Qutub Minar Complex and Qutab Minaret Tower. The Qutub Minar was constructed in the year 1192 out of red sandstone and marble.Is the tallest minaret in India, with a height of 72.5 meters (237.8 feet). Qutub Minar, Delhi, India.

दिल्ली के इन नगरों को बसाया था राजा अनंगपाल के पांच पुत्रों ने

सूरज कुंड का विस्तारिता इतिहास पढ़िए

अनंगपाल के पांच पुत्र बताए जाते हैं- तुडंगपाल, महीपाल, सूरजपाल और दो अन्य। अनंगपाल ने अनंगपुर गांव में, जिसे अब अड़गपुर या अनकपुर कहते हैं, बंद बांधा और नगर बसाया। उसके बेटे महीपाल ने महिपालपुर बसाया, जो महरौली से तीन-चार मील है। वहां एक बहुत बड़ा ताल, महल और किला था, जिनके चिह्न आज भी मौजूद हैं। तुडंगपाल ने तुगलकाबाद के निकट किला बनाया और सूरजपाल ने, जो पांचवां बेटा था, सूरजकुंड बनाया। यह अड़गपुर से एक मील है।

भाटों की कविताओं के अनुसार, इस कुंड की रचना का समय संवत 743 विक्रमी (686 ई.) बताया जाता है। यह कुंड छह एकड़ जमीन में जंगल और पहाड़ों के बीच, इंसान की जहाँ गुजर आसान नहीं है, बना हुआ है। कुंड पक्का खारे के पत्थर का है। चारों तरफ धारदार पत्थर की सीढ़ियां हैं, जो नीचे से ऊपर तक चली गई हैं। ये सीढ़ियां नौ-दस फुट तक तो मामूली चौड़ी हैं, लेकिन ऊपर जाकर ये बहुत चौड़ी हो गई हैं। कुंड घोड़े की नाल को शकल का बना हुआ है। कुंड के पश्चिमी भाग के बीच में, जो खंडहर पड़ा है, ख्याल है कि वह सूर्य का मंदिर था। तालाब से मंदिर पर चढ़ने के लिए पचास सीढ़ियां हैं, इन सीढ़ियों के दोनों ओर ऊंची-ऊंची दीवारें हैं। पूर्व में भी इसी प्रकार एक जवाबी घाट बना हुआ है। उस ओर भी शायद कोई इमारत रही हो।

कुंड की उत्तरी दीवार के बीच में मवेशियों के लिए एक रपटवां गौघाट बना हुआ है। इस घाट से उस टूटी हुई दीवार की तरफ, जो पश्चिम में है, सीढ़ियां नहीं हैं। यह भाग शायद इसलिए खाली छोड़ा गया है, ताकि इधर से पहाड़ का सारा पानी बहकर कुंड में भर जाए। कुंड के चारों कोनों पर बुर्जियां भी रही होंगी, क्योंकि पत्थरों के ढेर पड़े हुए हैं। कुंड से हटकर भी और मकानात और बुर्ज थे, जिनका मलबा कुंड से आठ-नौ गज के अंतर पर पड़ा हुआ है। कुंड के उत्तरी भाग में एक महल था । महल से तालाब पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई थीं। महल तो नहीं रहा, मगर सीढ़िया हैं। कुंड में बरसाती पानी भर जाता है। 15-20 फुट पानी हो जाता है।

भादों सुदी छठ को यहां हर वर्ष एक मेला लगता है। कुंड के दक्षिण-पूर्वी कोने में एक पीपल का पुराना पेड़ है, जिसकी पूजा होती है। चढ़ावा अड़गपुर और लकड़पुर गांव के पुजारी ले जाते हैं। कुंड से कोई पांच मील पूर्व दिशा में अंदर जाकर एक छोटा-सा चश्मा है, जो सिद्ध कुंड कहलाता है। यहां भी मेला लगता है। कुंड में पानी सदा बना रहता है। वर्षा काल में यह सारा भाग देखने योग्य होता है।

