साहित्यिक गलियारे में चर्चा का विषय बनी घटना

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Delhi: आजादी के बाद एक तरफ जहां दिल्ली में निर्माणकार्यों पर ध्यान दिया जा रहा था तो दूसरी तरफ कलाओं के प्रोत्साहन के लिए साहित्य, संगीत-नाटक और चित्रकला को ध्यान में रखकर दिल्ली में साहित्य, संगीत-नाटक और ललित अकादमियों की स्थापना हुई। शहर के बीचोबीच मंडी हाउस पर ‘रवीन्द्र भवन’ बना जिसमें तीनों अकादमियाँ एक-दूसरे के सान्निध्य में सक्रिय हुई। यह महज संयोग नहीं है कि जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं साहित्य अकादमी के पहले अध्यक्ष का पद संभाला।

यह तथ्य देश के प्रथम प्रधानमन्त्री की मानसिक बनावट और सांस्कृतिक रुझान को समझने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने इन अकादमियों का प्रशासनिक तन्त्र भी इस ढंग से बनाया कि इनकी दैनंदिन गतिविधियों में सरकारी हस्तक्षेप न हो और इनकी स्वायत्तता बनी रहे। यह बात अलग है कि जिन्होंने बाद में उनकी जगह ली, उन्होंने इस अधिकार का उपयोग कैसे, किस रूप में किया।

निर्मला जैन अपनी पुस्तक दिल्ली: शहर दर शहर में लिखती हैं कि एक विचित्र घटना तब घटी जब यशपाल की प्रसिद्ध कृति ‘झूठा सच’ का नाम साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए प्रस्तावित होने की सम्भावना पैदा हुई। दिनकर जी इस प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। बाक़ी दो निर्णायक अपनी बात पर अड़े थे।

सुना गया कि जब दिनकर जी की किसी तरह नहीं चली तो उन्होंने यह धमकी देकर अपनी बात मनवा ली कि अगर निर्णय ‘झूठा सच’ के पक्ष में हुआ तो वे भरी सभा में इसका विरोध करेंगे और ज़रूरत पड़ने पर उपन्यास के उन अंशों का पाठ करेंगे जहाँ कांग्रेस की मुखर आलोचना की गई है।

धमकी काम कर गई क्योंकि उन दिनों जवाहरलाल नेहरू स्वयं सभा की अध्यक्षता करते थे और अकादमी की गतिविधियों में पूरी रुचि लेते थे, अन्ततः पुरस्कार उस वर्ष भगवतीचरण वर्मा के ‘भूले बिसरे चित्र’ को दे दिया गया। इस घटना की जानकारी मुझे खुद निर्णायकों में से ही एक के मुँह से हुई, इस टिप्पणी के साथ कि ज़रूरी नहीं था कि जवाहरलाल नेहरू ने उन अंशों को सुनकर ‘झूठा सच’ का विरोध ही किया होता, पर खतरा तो नहीं लिया जा सकता था।

मुझे लगा कि वे नेहरू जी से कम दिनकर जी की गर्जन-तर्जन वाली शैली से ज़्यादा आशंकित थे। उन दिनों राजनीतिज्ञ हलकों में दिनकर जी का बहुत दबदबा था।

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