1857 की क्रांति: 14 सितंबर को बादशाह द्वारा बगावत का नेतृत्व करने से पीछे हटने के बाद दिल्ली के लोगों को जब यह अहसास हुआ कि तबाही विल्कुल करीब है, तो उन्होंने अपना साजो-सामान जमा करके फरार होना शुरू कर दिया।

जो ब्रिटिश सिपाही बाड़ा हिंदू राव की छत पर मौजूद थे, उन्होंने उस शाम बताया कि ‘अजमेरी दरवाजे से लोगों और जानवरों की एक बाढ़ जा रही थी’।” जाने वाले इक्का-दुक्का सिपाहियों की जगह अब उनका एक सैलाब बन गया।  

अंग्रेज अफसर होडसन ने ईदगाह से देखा कि बरेली के दस्ते जाने से पहले अपने तमाम गोला-बारूद में आग लगा रहे थे। जासूसों ने सूचना दी कि नीमच और बरेली के सिपाहियों ने अपना सामान सड़क के रास्ते मथुरा भिजवा दिया है और खुद भी जितनी जल्दी मौका मिले वह दिल्ली के बाहर मार्च करने पर तैयार हैं।

सईद मुबारक शाह ने लिखा है कि “क्रांतिकारियों का जोश अब बिल्कुल ठंडा पड़ चुका था। और वह सारे शहर को खाली करने की सोच रहे थे। जब भी अंग्रेजों को मौका मिलता वह सड़कों और बाजारों में घुस जाते और अगर कोई भी उन्हें रोकने की कोशिश करता तो उसे गोली मार देते। थोड़ी ही देर में चांदनी चौक से किले तक और लाहौरी दरवाज़े तक भी सिर्फ अलग-अलग सिपाहियों की टोलियां देखी जाती थीं क्योंकि बाकी सब फरार हो चुके थे।”

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