मुगल काल की दिल्ली : शाहजहांबाद और लाल किला ( 1636-48 ई.)

शहर और किले की बिस्मलार करने के लिए बादशाह कई बार दीनपनाह (पुराना किला) देखने यहां आया। आखिर नजूमियों और ज्योतिषियों की सलाह से यह जगह जहां अब लाल किला है, किले की तामीर के लिए चुनी गई और किले के चारों ओर फिर शहर शाहजहांबाद की बुनियाद डाली गई, जिसको आम तौर पर दिल्ली कहा जाता है। किला ऐसा बनवाना शुरू किया गया, जो आगरा के किले से दुगना और लाहौर के किले से कई  गुना बड़ा था।

1636 ई. में बुनियाद का पत्थर इज्जत खां की देखभाल में डाला गया। कारीगरों में सबसे बड़े उस्ताद अहमद वहामी चुने गए। इज्जत खां की देखरेख में यह काम पांच महीने और दो दिन रहा। इस अर्से में उसने बुनियादें भरवाई और माल-मसाला जमा किया। इज्जत खां को सिंध जाने का हुक्म मिला और काम अलीवर्दी खां के सुपुर्द किया गया, जिसने दो वर्ष, एक मास और 14 दिन में किले के गिर्द फसील बारह बारह गज ऊंची उठवाई। इसके बाद अलीवर्दी खां बंगाल का सूबेदार बन गया और उसकी जगह काम मुकर्रमत खां के सुपुर्द हुआ, जिसने नौ साल की लगातार मेहनत से किले की तामीर का काम पूरा करवाया।

उस वक्त बादशाह काबुल में था। मुकर्रमत खां मीर इमारत ने बादशाह सलामत की सेवा में निवेदन-पत्र भेजा कि किला तैयार है। चुनांचे तारीख 24 रबीउल अव्वल, 1648 ई. के दिन बादशाह सलामत हवादार अरबी घोड़े पर सवार होकर बड़े समारोह के साथ किला मोअल्ला (लाल किला) में दरिया के दरवाजे (हिजरी दरवाजा) से दाखिल हुए।

जब तक बादशाह दरवाजे तक नहीं पहुंच गया, दाराशिकोह बादशाह के सिर पर चांदी और सोने के सिक्के वारकर फेंकता रहा। महलात की सजावट हो चुकी थी और सहनों में नायाब कालीन बिछे हुए थे। हर एक नशिस्त पर गहरे लाल रंग का कश्मीरी कालीन बिछाया हुआ था। दीवाने आम की छतों में, दीवारों पर और एवानों पर खाता और चीन की मखमल और रेशम टंकी हुई थी। बीच में एक निहायत आलीशान शामियाना, जिसका नाम दलबादल था और जिसे अहमदाबाद के शाही कारखाने में तैयार करवाया गया था और जो 70 गज लंबा व 45 गज चौड़ा था तथा जिसकी कीमत एक लाख रुपये थी. लगाया गया था। इसकी तैयारी में सात बरस लगे थे।

शामियाना चांदी के सुतूनों पर खड़ा किया गया था और चांदी का कटारा उसमें लगा हुआ था। दीवाने आम में सोने का कटारा लगाया गया था। तख्त के ऊपर जो चदर छत थी, उसमें मोती लगे हुए थे और वह सोने के खंभों पर खड़ी थी, जिनमें हीरे जड़े थे। इस मौके पर बादशाह ने बहुत से अतिये अता फरमाए। बेगम साहिबा को एक लाख रुपये नजर किए गए, दाराशिकोह को खास खिलअत और जवाहरात जड़े हाथियार और बीस हजारी का मनसब, एक हाथी और दो लाख रुपये अता किए गए। इसी प्रकार दूसरे शाहजादों, वजीरे आजम और दीगर मनसबदारों को अतिय अता किए गए। मुकर्रमत खां को, जिसकी निगरानी में किला तामीर हुआ था, पंचहजारी मनसब अता किया गया। दरबार बड़ी धूम-धाम के साथ समाप्त हुआ।

किला अष्टकोण है। बड़े दो कोण पूर्व और पश्चिम में हैं और छह छोटे कोण उत्तर और दक्षिण में हैं। किले का रकबा करीब डेढ़ मील है। यह करीब 3000 फुट लंबा और करीब 1800 फुट चौड़ा है। दरिया की ओर की दीवारें 60 फुट ऊंची हैं। खुशकी की तरफ की दीवार 110 फुट ऊंची है, जिसमें 75 फुट खंदक की सतह से ऊपर और बाकी खंदक की सतह तक है।

किले के पूर्व में यमुना नदी थी, जो किले के साथ बहती थी और तीन तरफ खंदक थी, जिसमें रंग-विरंगी मछलियां पड़ी हुई थीं। खंदक के साथ-साथ बागात थे, जिनमें तरह-तरह के हर मौसम के फूल और झाड़ियां लगी हुई थीं। ये बागात 1857 ई. के गदर तक मौजूद थे, जो अब गायब हो गए हैं। पूर्व में यमुना और किले के बीच की नशेब की जमीन हाथियों की लड़ाई तथा फौज की कवायद करने के काम में आती थी। किले की तामीर की लागत का अंदाजा डेढ़ करोड़ रुपये है। लाल पत्थर और संगमरमर जिस राजा के इलाके में होता था, उसने भेज दिया था। बहुत-सा सामान किश्तियों द्वारा फतहपुर सीकरी से लाया गया था।

