1893 ई. में फ़ारसी के स्थान पर उर्दू सरकारी भाषा के रूप में प्रयुक्त होने लगी। इससे उर्दू का स्तर ऊंचा हो गया और उसके साथ ही यह दिन-ब-दिन संवरती और निखरती रही और नए-नए शब्दों की इसमें वृद्धि होती गई। उर्दू की वर्णमाला वही है जो अरबी और फ़ारसी की है मगर उसमें कुछ ध्वनि-संबंधी संशोधन-परिवर्धन कर लिए गए जो उर्दू के लिए इस देश की लोकप्रिय भाषा बनने के प्रयोजन से आवश्यक थे। शिक्षित जन तथा जन-साधारण दोनों इस्लामी देशों में प्रचलित लिपि का ही प्रयोग करते रहे।
सदियों तक इस्लामी संस्कृति हमारे देश में मानव कार्य व्यापार की प्रत्येक शाखा को प्रभावित करती रही है। लेकिन ख़त्ताती (सुलेख कला) और खुशखती पर विशेष रूप से इसका बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है और इस देश में यह कला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई। आज सुलेख कला पर पुस्तकालयों में बड़ी दुर्लभ और बहुमूल्य पांडुलिपियां और पुस्तकें उपलब्ध हैं जिनमें न केवल इस पर विस्तृत टीकाएं शामिल हैं बल्कि हिन्दुस्तान और अन्य देशों के ऐसे दुर्लभ नमूने मिलते हैं कि आंखें चकित रह जाती हैं।
इन पांडुलिपियों पर शाही पुस्तकालयों की मुहरें लगी हुई हैं। कई बादशाहों के हस्ताक्षर मिलते हैं जिनमें इस कला के उत्थान और उसे महत्त्व का पता लगता है। इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि बादशाह और विद्वज्जन इस कला में और पुस्तकों के मुद्रण में कितनी गहरी रुचि लेते थे। प्रसिद्ध खत्तातों (सुलेखकों) की लिखावटों के दुर्लभ नमूने बादशाहों, नवाबों और विद्वानों के निजी संग्रहों और विश्वभर के संग्रहालयों तथा पुस्तकालयों में भी मिलते हैं।
इत्मान तुर्कों ने खत्ताती का इस्तेमाल वास्तुकला, पत्थरों पर खुदाई, ईंटों और टाइलों की सजावट और लकड़ी तथा धातु के कामों में भी बहुत किया है। हिन्दुस्तान में भी शासकों ने एक के बाद दूसरे और विशेषकर मुग़लों ने इसका अनुसरण करके इस कला का ऐसे ही प्रयोग किया है। खत्ताती की छह परंपरागत शैलियों में से ‘शश- क़लम’ की, जो बड़ी सुंदर शैली है, का दिल्ली की कुतुबमीनार की दीवारों पर इस्तेमाल किया गया है। इस ख़त का प्रयोग दिल्ली के पुराने क़िले की मस्जिद की मेहराबों में भी मिलता है। वक़्त के गुजरने के साथ-साथ हिन्दुस्तानी ख़ुशनवीसों ने इसमें अपने कुछ सुखद परिवर्तन कर लिए और शेरशाह सूरी के जमाने में बिहारी लिपि का प्रचलन हुआ और वह दूर-दूर तक फैल गई।
पंद्रहवीं सदी में ईरान में एक अहम बात हुई कि ‘तालीक’ (लिखावट) की एक और खुशनुमा क़िस्म खोज ली गई। खुद तालीक ‘रिकाअ’ और ‘तौकीअ’ लिखावटों से प्रभावित हुई। उस नई शैली या लिखावट को ‘नस्तालीक’ का नाम दिया गया और मीर अली तब्रेजी उसके संस्थापक समझे जाते हैं। इससे पहले ईरान में ही तौकीअ और रिकाअ के मिश्रण से एक सातवीं शैली का आविष्कार हुआ था। तालीक़ इसी सातवीं लिखावट का नाम था। यह ‘हफ़्त क़लम’ या ‘हफ़्त खत’ भी कहलाता है। अब सात ख़तों (लिखावटों) के नाम ये थे-सल्स, रेहान, तौक्रीअ, मुहक़्क़क़ नस्ख, रिकाअ और नस्तालीक़ । अगर तालीक़ को एक अलग ख़त के तौर पर माना जाए तो आठ खत प्रचलित समझे जाएँगे। खत-ए-मुअक़्क़ली और ख़त-ए-कूफ़ी तो बुनियादी ही नहीं इन सातों ख़तों की जड़ें हैं।
