swami shailendra saraswati
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कैसे अपने विराट स्वरूप को पहचानकर आप जीवन के उतार-चढ़ावों से अप्रभावित रह सकते हैं।

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने साधकों से बातचीत के दौरान कहा कि हमारा जीवन छोटी-छोटी घटनाओं, प्रशंसा के क्षणों और निंदा के आघातों से भरा है। जब कोई तारीफ करता है, तो हमारा सीना फूल जाता है; जब कोई गाली देता है, तो हम तुरंत उत्तेजित हो जाते हैं। दरअसल, एक साधक ने स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती से यही सवाल पूछा था: जीवन की अच्छी और बुरी दोनों तरह की स्थितियों में शांत और अप्रभावित कैसे रहा जाए? स्वामी जी ने इसका रहस्य बताया—स्वयं को लहर के बजाय सागर समझना।

स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने कहा कि यदि आप स्वयं को केवल यह तन, यह मन, ये विचार, ये भावनाएँ मानते हैं, तो आप एक छोटी सी लहर के समान हैं, जिस पर हवा और किनारे का हर टकराव प्रभाव डालेगा। लेकिन यदि आप अपने विराट स्वरूप को पहचान लेते हैं, जो कि आपका श्रेयस्कर और जन्मजात स्वभाव है, तो फिर बाहर की कोई भी चीज़ आपको प्रभावित नहीं कर सकती।

शांत रहने का सूत्र: स्वयं को लहर नहीं, सागर जानो

स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती ने विराट स्वरूप को समझने के लिए दो शक्तिशाली उपमाएँ दी हैं:

1. आकाश की उपमा: शून्यता और अप्रभावितता

आकाश कितना विशाल है! यदि कोई फूल या पत्थर आकाश की ओर फेंका जाता है, तो क्या आकाश प्रसन्न या नाराज़ होता है?

  • फूल ऊपर जाता है और वापस आ जाता है, लेकिन आकाश प्रसन्न नहीं होता।
  • पत्थर वापस आता है, लेकिन आकाश पर कहीं निशान भी नहीं पड़ता।

यह उपमा बताती है कि आकाश इतना विराट है कि उस पर किसी भी क्रिया या प्रतिक्रिया का कोई फर्क नहीं पड़ता। सारी गतियाँ (चाहे वे प्रशंसा हों या निंदा) उसी आकाश में होती हैं, लेकिन आकाश उनके कारण स्वयं में कोई परिवर्तन नहीं करता।

शांत रहने का सूत्र:

हमारा वास्तविक स्वरूप उस आकाश की तरह है—असीम, विराट और शून्यता से भरा हुआ। हम शरीर या मन की लहरों से पहचान कर लेते हैं जो क्षणभंगुर हैं, लेकिन हम वास्तव में वह असीम आकाश हैं जिसमें ये लहरें उठती-गिरती रहती हैं।

2. सागर की उपमा: असीम गहराई और स्थिरता

जब हम सागर के तट पर जाते हैं, तो हम कहते हैं कि हम सागर देखकर आए। लेकिन वास्तव में, हम क्या देखते हैं?

  • हम केवल ऊपर की सतह पर लहरों को देखते हैं—चार-पाँच फुट की लहरें।
  • हम लहरों को ही सागर मान लेते हैं, जबकि वास्तविक सागर तो पाँच मील से भी अधिक गहरा, विशाल और स्थिर है (जैसे प्रशांत महासागर)।

लहरों का बनना-बिगड़ना हवा पर निर्भर करता है, लेकिन सागर बिना लहरों के भी हो सकता है।

प्रशंसा-निंदा से मुक्ति का सूत्र

तन और मन छोटी लहरों के समान हैं: इनका जन्म हुआ है, ये कुछ काल तक रहेंगी और फिर समाप्त हो जाएंगी। यह छोटी सी लहर समय के सागर में उठी और गिर गई। लेकिन आप वह विराट सागर हैं जो हमेशा था और हमेशा रहेगा।

यदि तुम अपने आप को लहर समझोगे, तो तुम्हें सुख-दुख होगा।

यदि तुम अपने आप को विराट सागर जानोगे, तो तुम निश्चिंत हो जाओगे, क्योंकि सागर को कुछ नहीं होता।

आंतरिक शांति की ओर: धारणा और दृष्टिकोण का बदलाव

अपने विराट स्वरूप को जानना कोई कैसे का सवाल नहीं है, बल्कि यह सिर्फ जानने की बात है। यह हमारा जन्मजात स्वभाव है। हमें केवल अपनी दृष्टि को जो दिखाई देता है (लहरें) उससे हटाकर जो सदा-सदा है (सागर/आकाश) उसकी ओर मोड़ना है।

