उसी पर सब कर लेते और किसी चीज के न होने या मिलने की शिकायत कभी जवान पर न लाते। मुहर्रम के दिनों में वह अपने घर पर मजलिसें करते थे जिनमें शहर के रईस और ऊँचे तबके के लोग शामिल होते थे। शाहआलम द्वितीय भी उन मजलिसों में शरीक होने में गर्व का अनुभव करते थे। एक बार का जिक्र है कि एक ऐसी ही महफ़िल में बैठे-बैठे बादशाह की टाँगों में दर्द होने लगा और उन्होंने टाँगे फैला लीं जो अदब के खिलाफ बात समझी जाती थी। चूँकि बादशाह उस समय महफ़िल में शरीक होने वाले एक व्यक्ति थे और मीर-ए-मजलिस खुद दर्द थे, उन्होंने बहुत ही शाइस्तगी से बादशाह का ध्यान इस बेअदबी की ओर दिलाया।

मीर तकी ‘मीर’ उर्दू के महानतम शायरों में से थे उन्हें दिल्ली से प्रेम था। बदकिस्मती से तंगदस्ती ने उन्हें मजबूर कर दिया कि दिल्ली छोड़कर लखनऊ चले जाएं। वहां उन्होंने एक मुशायरे में शिरकत की, जहां शायरों ने उनके अजीब-ओ-गरीब लिबास का मजाक उड़ाया। कुछ लोगों ने, जिन्होंने ‘मीर’ को पहले नहीं देखा था यह भी जानना चाहा कि यह ऐसी विचित्र वेशभूषा वाला शायर कौन है और कहां से आया है। जब ‘मीर’ की बारी आई तो उन्होंने शेर पढ़ें-

क्या बूद-ओ-बाश पूछो हो पूरब के साकिनो

हमको गरीब जान के, हंस-हंस पुकार के

दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतखाब

हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के।।

एक बार ‘मीर’ लखनऊ के बाजार में घूम रहे थे कि नवाब आसुफद्दौला की सवारी उधर से गुजरी। ‘मीर’ को देखकर नवाब साहब ने अपनी सवारी रोक दी और उनसे पूछा, “आपने महल में आना क्यों छोड़ दिया?” “बाजार में खड़े होकर बात करना खिलाफ-ए-तहजीब है।” मीर साहब बोले और आगे बढ़ गए।

‘जौक’ आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह ‘जफ़र’ के उस्ताद थे। उन्हें एक दफा दकन के शाह से बुलावा आया कि आप हैदराबाद आइए हम आपको दिल्ली दरबार से ज़्यादा वजीफा और ताजीम-ओ-तकरीम’ देंगे। ‘जौक’ भी दिल्ली पर जान देते थे। उन्होंने यह कहकर शान-ए-दकन की पेशकश ठुकरा दी-

आज कल गर्चे दकन में है बड़ी कद्र-ए-सुखन

कौन जाए ‘जौक’ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर

मिर्जा गालिब भी अपने बाद के वक़्त में बहुत तंग रहते थे मगर उनके स्वाभिमान ने भी कभी इस बात की इजाजत नहीं दी कि वे दिल्ली छोड़कर कहीं चले जाएं। 1857 ई. की तबाही के बाद दिल्लीवासियों की हालत बहुत खराब हो गई थी मगर दिल्ली वाले भी अपनी टेक पर अड़े रहे। न उनकी परंपरानिष्ठता में कोई फर्क आया और न रवादारी में। हिन्दू-मुसलमान इसी तरह आपस में ताल्लुकात कायम रखे रहे। मिर्जा गालिब के दोस्तों और शार्गिदों में बहुत से हिन्दू थे। जिनमें मिर्जा हरगोपाल ‘तफ़्ता’ उनके काफी करीब थे। एक ख़त में गालिब उन्हें लिखते हैं-

“मैं तमाम इन्सानों को अपना रिश्तेदार मानता हूं और तमाम आदमियों को ख्वाह। वे मुसलमान हों, हिन्दू हों या ईसाई हों, अपना भाई समझता हूं और इस बात की परवाह नहीं करता कि दूसरे क्या सोचते हैं।”

दिल्ली की परंपरानिष्ठता की एक और मिसाल एक अमीर हिन्दू की इस कहानी में भी मिलती है। एक दिन जब बड़ी गर्मी थी उसने अपने नौकर को भेजा कि जाकर बाजार से एक उम्दा तरबूज खरीद कर लाओ। नौकर ने एक बड़ा तरबूज़ पसंद किया और उसके दाम चुकाकर पैसे देने ही वाला था कि इतने में एक और खरीदार आ गया और उसने उस तरबूज़ को ज़्यादा पैसे देकर खरीदना चाहा। नौकर और खरीदार में ज़िद हो गई कि वही तरबूज़ लेना है और उसके लिए दोनों बढ़-चढ़ कर दाम बोलने लगे। आखिरकार वह नौकर इस तरबूज को हासिल करने में कामयाब हो गया और घर पहुंचकर उसने अपने मालिक को सारी बात सुनाई कि फलां नौकर भी उस तरबूज़ को अपने मालिक के लिए खरीदना चाहता था। यह नौकर उसके एक दोस्त का था जो एक मुस्लिम नवाब था। वह अमीर हिन्दू तरबूज़ लेकर फ़ौरन उस नवाब के घर पहुंचा और बहुत सारी माफी मांगकर तरबूज उन्हें पेश किया। नवाब साहब ने उसी वक़्त तरबूज़ को दो हिस्सों में काटा और एक खुद रखकर, दूसरा अपने दोस्त को दे दिया।

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