संभवत: अड़गपुर अथवा अनकपुर से दिल्ली हटाकर किलोखड़ी और फिर महरौली के पास 1052 ई. में बसाई गई और राजा अनंगपाल तथा उसके वंशजों ने करीब एक सदी तक वहां बिना किसी रोक-टोक के राज्य किया। इस दरमियान राजा अनंगपाल ने एक बहुत विशाल कोट बनाया, जिसका नाम लालकोट था। इस कोट के खंडहर आज भी देखने को मिलते हैं। किले के अतिरिक्त राजा ने एक ताल अनंगपाल के नाम से बनाया तथा 27 मंदिर बनाए, जिनकी बनावट राजपूताना और गुजरात के मंदिरों के नमूने की थी। उन मंदिरों को मुसलमानों ने तोड़कर उस सामग्री से मस्जिद बनाई थी, जिसमें लोहे की लाट खड़ी है। आबू पहाड़ पर जैसे दिलवाड़ा के मंदिर हैं, उसी नमूने के ये मंदिर थे और उनके बीच में लोहे की कीली खड़ी थी। कीली तो अपने स्थान पर जहां थी वहां ही खड़ी है, मगर मंदिरों की जगह मस्जिद बन गई, जिसे कुब्बतुलइस्लाम अर्थात इस्लाम की शक्ति के नाम से पुकारते हैं। यह तो निश्चित है कि मस्जिद उसी चबूतरे पर बनाई गई है, जिस पर मंदिर बना हुआ था, मगर यह भी बहुत मुमकिन है कि मस्जिद का पिछला भाग मंदिर का ही भाग रहा हो। इसको पृथ्वीराज का चौंसठ खंभा भी कहते हैं।

चौंसठ खंभे में प्रवेश करने के लिए पूर्व की ओर से सीढ़ियां उत्तर कर फिर सात सीढ़ियां चढ़कर चौंसठ खंभे के मुख्य द्वार में दाखिल होते हैं। चबूतरे की ऊंचाई साढ़े चार फुट है और द्वार के दाएं-बाएं बारह फुटी दो दीवारें हैं। दरवाजा कोई ग्यारह फुट चौड़ा है। द्वार में प्रवेश करके हम एक गुंबद के नीचे पहुंचते हैं जिसके दाएं और बाएं स्तंभों को कतार है और आगे की ओर सहन 142 फुट लंबा और 108 फुट चौड़ा है। दाएं हाथ पर चार कतार स्तंभों को है। चौंसठ खंभे को दक्षिण की ओर इसका दक्षिणी दरवाजा है। वैसा ही उत्तर में है। दक्षिण-पूर्व की ओर की खिड़कियां मौजूद हैं। दक्षिण-पश्चिम की ओर की खिड़कियां दीवार के पास खत्म हो गई हैं।

पश्चिम की ओर पांच बड़ी महराबें हैं। इन महराबों के पीछे की और मस्जिद का प्रार्थना भवन था, जो उसी नमूने का था, जैसे कि अन्य भवन बने हुए हैं। इसके बीच में गुंबद था, जैसा कि पूर्वी द्वार पर बना हुआ है। प्रार्थना भवन 147 फुट लंबा और 40 फुट चौड़ा था जिसकी छत अति उत्तम और बहुत ऊंचे पांच कतारों में स्तंभों पर बनी हुई थी। मस्जिद के अब खंडहर ही बाकी हैं। यह मस्जिद ऐबक के काल में कैसी थी, उसका जिक्र करते हुए फर्ग्युसन ने लिखा है- ‘यह इस कदर जैनियों की इमारतों के नमूने की है कि उसका वर्णन करना ही चाहिए। इसके खंभे आबू पहाड़ के जैन मंदिरों के खंभों के समान हैं, सिवा इसके कि दिल्ली के अधिक सुंदर और प्रशस्त हैं।

संभवतः ये ग्यारहवीं या बारहवीं शती के बने हुए हैं और उन चंद एक नमूनों में से गिने चुने हैं, जो भारतवर्ष के स्मारकों को अलंकृत किए हुए हैं, क्योंकि धरती से शिखर तक एक इंच स्थान भी बिना खुदाई के काम के नहीं छूटा है। खंभों पर लहरिए हैं, जिनके सिरों पर घंटे या फुंदने हैं। अनुमान यह किया जाता है कि मस्जिद के आगे के तीन दरवाजे तो बेशक नए बनवाए गए। होंगे, मगर बाकी हिस्से में मंदिर को तोड़कर मस्जिदनुमा बना दिया गया होगा और मंदिर के खंभों पर बनी हुई मूर्तियों पर प्लास्टर चढ़ाकर उनके ऊपर अरबी जुबान में आयतें लिख दी गई होंगी।