1719 ई. के भूचाल से किले को और शहर को बहुत नुकसान पहुंचा था। 1756 ई. में मराठों और मोहम्मद शाह दुर्रानी की लड़ाई में भी यहां इमारतों को बहुत नुकसान पहुंचा था। उस वक्त गोलाबारी के कारण दीवाने खास, रंग महल, मोती महल और शाह बुर्ज को काफी नुकसान पहुंचा। किले की मजबूती के कारण उसको कोई नुकसान न पहुंच सका।

गदर के बाद अंदर की इमारतों का बहुत-सा हिस्सा मिसमार करके हटा दिया गया। रंगमहल, मुमताज महल और खुर्दजहां के पश्चिम में स्थित जनाने महलात और बागात तथा चांदी महल- ये सब खत्म कर दिए गए। इसी प्रकार तोशेखाने, बावर्चीखाने, जो दीवाने आम के उत्तर में थे तथा महताब बाग तथा हयात बाग का बहुत बड़ा हिस्सा हटाकर वहां फौजों के लिए बैरकें और परेड का मैदान बना दिया गया। हयात बाग के उत्तर में और इसके तथा किले की उत्तरी दीवार के बीच में जो शाहजादों के महलात थे, वे गिरा दिए गए।

किले के पांच दरवाजे थे। लाहौरी दरवाजा और दिल्ली दरवाजा शहर की तरफ और एक दरवाजा दरिया की तरफ सलीमगढ़ में जाने के लिए था। उस तरफ जाने के लिए दरिया पर पुल बना हुआ था। चौथी खिड़की या दरियाई दरवाजा जो मुसम्मन बुर्ज के नीचे है और पांचवां असद बुर्ज के नीचे था। यह दरिया पर जाता था। इस तरफ से किश्ती में सवार होकर आगरा जाते थे किले की चारदीवारी में बीच-बीच में बुर्ज बने हुए हैं।

लाहौरी दरवाजा सदर दरवाजा था। यह किले की पश्चिमी दीवार के मध्य में चांदनी चौक के ऐन सामने पड़ता है। शाहजहां के वक्त में यह दरवाजा सीधा चांदनी चौक के सामने पड़ता था। खाई पार करने के लिए काठ का पुल था। दरवाजे के सामने एक खूबसूरत बाग लगा हुआ था और उसके आगे चौक, जिसमें बादशाह के हिंदू अंगरक्षक, जिनकी बारी होती थी, ठहरते थे। इस चौक के सामने एक बड़ा हौज था, जो चांदनी चौक की नहर से मिला हुआ था। औरंगजेब ने इस दरवाजे और दिल्ली दरवाजे के सामने हिफाजत के लिए घोघम (घूंघट) बनवा दिया, जिससे बाग खत्म हो गया।

शाहजहां ने आगरा से अपनी कैद के दिनों में इस बारे में औरंगजेब को लिखा था कि तुमने घोघस बनवाकर मानो किले की दुल्हन के चेहरे पर नकाब डाल दी। दीवारें खड़ी रहने से किले का रास्ता उत्तर की ओर घूमकर आने का हो गया। इसी आगे के हिस्से पर नब्बे वर्ष तक यूनियन जैक लहराता रहा। 90 वर्ष बाद घोघस के ऊपर खड़े होकर पं. जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र भारत का झंडा फहराया था और देश की आजादी का ऐलान किया था।

किले के अंदर जाने का एक महराबदार दरवाजा 40 फुट ऊंचा और 24 फुट चौड़ा है, जिसकी ऊंचाई अहाते की दीवार से आठ फुट अधिक है। इस पर मोरचाबंदी कंगूरा है, जिसके दोनों तरफ लाल पत्थर की दो पतली-पतली मीनारें 10 फुट ऊंची हैं। लाहौरी दरवाजा बहुत ऊंचा और महराबदार है। इसकी ऊंचाई 41 फुट और चौड़ाई 24 फुट है। दरवाजे की तीन मंजिलें हैं जिनमें कमरे बने हुए हैं। इनमें किले के रक्षक रहते थे। गदर से पहले किले की फौज का कमांडर इन्हीं में रहता था। बुर्जों पर अष्टकोण छतरियां बनी हुई हैं। बुर्जों के कंगूरों के बीचोंबीच दरवाजे का दरमियानी कंगूरा है। दरवाजे के ऊपर वाले कंगूरे की मुंडेर पर एक कतार लाल पत्थर की तीन-तीन फुट ऊंची खुली महराबों की है, जिन पर सात छोटी-छोटी संगमरमर की बुर्जियां महरावाँ के बराबर-बराबर हैं। 1857 ई. के गदर में इसी दरवाजे के सामने मिस्टर फ्रेजर, कप्तान डगलस, पादरी यंग आदि अंग्रेज कत्ल किए गए थे।

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