अबुल मंसूर खां, जिसको सफदरजंग के लकब से पुकारा जाता था, अवध के वायसराय सआदत अली खां का भतीजा और जानशीन था। पैदाइश से वह ईरानी था और अपने चचा के बुलाने पर, जिसकी लड़की से इसने शादी की, वह हिंदुस्तान आया था।
जब नादिर शाह के हमले के बाद हिंदुस्तान में शांति स्थापित हुई, मंसूर खां दिल्ली के दरबारियों में बा- रसूख बन गया और जब निजामुलमुल्क ने बादशाह अहमद शाह का वजीर बनने से इंकार कर दिया, तो मंसूर खां को वजीर बनाया गया और उसे सफदरजंग का खिताब दिया गया। वह हुकूमत के मामलात में साधारण योग्यता का आदमी था, लेकिन जिन नालायकों ने बादशाह को उसे वजीर बनाने की सलाह दी थी, उनमें वह बुद्धिशाली माना जाता था।
शायद वह मक्कारी कम जानता था, अपने विद्वेषी निजामुलमुल्क के लड़के गाजीउद्दीन खां से तो विलाशक वह उन्नीस साबित हुआ। इसलिए मजबूरन उसे दिल्ली में अपना सम्मान का स्थान छोड़ना पड़ा और मृत्यु तक, जो 1753 ई. में हुई, वह साजिशों का शिकार बना रहा। उसे कुतुब के रास्ते में दिल्ली से कोई छह-सात मील मकबरा सफदरजंग में दफन किया गया।
यह मकबरा बहुत सी बातों में हुमायूं के मकबरे जैसा ही है और खयाल भी यही था कि हू-ब-हू इसे वैसा ही बनाया जाए। यह एक बहुत बड़े बाग के दरमियान में एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है, जिसके नीचे महराबदार कोठरियां हैं। इसका गुंबद संगमरमर का है, जिसके चारों ओर कोनों पर चार बुर्जियां हैं, लेकिन यह मकबरा शानो-शौकत में हुमायूं के मकबरे से कम है। मिस्टर केन ने कहा है कि ‘यह मुगलों की इमारत बनाने की कला का अंतिम प्रयत्न है।’
यह मकबरा दिल्ली से कुतुब जाते हुए करीब छह मील पर सड़क के दाएं हाथ पड़ता है। बाग, जिसमें मकबरा बना हुआ है, करीब तीन सौ गज मुरब्बा है। मकबरे का दरवाजा बाग के पूर्व में है, जिसमें मकबरे की निगहबानी करने वालों के लिए कमरे बने हुए हैं। अहाते की तीन तरफ की दीवारों के बीच में दालान बने हुए हैं, जो दर्शकों के लिए आरामगाह का काम देते हैं। बाग के चारों कोनों पर अठपहलू बुर्ज बने हुए हैं, जिनके चारों तरफ दरवाजे को छोड़कर लाल पत्थर की जालियां लगी हुई हैं। दरवाजे की पुश्त पर जरा उत्तर की तरफ तीन गुंबदों की एक मस्जिद है, जिसके तीन महराबदार दरवाजे हैं। ये पूरे लाल पत्थर के बने हुए हैं।
चबूतरा, जिस पर मकबरा बना हुआ है, बाग की सतह से 10 फुट ऊंचा है और 110 फुट मुरब्बा है। चबूतरे के बीच में एक तहखाना है, जिसमें सफदरजंग की कब्र है। कब्र के ऊपर की इमारत 60 फुट मुरब्बा और नब्बे फुट ऊंची है। इसके दरमियान में 20 फुट मुरब्बा का एक कमरा है, जिसमें कब्र का खूबसूरत तावीज है। तावीज संगमरमर का बना है। इसका पत्थर निहायत साफ और पच्चीकारी के काम से आरास्ता । दरमियानी कमरे के गिर्द आठ कमरे और हैं, जिनमें चार चौकोर और चार अठपहलू हैं। गुंबद के अंदर का फर्श और दीवारें रजारे तक संगमरमर की हैं। बीच के कमरे पर जो गुंबद है, वह अंदर की ओर 40 फुट ऊंचा है। जिस तरह पहली मंजिल में कमरे हैं, उसी के जोड़ के कमरे ऊपर की मंजिल में भी हैं। गुंबद कोठीदार संगमरमर का है, जिसके कोनों पर संगमरमर की मीनारें हैं। गुंबद चारों ओर एक ही प्रकार के और एक ही तरह की सजावट के हैं, जिनमें संगमरमर की पट्टियां पड़ी हुई हैं। गुंबद के सामने एक पक्की संगवस्त की नहर अब भी मौजूद है, जिसके फव्वारे टूट गए हैं।
यह मकबरा सफदरजंग के बेटे शुजाउद्दौला नायब सल्तनत अवध ने मोहम्मद खां की निगरानी में तीन लाख रुपये की लागत से बनवाया था। मकबरे के पूर्व की तरफ के गुंबद पर एक कुतबा लिखा हुआ है। मकबरे का बाग अच्छी हालत में रखा हुआ है। इसका नाम मदरसा भी है। इसके पास ही विलिंगडन हवाई अड्डा भी बना गया है। मकबरे के सामने से एक सीधी सड़क हुमायूं के मकबरे को गई है। जब कुतुब की सैर करने वाले पैदल कुतुब की सड़क पर जाया करते थे, तो आराम के लिए यहां ठहर जाते थे। अब तो यहां सामने की तरफ खासी अच्छी बस्ती हो गई है। बहुत-सी कोठियां बन गई हैं। पुराने जमाने की एक पियाऊ का मकान अब भी सड़क के किनारे बना हुआ है। आलमगीर द्वितीय (1756-59 ई.) के समय की कोई यादगार नहीं है।