मगर धीरे-धीरे वह प्लास्टर झड़ता गया और खंभे अपनी असल हालत में निकल आए। मस्जिद की छत और दीवारों पर बाज-बाज सिलें और पत्थर अब भी ऐसे लगे हुए देखने में आते हैं, जिनमें कृष्ण भगवान का बचपन और देवताओं की सभाएं बनी हुई हैं। मस्जिद की शुमाली दीवार के बाहर के दो कमरों में से हर एक कमरे में एक-एक औरत अपने पास एक बच्चे को लिए हुए लेटी है और तख्त पर शामियाना तना हुआ है और एक नौकरानी पास बैठी है। बाएं हाथ की तरफ के कमरे में दो औरतें अपने-अपने बच्चों को लिए हुए दरवाजे की तरफ जा रही हैं। दाहिने हाथ के कमरे में दो औरतें अपने-अपने बच्चों को एक देवता की तरफ ले जा रही है। दालान के उत्तर-पूर्वी कोने में एक पत्थर पर छह मूर्तियां- विष्णु, इंद्र, ब्रह्मा, शिव और दो अन्य देवताओं की पाई जाती हैं। कई मूर्तियां बुद्ध भगवान की बैठी हुई खुदी हुई हैं। लोहे की लाट के गिर्द के दालानों में 340 खंभे हैं। ऐसा अनुमान है कि असली हालत में 450 खंभे रहे होंगे। दालान, जो बने हुए हैं, दोमंजिला भी हैं।

जैनियों का कहना है कि जहां मस्जिद कुव्वतुलइस्लाम बनाई गई, वहां जैन पार्श्वनाथ का मंदिर था। यह तोमरवंशीय राजा अनंगपाल तृतीय के मंत्री अग्रवाल वंशी साहू नट्टल ने 1132 ई. से पूर्व बनवाया बताते हैं। इसके बारे में कवि श्रीधर ने पार्श्वपुराण में भी उल्लेख किया है। निकटवर्ती जिन मंदिरों को कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1193 ई. में विध्वंस किया, उनमें यह मंदिर मुख्य था, जिसके अवशिष्ट चिह्नों में से हाथी दरवाजा तथा दो ओर के सभागृह अब भी देखने को मिलेंगे। उनके कहने के अनुसार, कीली के पार्श्व भाग में शिखर युक्त पीठिका में मुख्य वेदी स्थापित थी तथा इसी के केंद्र से चारों ओर सभागृह था, जिसके स्तंभों व दीवारों पर तीर्थंकरों की मूर्तियां देखने में आती हैं। द्वार को छोड़कर बाकी तीन ओर के सभागृह में तीन अतिरिक्त वेदियों की स्थापना का आभास पाया जाता है। जैनियों का कथन है कि यह संपूर्ण मंदिर एक सरोवर के मध्य में स्थित था।

महात्मा गांधी सर्वप्रथम जब कुतुब मीनार और उसके चारों ओर की इमारतों को देखने गए थे तो इस मस्जिद को देखकर, जिसमें टूटे हुए मंदिरों की सामग्री लगी हुई थी, उन्हें इतना धक्का लगा था कि वह अपने साथियों को कुतुब की इन इमारतों को देखने से रोक दिया करते थे।

लोहे की लाट

लोहे की लाट या कीली की, जो हिंदू काल की एक अद्भुत स्मृति है, अपनी एक अलग कहानी है, जिसका पता संस्कृत में लिखे उन छह श्लोकों से लगता है, जो कोली पर खुदे हुए हैं। इन श्लोकों का अध्ययन सर्वप्रथम जेम्स प्रिंसेज ने किया और बाद में अन्य लोगों ने भी उन श्लोकों की व्याख्या की। श्लोकों के अतिरिक्त दूसरी भाषाओं में भी लाट पर कुछ ख़ुदा हुआ है। संस्कृत श्लोकों के अनुसार, चंद्र नाम का एक राजा हुआ, जिसने बंग (बंगाल) देश पर विजय प्राप्त की थी और सिंधु नदी की सप्त सहायक नदियां को पार करके उसने वाल्हिका (वल्लख) को जीता था। उस विजय की स्मृति में यह लोहे की कीली या स्तंभ बना है। अनुमान है कि यह विष्णु भगवान के मंदिर के सामने, जो विष्णुपद नाम की पहाड़ी पर बना हुआ होगा, भगवान के ध्वज रूप में लगाया गया होगा और इसके ऊपर गरुड़ भगवान की मूर्ति रही होगी। राजा चंद्र से अनुमान है कि यह चंद्रगुप्त द्वितीय होंगे, जिनको विक्रमादित्य द्वितीय भी कहते थे और जो 400 ई. में हुए हैं। यह राजा भगवान विष्णु का बड़ा भक्त था और पाटलिपुत्र इसकी राजधानी थी, जो बिहार में है।