खत्ताती के श्रेष्ठ उदाहरणों में जो आज भी देखे जा सकते हैं, नीचे दिए गए उल्लेखनीय हैं-
देवल रानी, अमीर खुसरो का खिज खां, बाबरनामा, तुजुक्र-ए-बाबरी का फारसी अनुवाद, जहांगीर की आत्मकथा तुज़ुक़-ए-जहांगीरी और तारीख-ए- खानदान-ए-तैमूरिया।
नस्तालीक़ के अलावा हिन्दुस्तानी ख़ुशनवीसों ने अपनी ईजाद की हुई शैलियां भी अपनाईं। इन खतों के नाम ये हैं-गुगार, तुग़रा ज़ुल्फ़-ए-उरूस, शिकस्ता और गुलजारा। कहते हैं कि अमीर ख़ुसरो ने कुरान शरीफ़ नक़ल करने के लिए एक माहिर ख़ुशनवीस को लगाया। उसने उसे ‘गुबार’ यानी मिट्टी के कणों से लिखा और हरूफ (अक्षर) इतने छोटे बनाए कि सारा कुरान शरीफ़ एक मुहरबंद छल्ले में आ गया। लेकिन अमीर खुसरो ने उसे स्वीकार नहीं किया और उसका दिल टूट गया।
‘तुगरा’ का इस्तेमाल इत्मानों ने बहुत किया। मुगलों ने भी इसका इस्तेमाल साज-सज्जा वाली कृतियों में और ‘बिस्मिल्लाह इर्रहमान इर्रहीम’ से गरुड़ का चित्र बनाने में किया। हिन्दुस्तानी ख़ुशनवीसों ने ‘जुल्फ़-ए-उरूस’ के ख़त को खूब निख़ारा, संवारा और उसकी विशेषता यह थी कि उसमें हरुफ़ मोटी लकीर में लिखे जाते थे और आखिर में उन्हें किसी दुलहन की जुल्फ़ों के छोटे-छोटे घुंघरूओं की तरह मोड़ दिया जाता था। इनमें सबसे अहम ‘ख़्त-ए-शिकस्ता था। इसका असल आविष्कारक हिरात का एक ख़ुशनवीस शफ़ी बताया जाता है। मगर हिन्दुस्तान में इसको इतना संवारा और निखारा गया कि इसे हिन्दुस्तानी ख़ुशनवीसों की ईजाद कहना भी गलत न होगा।
‘गुलज़ार’ ख़त की खासियत यह थी कि हरुफ को ऊपर और नीचे लंबी और मोटी लकीरें डालकर बनाया जाता था और बीच की खाली जगह में बेल-बूटे बना दिए जाते थे, भूमिति की आकृतियां और नमूने, शिकार के दृश्य, चिह्न, चित्र और दूसरी लिपियां और मुग़ल खुशनवीसों की बड़ी सरपरस्ती करते थे और कला प्रवीणों को उपाधियों से सम्मानित करते थे। बेशतर मुग़ल बादशाह खुद भी उच्च कोटि के खुशनवीस थे। मुग़लों के काल की कुछ उपाधियां ये थीं-याकूत रक्कम, शीरीं क़लम और जवाहर क़लम याकूत आदि।
दरअसल जवाहर कलम याकूत खलीफा अब्बासी के दरबार में ख़त्तात था और उसने एक नया ख़त, जिसका नाम याकूती था, ईजाद किया। वह अपने कलम के खत को इस तरह तराशता था कि लफ़्ज़ टेढ़े लिखे जाते थे और उनमें एक नया और खूबसूरत रूप उभर आता था। याकूत रक्कम सर्वश्रेष्ठ उपाधि समझी जाती थी। सबसे पहले वह शाहजहां के दरबार में ख़ुशनवीस अब्दुल्ला को मिली थी। उसके बाद यह उपाधि बहादुरशाह के दरबार में खत्तात आरिफ़ को मिली थी।
प्रसिद्ध मुस्लिम खुशनवीसों के अलावा बहुत से हिन्दू खुशनवीस भी हुए हैं। ख़ास तौर पर दिल्ली में उनकी तादाद हर दौर में काफ़ी ज़्यादा रही। उनमें अधिकतर कश्मीरी पंडित और कायस्थ होते थे। ये दोनों उर्दू और फ़ारसी के बड़े शौक़ीन होते थे और उनका मुसलमानों के साथ उठना-बैठना भी बहुत था। लच्छीराम, सुखराम, महबूब राज और औरंगज़ेब के दरबार में कुसलसिंह सिर्फ़ कुछ हिन्दू प्रतिष्ठित खुशनवीसों के नाम हैं।
