लेखक – डॉ. सुशील कुमार सिंह
वरिष्ठ स्तंभकार और प्रशासनिक चिंतक
One Nation One Election: भारत में हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। मौजूदा समय में देखें तो लोकसभा के साथ आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के विधानसभा के चुनाव संपन्न कराए जाते हैं। जबकि 28 राज्यों में 23 राज्य और 2 केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी और दिल्ली के चुनाव अलग-अलग समय में होते हैं। खास बात यह भी है कि लोकसभा चुनाव के छह महीने पहले छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश और तेलंगाना का चुनाव हो चुका है। इस साल अप्रैल-मई में लोकसभा का चुनाव होगा। इतना ही नहीं, लोकसभा चुनाव के 6 महीने बाद महाराष्ट्र और हरियाणा का चुनाव होना है। यदि इन राज्यों को लोकसभा के साथ जोड़कर चुनाव कराया जाए तब भी कम से कम ये छह राज्य एक चुनाव में आ सकते हैं। कहा जाए तो देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है।
सितंबर 2023 को मोदी सरकार ने ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लेकर एक कदम और तब बढ़ा दिया जब विधि मंत्रालय ने पूर्व राश्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित कर दी। कमेटी में सात अन्य सदस्य भी शामिल हैं। ‘एक देश, एक चुनाव’ की वकालत स्वयं प्रधानमंत्री मोदी 2020 में पहले ही कर चुके हैं। हालांकि साल 1983 में भारत निर्वाचन आयोग ने एक चुनाव कराने का प्रस्ताव दिया था जिसका जिक्र विधि आयोग की 1999 की रिपोर्ट में भी है। इसके पीछे सबसे बड़ा तर्क चुनावी खर्च को बचाने को माना जा रहा है।
गौरतलब 1951-52 के चुनाव में जहां 11 करोड़ रुपए खर्च हुए थे, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा 60 हजार करोड़ की भारी-भरकम राशि के खर्च से भरा हुआ है। इसके अलावा 28 राज्यों और दो केंद्र शासित अर्थात् दिल्ली और पुदुचेरी के विधानसभा चुनाव भी अलग-अलग खर्चों से पटे हैं। जाहिर है कि संरचनात्मक व तकनीकी तौर पर चुनाव आयोग को सशक्त करने के साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराना मशीनरी, समय और खजाना तीनों की सेहत के लिए ठीक हो सकता है।
वैसे ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ कोई नई बात नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे। 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले भंग हो गई और लोकसभा भी समय से पहले 1970 में भंग हो गई। फलस्वरूप ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की परंपरा यहीं से बिखर सी गई। अलबत्ता 1999 की विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि हर साल और सत्र के बाहर चुनाव के चक्र को समाप्त किया जाना चाहिए।
2015 की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी एक चुनाव करने की व्यावहारिकता पर अपनी राय मुखर की जिसमें समिति ने भारी खर्च, आचार संहिता को बनाए रखना, आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति पर प्रभाव और चुनाव के दौरान मानव श क्ति पर अतिरिक्त बोझ पड़ना आदि की पहचान की थी। 2018 की विधि आयोग की रिपोर्ट में एक साथ चुनाव एक बेहतर मसौदा था। इसमें कहा गया कि संविधान के मौजूदा ढांचे के तहत एक साथ चुनाव नहीं कराए जा सकते। संविधान, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 और लोकसभा व राज्य विधानसभाओं की प्रक्रिया के नियमों में उचित संशोधन के मामले में एक साथ चुनाव कराए जा सकते हैं। आयोग ने यह भी सुझाया था कि कम से कम 50 फीसद राज्यों को संवैधानिक संशोधनों की पुष्टि करनी चाहिए।
फिलहाल लगभग लोकसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े देश में एक साथ चुनाव की बात जोर ले चुकी है। मानसून सत्र के दौरान केंद्रीय कानून मंत्री ने कहा था कि एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83, 85, 172, 174 और 356 में संशोधन करना होगा। एक साथ चुनाव के फायदे अनेक हैं मगर क्या इसका कोई नुकसान भी हो सकता है। ऐसा माना जा रहा है कि लोकसभा के चुनाव के अलग एजेंडे होते हैं जबकि विधानसभा के चुनाव के लिए अलग चुनौतियां होती हैं। इसमें क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है।
दक्षिण अफ्रीका, स्वीडन व बेल्जियम जैसे कई देश एक साथ चुनाव कराते हैं। कुछ देश तो संसद से लेकर नगरपालिका तक एक ही साथ चुनाव में रहते हैं। जर्मनी, फिलिपींस और ब्राजील जैसे देश भी एक साथ चुनाव कराते हैं। ऐसे में संविधान की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए ही एक साथ चुनाव वाली अवधारणा को जमीन पर उतारना उचित होगा। वैसे ज्यादातर संविधानविद भारतीय संदर्भ में इस प्रस्ताव को जमीन पर उतारने को आसान नहीं मानते हैं।
लेखक – डॉ. सुशील कुमार सिंह