औरंगजेब अपने भाइयों को खत्म करके और पिता शाहजहां को कैद करके तख्त पर बैठा तो उसकी लाडली बहन रोशनआरा खुशी से फूली न समाई। आए दिन लाल किले में जश्न मनाए जाने लगे। हयातबख्श बाग और महताब बाग में बहार आ गई। बागों की रंग-बिरंगी फुलवारी मुंह से बोलती। कनातें लगाकर परदा कर दिया जाता। क्या मजाल कि किसी आदमी की परछाई भी पड़ सके। शामियाने तन जाते। उनमें करन के बड़े-बड़े तुरें और झालरें झिलमिल कर रही होती। छत पर सुनहरे और रुपहले तारों का जाल बुना हुआ होता।

जश्न में किले की बेगमात, शहजादियां और सुल्तानजादियां तो आती ही थीं, नवाबों और अमीरों की बहू-बेटियां भी बुलाई जाती थीं। ये सब सोलह-सिंगार किए और छत्तीस जेवरों से सजी एक-से-एक बढ़िया दुपट्टे, पेशवारों और महरम कुर्तियां पहने होतीं। कमरखाव, जरबफ़्त, मशरु और गुलबदन’ के पाजामे होते। पालकियों में बैठी चली आतीं, सवारियां उतरतीं और अपने-अपने ईरानी कालीनों पर जरी के मखमली गावतकिए लगाकर बैठ जातीं। मेहमानों के पीछे बांदियां मोरछल हिला रही होतीं। सबसे पहले मेहमानों का सत्कार ठंडे शरबत से किया जाता था।

मुगल औरतें पान और हुक्के की शौकीन थीं। उनके सामने चांदी के बढ़िया हुक्के रख दिए जाते थे। ख़ासदान में पान की गिलौरियां रखी होतीं। पानदान, हुस्नदान और आरामदान’ रखे होते। वैसे बाग फूलों से महक रहा होता। चांदी के फौव्वारे उछलते होते। अगर, लोबान, गुलाब, खस और दूसरे इत्र छिड़के जाते । मेहमानों के कपड़ों पर भी इत्र मला जाता।

अब लीजिए वह सामने से रोशनआरा बेगम इठलाती इतराती खवासों के घेरे में चली आ रही हैं। आगे-आगे बनें और तुर्कने हथियारों से लैस कदम-कदम पर विस्मिल्लाह विस्मिल्लाह कहती चली जा रही हैं। रोशनआरा बड़ी शान-शौकत से मखमली मसनद पर आकर बैठ जाती हैं। जरी के किए का सहारा लेकर रोशनजारा ने पांव मसनद के नीचे घरी हुई चांदी की चौकी पर रख दिए। मसनद के ऊपर हीरे, लाल और जवाहरात जड़ी छतरी के चारों ओर ठोस सोने के अनार-मोती की लड़ियों के बीच लटके हुए बड़े खुशनुमा लग रहे हैं।

रोशनआरा बेगम की मसनद के दाई तरफ चांदी की चौकी पर उभरवां काम का एक बहुत बड़ा प्यालानुमा चीनी वर्तन रखा है। उसमें चांदी सोने के हलके-फुलके सितारे भरे हुए हैं। अब बेगमें शहजादियों और अमीरों की बहू-बेटियां अपनी-अपनी जगह से उठकर एक-एक करके रोशनआरा बेगम के सामने आती हैं, झुककर सलाम अर्ज करती हैं और नजराने पेश करती हैं। रोशनआरा बेगम प्याले में रखे सोने-चांदी के सितारे मेहमानों पर उछालकर उनका स्वागत कर रही हैं।

दस्तरख्वान बिछाया जा रहा है। खाना चुने जाने से पहले हर चीज का एक-एक टुकड़ा कुत्ते-बिल्लियों को खिलाया जाता था। उससे पता लग जाता था कि खाने में जहर तो नहीं मिला दिया गया। संगे-यश्ब (एक हरा और कठोर पत्थर जो दवा में प्रयुक्त होता है और दिल धड़कने की बीमारी में लाभ देता है) प्यालियों में खाने की चीजें रखी जातीं क्योंकि उनमें बाल पड़ने से पता लग जाता था कि खाने में जहर मिला हुआ है। दस्तरख्वान पर सैकड़ों किस्म के खाने होते, नाम कहां तक गिनवाए जाएं। खाना हाथ से खाया जाता था लेकिन बहुत सफ़ाई और सलीक़े से, क्या मजाल जो उंगली के ऊपर, पोरों से नीचे हाथ सन जाएं ।

खाना खाने के बरतनों में खली, बेसन और आटा आदि रखा हुआ आता। सब हाथ साफ़ करतीं और रूमाल से पोंछती गिलौरियां मुंह में रखतीं, हुक्के का दम लगातीं और गावतकियों का सहारा लेकर बैठ जातीं। थोड़ी देर बाद डोमनियां आ जाती रोशनआरा बेगम के हुक्म पर मीठे सुरों में गाना शुरू हो जाता और चलता रहता। यह उन दिनों की बात है जब औरंगजेब ने संगीत पर प्रतिबंध नहीं लगाया था। कहा जाता है कि औरंगजेब ने अपनी ताजपोशी के नौ साल बाद गाना सुनना बंद किया था। कुछ इतिहासकारों का यह भी ख़याल है कि अगरचे औरंगजेब गाने-बजाने को शर्म के खिलाफ समझता था मगर महलसराओं में काफी अरसे तक गाना-बजाना होता रहा। रोशनआरा बेगम का यह जश्न सुबह तक चलता रहता। मगर पौ फटते ही जश्न बंद कर दिया जाता और सब अपने-अपने महलों और हवेलियों की राह लेतीं।

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