लोहे की कीली के संस्कृत श्लोकों का अनुवाद इस प्रकार है-

‘जिसकी भुजाओं पर तलवार से यश लिखा हुआ है, जिसने बंगाल की समरभूमि में शत्रुओं के संगठित दल को बार-बार पीछे मार भगाया, जिसने सिंधु नदी के सात मुहानों को पार कर युद्ध में वल्लखों को जीता, जिसकी यश कीर्ति दक्षिण समुद्र में अब भी लहराती है।।।।।

‘जिसने खेद से इस लोक को छोड़ दिया और जो अब स्वर्ग में राजभोग कर रहे हैं, जिसकी मूर्ति स्वर्ग पहुंच चुकी है, किंतु यश अभी तक पृथ्वी पर है, जिसने अपने शत्रुओं को आमूल नष्ट कर दिया, जिसकी वीरता का यश जंगल में महाग्नि के समान अब भी इस पृथ्वी को छोड़ने को तैयार नहीं है।।2।।

‘जिसने अपनी भुजाओं के बल से इस पृथ्वी पर एकछत्र राज्य अनेक वर्षों किया, जिसका मुख पूर्ण चंद्र के समान सुशोभित था, उस राजा चंद्र ने विष्णु की भक्ति में दत्तचित होकर विष्णुपद गिरि पर भगवान विष्णु का यह विशाल ध्वज स्थापित किया ।।3।। “

यह बात स्पष्ट है कि मौजूदा स्थान वह नहीं हो सकता, जहां यह लाट पहले लगी हुई थी। अनुमान यह है कि राजा अनंगपाल, जिसने दिल्ली को बसाया, इस स्तंभ को बिहार से यहां लिवा लाया। सैकड़ों मील की दूरी से इतने वजनी स्तंभ को लाना भी कोई आसान बात नहीं है, खासकर उस जमाने में, जब साधन बहुत सीमित थे। कुछ का कहना है कि लाट को मथुरा से लाया गया था।

ढोली से हुआ दिल्ली का नामकरण

इसी लाट पर से दिल्ली के नामकरण संस्कार का पता चला है। कहते हैं कि जब महाराज अनंगपाल ने अपनी राजधानी बनाई तो इस कीली को मंदिरों के बीच के स्थान में गड़वाया। अनंगपाल का नाम, जो बेलानदेव के नाम से विख्यात था और तोमर वंश का था, लाट पर ख़ुदा हुआ है और विक्रमी संवत 1109 दिया हुआ है, जो 1052 ई. होता है। कथा है कि किसी ब्राह्मण ने वचन दिया था कि इस स्तंभ को यदि ठीक तरह शेषनाग के सिर पर मजबूती से गाड़ दिया जाएगा तो जिस तरह यह स्तंभ अटल रहेगा, उसका राज्य भी अटल रहेगा। स्तंभ को गाड़ दिया गया, मगर राजा को विश्वास नहीं हुआ कि वह शेषनाग के सिर पर पहुंच गया है। उसने कोली को उखड़वाकर देखा और उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने यह देखा कि कीली का निचला सिरा खून से भरा था, जो शेषनाग का था। राजा घबरा गया। उसने कीली को फिर से उसी तरह गाड़ने को कहा, मगर वह पहली तरह मजबूती के साथ गड़ न सकी, ढीली रह गई। इसका यह दोहा विख्यात है :