A. सर्वाधिक महत्वपूर्ण, अदृश्य शक्ति

एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग में, लोगों से कमरे की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ बताने को कहा गया। सबने भौतिक चीज़ें लिखीं, पर एक ने लिखा: “हवा”।

  • दीवार, कैलेंडर, पेंटिंग — ये सभी महत्वपूर्ण नहीं होते, यदि हवा न होती।
  • हवा अदृश्य है, लेकिन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

हमारी चेतना (आत्मा/परमात्मा) भी वैसी ही है—वह अदृश्य है, वह दिखाई नहीं देती, लेकिन वही सर्वोच्च सत्य है। हमारी इंद्रियों का ध्यान केवल उस पर जाता है जो बनता है, बिगड़ता है, या विरोध पैदा करता है (जैसे डार्क मैटर और डार्क एनर्जी से अलग केवल 5% दृश्य जगत)।

B. ‘तथागत’ का भाव: स्वीकार और अप्रतिक्रिया

भगवान बुद्ध के लिए एक शब्द प्रयोग किया जाता है—तथागत, जिसका अर्थ है ‘बस यूँ आए और यूँ चले गए’। उनके आने-जाने से भी बहुत अधिक परिवर्तन महसूस नहीं होता था, वे हवा की तरह थे।

प्रशंसा-निंदा को ऐसे ही देखना है:

  • प्रशंसा आई – स्वीकार
  • निंदा आई – स्वीकार
  • जीवन मिला – स्वीकार
  • मृत्यु आएगी – स्वीकार

परमात्मा या चेतना उस आकाश की तरह है जो प्रार्थना सुनने या प्रतिक्रिया देने के लिए भी इंटरफेयर नहीं करता। यदि वह ऐसा करने लगे, तो वह भी लहरों जैसा हो जाएगा। हमें सर्वस्वीकार की भावना में स्थापित होना है।

व्यावहारिक अभ्यास: चेतना का विस्तार


विपरीत परिस्थितियों में शांत रहने के लिए इस धारणा (पतंजलि द्वारा वर्णित) का अभ्यास करें:

  1. शरीर से अटेंशन हटाएँ: यह शरीर क्षणभंगुर है। इससे थोड़ी दूरी बनाकर देखें।
  2. विश्वव्यापी आत्मा की धारणा: ऐसी भावना करें कि आप सिर्फ इस शरीर के भीतर नहीं हैं, बल्कि यह चेतना (प्रेम, आनंद, संतुलन) सर्वव्यापक है—जैसे हर प्राणी में है, वैसे ही आप में भी है।
  3. आभामंडल (Aura) की कल्पना: कल्पना करें कि आप केवल शरीर के भीतर नहीं, बल्कि शरीर के आसपास फैलते जा रहे हैं, अनंत तक। यही वास्तविक स्थिति है।
  4. अतीन्द्रिय क्षमताओं का अनुभव: भीतर आनंद, प्रेम, संतुलन का अनुभव करें। ये चेतना की गुणवत्ताएँ हैं जो बिना इंद्रियों के भी अनुभव होती हैं।

इस विपरीत सम्मोहन (धारणा) से आप अपने मन के साथ एक होने के भ्रम को तोड़ देंगे और अपने विराट स्वरूप के साथ एकाकार हो जाएँगे।

Q&A: आपके प्रश्नों के उत्तर

प्रश्न (Q)उत्तर (A)
Q: विपरीत परिस्थितियों में शांत कैसे रहें?A: अपने आप को लहरों (तन, मन, विचार) के बजाय असीम सागर या विराट आकाश के रूप में देखें। छोटी घटनाओं से अपनी पहचान तोड़ दें।
Q: प्रशंसा और निंदा से अप्रभावित कैसे हों?A: दोनों को तथागतभाव से स्वीकार करें। जानें कि ये दोनों केवल छोटी लहरें हैं जो आपके विराट स्वरूप को प्रभावित नहीं कर सकतीं। प्रतिक्रिया न दें।
Q: हमारा वास्तविक स्वरूप क्या है?A: वह विराट, असीम, सदा-सदा रहने वाला आकाश है, जो किसी भी क्रिया से अप्रभावित रहता है। यह जन्मजात स्वभाव है।
Q: ‘शून्यता की धारणाका क्या मतलब है?A: अपने भीतर एक खालीपन (शून्य) की भावना करना। यह शुरुआत में कल्पना लगेगी, पर जल्दी ही आपको पता चलेगा कि यही आपकी वास्तविकता है।
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