खुशनवीसी और ख़त्ताती की कला बाद के मुगलकाल में बहुत फली फूली दरअसल हिन्दुस्तान में यह फ़न मुगलों के साथ ही आया। बेशतर मुग़ल बादशाह खुद उच्च कोटि के खत्तात थे। अकबर के दौर में इस कला की बड़ी उन्नति हुई। उस ज़माने के मशहूर ख़ुशनवीसों में मुल्ला अब्दुर्रहीम अंबरी रक़म ख़्वाजा अब्दुस्समुद शीरीं रक्कम, मुहम्मद हुसैन कश्मीरी ज़र्री-रक्रम उल्लेखनीय हैं। जहाँगीर के समय में मुहम्मद शरीफ़ शीरीं रक्कम, काजी अहमद ग़फ़्फ़ारी और अहमद अली अरशद मशहूर ख़ुशनवीस थे। शाहजहाँ इस फ़न का बड़ा कद्रदान था। वह खुद भी नस्तालीक़ खत का माहिर था। उसके दौर में ख़त्ताती के फ़न ने असाधारण उन्नति की। उसके प्रधानमंत्री सादुल्लाह खाँ ने ख़त-ए-शिकस्ता में प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। दिल्ली के लाल क़िले के शाही महल या दीवान-ए-ख़ास में संगमरमर की तख्तियों पर सादुल्लाह खाँ का मशहूर कत्या (शिलालेख) नामवर खुशनवीस रशीद का लिखा हुआ है-
अगर फिरदौस बरू-ए-जमीं अस्त हमीं अस्त-ओ-हमीं अस्त-ओ-हमीं अस्त
हरम की औरतों में भी बड़ी उम्दा खुशनवीस होती थीं। उनमें से एक लाडो बेगम थी जिसको प्रश्रय जहाँआरा बेगम देती थीं। जहाँआरा ख़ुद लाडो बेगम की लिखावट पर दस्तख़्त करके उन्हें शाही पुस्तकालयों में रखवा देती थीं। दरअसल अब वह समय आ गया था कि किसी भी धनाढ्य व्यक्ति का ख़ुशखत होना उसकी उच्च सभ्यता और कुलीनता का प्रतीक समझा जाता था। शाहजहाँ के उस समय तक के उत्तराधिकारी दारा शुकोह का ख़त भी बहुत ख़ुशनुमा था और उसे हाथ की लिखी हुई चीजें, जो बहुत दुर्लभ हैं, लाल क़िले के अजायबघर में देखी जा सकती हैं। सादगी पसंद और दरवेशों के-से स्वभाव वाला औरंगजेब भी ख़त-ए-नस्ख का माहिर था और उसने क़ुरान मजीद को उसी शैली में नक़ल किया था। शाहजहाँ के काल में खुशनवीसों में अब्दुल बाक़ी याकूत रक्रम, मीर मुराद कश्मीरी, मुहम्मद मोमिन और चंदभान ब्राह्मण शामिल थे। औरंगज़ेब ने अपने नक़ल किए हुए कुरान शरीफ़ की प्रतियाँ मस्जिद-ए-नबवी में बतौर नर्ज रखवा दी थीं। उसके समय के खुशनवीसों में मुहम्मद इस्माईल रौशन क़लम और मिर्ज़ा मुहम्मद विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
बाद के मुग़ल बादशाह फ़र्रुखसियर, मुहम्मद शाह रंगीला, आलमगीर द्वितीय, शाह आलम और अकबरशाह द्वितीय भी ख़त्ताती की कला के संरक्षक रहे हैं। उनके काल के खुशनवीसों ने हर शैली में लिखा। शिकस्ता में और नस्ख, तालीक, नस्तालीक़ सुल्स, शफ़ी और रेहान में उनकी लिखावट के नमूने हमारे संग्रहालयों और पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं।
अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह द्वितीय एक उच्च स्तर का विद्वान और ख़त्तात था। उसने ख़त-ए-गुलज़ार में कमाल हासिल किया। उसकी माकूस (अधोमुख) शैली में ख़त्तात के नमूने जिन्हें आईने की मदद से पढ़ा जाता है, आँखों को आलोक प्रदान करते हैं। यह उम्दा ख़त मुहम्मद अमीर रिजवी ने जो कई कलाओं में प्रवीण था और मीर पंजाक़श के नाम से ज़्यादा मशहूर है, ईजाद किया था। बहादुरशाह ज़फ़र भी उच्चकोटि का खुशनवीस था और ख़त-ए-नस्ख का माहिर था। उस समय के दिल्ली के अधिकांश खुशनवीसों ने उससे कुछ-न-कुछ सीखा था और उसके अपने शागिर्दों की तादाद बहुत थी।