कोली तो ढोली भई, तोमर भया मतहीन।

इसी ढीली पर से कालांतर में दिल्ली नाम पड़ गया। कवि चंदवरदाई ने भी पृथ्वीराज रासो में इस घटना का उल्लेख करते हुए कीली ढोली की कथा लिख डाली है। रियासत ग्वालियर का खरग भाट इस घटना का वर्ष 736 ई. देता है। चंद कवि के अनुसार, अनंगपाल द्वितीय ने व्यास से अपने पोते की पैदाइश का मुहूर्त दिखवाया था। व्यास ने कहा कि मुहूर्त बहुत शुभ है, उसके राज्य को कोई भय नहीं होगा क्योंकि उसके राज्य की जड़ शेषनाग के फन तक पहुंची है। राजा को उसकी बात का विश्वास नहीं हुआ, तब व्यास ने लोहे की एक सलाख ली और साठ उंगल उसे जमीन में गाड़ा और वह शेषनाग के फन तक पहुंच गई और बाहर निकालकर राजा को दिखाया, तो उसके निचले सिरे पर खून लगा हुआ था। ब्राह्मण ने कहा कि चूंकि राजा ने उसकी बात पर यकीन नहीं किया, इसलिए उसका राज सलाख की तरह डगमगा गया है और यह कहा :

व्यास जग जोती (ज्योतिषी) यों बोला ये बातें होने वाली है

तोमर तब चौहान और थोड़े दिनों में तुरक पठान।

यह भी संभव है कि यह स्थान, जहां कीली गाड़ी गई, पूर्व काल में खांडव वन का भाग रहा हो और यहां नागवंश वाले रहते हों। यहां शेषनाग नाम की कोई शिला हो, जिस पर कीली गाड़ी गई हो या यहां फिर सांप बढ़ गए हों और उनका राजा शेषनाग वहां रहता हो। इस स्थान को इंद्र का शाप तो था ही, इसलिए कीली ढीली रह गई हो, यह भी संभव है।

चंद कवि का यह भी कहना है कि इस लाट को राजा अनंगपाल ने ही बनवाया था। वह कहता है कि राजा ने सौ मन लोहा मंगवाकर उसे गलवाया और लोहारों ने उसका पांच हाथ लंबा खंभा बनाया।

यह लाट किस धातु की बनी हुई है, इसके लिए जुदा-जुदा राय हैं। कुछ का कहना है कि यह ढले हुए लोहे की बनी है। कुछ इसे पंचरस धातु पीतल, तांबा आदि से बना बताते हैं। कुछ इसे सप्त धातु से बना कहते हैं। कुछ इसे नम लोहे का बना कहते हैं। डा. टोमसन ने इसका एक टुकड़ा काटकर उसका विश्लेषण किया था। उनका कहना है कि यह केवल गर्म लोहे की बनी हुई नहीं है, बल्कि चंद मिश्रित धातुओं से बनी है, जिनके नाम भी उन्होंने दिए हैं।

यह लाट 23 फुट 8 इंच लंबी है। 22.5 फुट जमीन की सतह से ऊपर और करीब चौदह इंच जमीन के अंदर गड़ी हुई इसकी जड़ लट्टू की तरह है, जो छोटी-छोटी लोहे की सलाखों पर टिकी हुई है और स्तंभ को सीसे से पत्थर में जमाया हुआ है। इसकी बुर्जीनुमा चोटी साढ़े तीन फुट ऊंची है, जिस पर गरुड़ बैठा था और लाट का सपाट हिस्सा 15 फुट है। इसका खुरदरा भाग 4 फुट है। इसका नीचे का व्यास 16. 4 इंच है और ऊपर का 12.5 इंच। इसका वजन 100 मन के करीब आंका जाता है। इस स्तंभ को दो बार बरबाद करने का प्रयत्न किया गया है। कहा जाता है कि नादिर शाह ने इसे खोदकर फेंक देने का हुक्म दिया, लेकिन मजदूर काम न कर सके। सांपों ने आकर घेर लिया। एक भूचाल भी आया। दूसरी बार मराठों ने, जब उनका दिल्ली पर कब्जा था, इस पर एक भारी तोप लगा दी, मगर उससे भी कुछ नुकसान नहीं हुआ। गोले का निशान बाकी है। यह लाट प्रायः सहस्र वर्ष से अपनी जगह खड़ी है, मगर इसकी धातु इतनी अच्छी है कि इस पर मौसम की तब्दीली का कोई प्रभाव न पड़ सका।

