1857 की क्रांति: 17 सितंबर को आधी रात के बाद और सूरज निकलने से पहले सुबह-सुबह जफर खामोशी से पानी वाले दरवाजे से लाल किले से बाहर निकल गए। उन्होंने अपने वजीरे-आजम या जीनत महल को भी नहीं बताया।
वह अकेले थे, सिर्फ कुछ खिदमतगार उनके साथ थे। वह अपने साथ कुछ चुने हुए खानदानी खजाने की चीजें लाए थे, जिसमें ‘शाही जेवरात और मिल्कियत के कागज और उनकी पूरी फेहरिस्त’ और एक पालकी थी। जब सूरज निकला, तो वह एक कश्ती में बैठकर यमुना से रवाना हुए, शायद पुराने किले के घाट की तरफ, जहां वह उतरे और शाहजहानाबाद से तीन मील दूर दक्षिण में ख्वाजा निजामुद्दीन की सूफी दरगाह पर चले गए।
दरगाह के मुजाविरों निजामी खानदान के वारिसों के पास यह रिवायत सुरक्षित है कि जफर ने बुजुर्गों का सारा मुकद्दस खजाना उनकी सुरक्षा में दे दिया। उसमें एक संदूकचा उन पवित्र चीज़ों का था, जो वह किले से लेकर आए थे जिनमें पैगंबर की दाढ़ी के तीन पवित्र बाल थे, जो वह खासतौर से लाए थे और जो तैमूर खानदान में चौदहवीं सदी से लेकर बाप से बेटे को पवित्र विरासत के रूप में मिलते रहे थे और ज़फ को उनसे बेहद लगाव था।
महल की डायरी और दूसरे बयानों से पता चलता है कि ज़फ़ खुद उनको गुलाब के पानी से धोते थे। फिर ज़फर ने दरगाह में दुआ मांगी और पीरजादे का मुहैया किया हुआ सादा सा नाश्ता किया। फिर वह फूट-फूटकर रोने लगे और उन्होंने सूफी पीरजादे से कहाः
“मैं हमेशा जानता था कि यह बागी हमारे सिर पर मुसीबत लाएंगे। मुझे शुरू ही से बहुत अंदेशे थे और अब वह सब सच साबित हो रहे हैं। यह सिपाही अंग्रेजों के सामने भाग खड़े हुए। हालाकि मैं एक दरवेश हूं और मेरा मिजाज सूफियाना और फकीराना है, लेकिन मेरी रगों में जो अजीम खून दौड़ रहा है, वह मुझे खून की आखरी बूंद तक लड़ने पर तैयार रखेगा। मेरे बुजुगों ने इससे भी ज़्यादा बुरे दिन देखे थे लेकिन वह कभी हिम्मत नहीं हारे। लेकिन मैंने किस्मत का लिखा पढ़ लिया है।
मुझे अपनी नजरों के सामने वह मुसीबत नजर आ रही है, जो मेरी नस्ल की शान को खत्म कर देगी और अब कोई शक नहीं रहा है कि में तैमूर के घराने से आखरी हूं, जो हिंदुस्तान के तख्त पर बैठेगा। मुगल हुकूमत का चिराग भड़क रहा है और सिर्फ चंद घंटे और रोशन रहेगा। जब मुझे यह मालूम है तो में क्यों बेकार का और खून बहने की वजह बनूं। इसलिए मैंने किला छोड़ दिया। अब यह मुल्क खुदा के हवाले और उसकी मिल्कियत है। वह जिसे चाहे इसे सौंपे।
यह कहकर जफर ने अपनी सारी पवित्र चीजें दरगाह के मुजाविरों को सौंप दीं और अपनी पालकी में बैठकर अपने गर्मिए के महल को चल दिए, जो महरौली में कुतुब साहब के सूफी मजार के पास था। जहां उन्होंने बख्त खां से मिलना मंजूर किया था।