1857 की क्रांति: आखिरकार सितंबर 1857 में अंग्रेजों ने दिल्ली पर धावा बोल दिया। लडाई से ठीक पहले के हालात को एडवर्ड कैंपबेल के खत से समझ सकते हैं। उसने बीबी को अपना आखिरी खत समझ लिखा कि
“मेरी अजीजतरीन बीवी, याद रखो कि हम सब उसके हाथ में हैं, जो आज तक हम पर इतना मेहरबान और माफ करने वाला रहा है। खुदा पर भरोसा रखो, वही हमें बचाएगा। मुझे रोज-बरोज और ज़्यादा अहसास होता जा रहा है कि इंसान के लिए इसी में ही राहत ढूंढ़ना जरूरी है और वही हमको सुरक्षा देगा।
अभी अलार्म बज गया है, इसलिए अब मुझे उठकर अपनी वर्दी पहनना होगी। ईश्वर तुम्हारी सुरक्षा करे, मेरी प्यारी बीवी, और हम दोनों और हमारे प्रियजनों को सलामत रखे। आधी रात को सब सिपाही जाग गए और अपने-अपने दस्तों में जमा होने लगे।
लालटेनों की रोशनी में जनरल विल्सन के आदेश पढ़े गए। हर सिपाही को दो सौ गोलियां लेकर चलना था। हर दस्ते का रास्ता और मकसद उसको बताया गया। जो जख्मी हो जाएं, उन्हें वहीं छोड़ देना है। कोई लूटमार नहीं की जाएगी। शहर की सारी दौलत एडवर्ड कैंपबैल की निगरानी में सरकारी खजाने में जमा की जाएगी। कोई कैदी नहीं लिए जाएंगे, लेकिन ‘इंसानियत और मुल्क की इज्जत की खातिर,’ औरतों और बच्चों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा।
सुबह तीन बजे चारों हमलावर दस्ते खामोशी से पहले फ्लैगस्टाफ टावर और फिर रिज से नीचे कुदसिया बाग के कभी खूबसूरत मुग़ल बाग में ज़फर के लगाए फलों के पेड़ों की आड़ लेते हुए उतरे। इस सारे अर्से में घेराबंदी की तोपें और दीवारें ढहाने वाले तोपखाने उसी ज़ोर-शोर से गोले बरसा रहे थे, जैसे वह पिछले दस दिन से कर रहे थे। और बार्टर के अनुसार “दिन निकलने से पहले का अंधेरा गोलियों की चमक से उजागर हो रहा था और फिजा गोलियों से गूंज रही थी।
यह आधे घंटे तक चलता रहा और जैसे ही सूरज क्षितिज पर चमका, सारी तोपें एक साथ खामोश हो गईं। उस शांत लम्हे में कुछ सैकंड के लिए सिपाही दरख्तों पर बैठी चिड़ियों का चहचहाना सुन सकते थे और संतरों की कलियों और जफर के गुलाबों की खुश्बू सूंघ सकते थे जो ‘बारूद की गंधक भरी गंध के बावजूद हवा में बाकी थी। और फिर निकल्सन ने आदेश दिया और तीन महीने के बाद ब्रिटिश फौज आखिरकार दिल्ली की दीवारों पर चढ़ाई करने को आगे बढ़ी।