लोहे की लाट और कुतुब मीनार के बारे में समय-समय पर भिन्न-भिन्न विचार प्रकट होते रहे हैं कि इन्हें किसने और कब बनाया, मगर अभी तक कोई निश्चयात्मक बात कायम नहीं हो सकी। पिछले दिनों महरौली के रहने वाले एक शिक्षक मायाराम जी से मेरा मिलना हो गया, जो कई वर्ष से इसी खोज में लगे हुए हैं कि इन दोनों को बनाने का हेतु क्या था। लोहे की कीली के बारे में उनकी यह राय है कि यह किसी दूसरी जगह से नहीं लाई गई। यह शुरू से ही यहीं लगी हुई है। कोली लगने और उखड़ने और फिर से लगने के पश्चात उस पर से दिल्ली नाम पड़ने की जो रिवायत मशहूर है, वह इस कीली के बारे में नहीं है।

उनका कहना है कि तोमर वंशी राजपूतों ने जब दिल्ली बसाई तो वह इंद्रप्रस्थ के भिन्न-भिन्न भागों में किले बनाकर रहा करते थे। मुमकिन है कि अनंगपाल प्रथम ने, जैसा कि कहा गया है, दिल्ली के पुराने किले में ही आबादी की हो, जिसे इंदरपत कहा जाता था और बाद में उसके वंशज दिल्ली को किन्हीं कारणों से दरिया के किनारे से हटाकर पहाड़ी इलाके में अड़गपुर ले गए हों, क्योंकि खांडव वन का इलाका वहीं था, और कुछ सदियों बाद उसे फिर नदी के किनारे किलोखड़ी स्थान पर बसाया हो; क्योंकि उनके मत के अनुसार लोहे की कीली की मशहूर रिवायत इस किलोखड़ी के बारे में प्रचलित हुई होगी जैसा कि नाम से पता लगता है कि कील+ उखड़ी- किलोखड़ी।

उनका कहना है चंद कवि ने यह जो कहा है कि ‘इस लाट को अनंगपाल ने ही बनवाया था, इसे राजा ने सौ मन लोहा मंगवाकर गलवाया और लोहारों ने उसका पांच हाथ लंबा खंभा बनाया’, मौजूदा लाट के संबंध में नहीं हो सकता, क्योंकि न तो यह सौ मन की आंकी गई है और न पांच हाथ लंबी है बल्कि उस जमाने में, जैसा कि रिवाज था, अनंगपाल राजा ने ज्योतिषियों के कहने पर सौ मन लोहे की एक कीली बनवाकर नगर बसाने से पूर्व उसे धरती में गड़वाया होगा और जब ज्योतिषी ने बताया कि वह शेषनाग के फन पर पहुंच गई तो विश्वास न आने के कारण उसे उखड़वाकर देखा गया होगा, जिस पर से स्थान का नाम किलोखड़ी पड़ा और फिर उसे गड़वाने पर जब वह ठीक जगह न बैठकर ढीली रह गई होगी तो किलोखड़ी को ढीली किलोखड़ी कहने लगे होंगे, जिस पर से होते-होते दिल्ली का नाम प्रचलित हो गया होगा।

किलोखड़ी से हटाकर दिल्ली महरौली में लाई गई होगी। उनका तो यह कहना है कि ये कोई अलहदा स्थान न थे, बल्कि मिले-जुले थे। अनंगपाल ने जो लालकोट के अंदर दिल्ली बसाई बताते हैं वहां तो मंदिर थे और मंदिरों में चूंकि उस वक्त बेशकीमती जवाहरात, सोना आदि धन रहता था, इसलिए उस सबकी रक्षा के लिए किला बनाया होगा। इसको बढ़ाकर पृथ्वीराज ने रायपिथौरा का किला बना लिया। शिक्षक महोदय के मत के अनुसार कैकबाद ने जब किलोखड़ी में दिल्ली बसाई, जो नया शहर कहलाया, तो वह दिल्ली कुछ नई न होगी, बल्कि पुरानी इमारतों को ही ठीक करके उसने अपने लिए किला और महल बना लिया होगा। इसी तरह उनकी राय में जब तुगलक ने तुगलकाबाद का किला बनाया तो वहां भी पहले से किला रहा होगा, क्योंकि इतना बड़ा किला और शहर दो वर्ष में बना लेना असंभव था। यह कहना कि उसके किलों को जिन्न बनाते रहे, महज गप्प है।

मौजूदा कीली के बारे में उन्होंने जो कुछ कहा, वह इस प्रकार है- यह कीली शुरू से ही यहां थी और मुमकिन है कि इसे राजा चंद्र ने बनवाकर यहीं लगवाया हो। उसने एक तालाब बनवाया, जो क्षीर-सागर कहलाता था और उस तालाब में विष्णु भगवान शेषशायी का मंदिर बनवाया, जो शेषनाग पर शयन कर रहे थे और जो हजार फन से भगवान पर साया किए हुए थे। यह कीली उस मूर्ति का ही भाग रहा होगा और इसके ऊपर चतुर्मुखी ब्रह्मा बैठे होंगे।

जब मुसलमानों ने दिल्ली पर विजय पाई तो यहां सीरी में राजपूतों की एक कौम सहरावत रहा करती थी, जो पृथ्वीराज को बड़ी वफादार थी। उन्होंने यह सुना हुआ था कि मुसलमान मंदिर गिराते और मूर्तियों को तोड़ते चले आ रहे हैं। यह मूर्ति मुसलमानों के हाथों में न पड़े, इस विचार से वे उसे यहां से निकालकर रातों-रात मथुरा की तरफ भागे। होडल- पलवल के बीच पलवल से परे वे यमुना के किनारे एक गांव में पहुंचे। मूर्ति बहुत भारी थी। उसे वे पार न ले जा सके। वहां वे जंगल में घुस गए और उन्होंने एक टीले के नीचे मूर्ति को छुपा दिया। घाट पर जो ब्राह्मण रहते थे, उनसे यह कह दिया कि उनका पता किसी को न बताया जाए। पीछा करते हुए मुसलमान वहां पहुंचे और घाट वालों से उनका पता पूछा। उन्होंने कह दिया कि वे लोग तो यमुना पार चले गए। इस बात को सुनकर मुसलमानों ने उन सब लोगों को कत्ल कर डाला।

वे सहरावत यमुना के खादर में मूर्ति को छुपाकर खुद वहां बस गए और उस गांव का नाम खीरवी रखा। यह गांव आज भी वहां आबाद है। सहरावत ही वहां रहते हैं। कालांतर में लोग मूर्ति की बात भूल गए। बाद में इसी खानदान में दो व्यक्ति राघोदास और रामदास हुए, जिन्हें कोढ़ हो गया। वे बहुत दुखी थे। अंग गल गए थे, चलना भी कठिन था। उन्होंने जगन्नाथपुरी जाकर प्राण छोड़ने का विचार किया। चला तो जाता न था। घुटनों के बल घिसटते घिसटते चल पड़े। कुछ दूर जाकर उन्हें एक बूढ़ा मिला। पूछा कि कहां जा रहे हो? उन्होंने अपना उद्देश्य बताया। तब बूढ़े ने कहा कि जगन्नाथ वह ही है, उन्हें वहां जाने की जरूरत नहीं। उसका भाई पोढ़ेनाथ हिरनोटा की मिट्टी के ढेर में दबा पड़ा है। वे उसे निकालकर उसकी स्थापना करें और पूजा करें, तो उनका कोढ़ दूर हो जाएगा। उस टीले की पहचान यह है कि उस पर यदि काली गाय जाकर खड़ी हो जाएगी तो उसके दूध की धार स्वतः ही उस टीले पर गिरने लगेगी। यह आदेश पाकर दोनों बूढ़े लौट गए और उस टीले की तलाश करने लगे। जैसा बताया था, वैसा ही हुआ। तब उसे खोदकर मूर्ति बाहर निकाली गई और उसे स्थापित कर दिया गया।

खीरवी में शेषशायी भगवान का मंदिर है। वहां जो मूर्ति है, वह यही है या कोई और, इसकी अभी तक जांच नहीं की गई, मगर कोई उसको काले पत्थर की बताता है तो कोई अष्ट धातु की। मगर मूर्ति अवश्य है और यह कथा भी प्रचलित है।

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