पार्टी कार्यकर्ताओं में भी खूब हो रही यूपी की राजनीति को लेकर चर्चा
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
लेेखक- कौशल किशोर (वरिष्ठ स्तंभकार) | x@mrkkjha
बीते लोक सभा चुनाव परिणाम के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल शुरु हुई। यह लगातार बढ़ रही है। आज उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव मोर्चे पर तलवार भांज रहे हैं। भाजपा के एक सौ विधायकों को तोड़ कर समाजवादी पार्टी की सरकार में मुख्यमंत्री का पद ऑफर किया गया था। अमित शाह और योगी आदित्य नाथ की स्थिति पर चुनाव प्रचार के दौरान अरविन्द केजरीवाल की टिप्पणी विमर्श के केन्द्र में है। सूबे में जारी इस घमासान का व्यापक असर देर सबेर देश पर भी पड़ेगा। इसके कारण भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा की हालत ऐसी है कि देश का स्वास्थ्य मंत्रालय ही नेतृत्व विहीन प्रतीत होने लगा है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के बीच की तकरार सरहदें पार कर गई है। केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्य नाथ के नाम पर आज संगठन बनाम सरकार का समीकरण बन गया है। इसके बीच उत्तर प्रदेश के जनता की कौन सुनेगा? आज यक्ष प्रश्न यही है। लोक सभा चुनाव में भाजपा की ढलती स्थिति के लिए योगी को जिम्मेदार मान कर सत्ता से बेदखल करने का प्रयास अब तक सफल नहीं हो सका है। पार्टी नेतृत्व को याद होगा कल्याण सिंह की लोकप्रिय सरकार अंतर्कलह की भेंट चढ़ गई। अटल बिहारी वाजपेई के दौर में हुई भूल के बाद भाजपा को सत्ता प्राप्त करने में अठारह साल लंबा इंतजार करना पड़ा। क्या मोदी के दौर में भाजपा फिर वही गलती दोहराएगी? इस सवाल के जवाब में तमाम तरह के दावे बाजार में मौजूद हैं।
लोक सभा की 80 सीटों में से 75 जीतने का दावा करने वाले 33 पर सिमट गए। इसके कारण चुनाव में हार का ठीकरा फोड़ने की कवायद लगातार चलने लगी। लखनऊ में हुई समीक्षा में योगी आदित्य नाथ ने पार्टी की दुर्दशा का तीन कारण गिनाया। भाजपा के 400 पार के नारे को अति आत्मविश्वास का प्रतीक करार दिया है। संविधान बदलने की योजना के अनुकूल समझ कर इसे जनता ने भी खारिज कर दिया। तीसरे कारण के रुप में डबल इंजन सरकार की सभी उपलब्धियों को जनता तक नहीं पहुंचा पाना माना। हालांकि पहले दोनों कारण में उन्होंने दिल्ली की ओर अंगुली घुमाया है। साथ ही केशव प्रसाद मौर्य सरकार को संगठन से बड़ा बता कर योगी सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। हालांकि सिराथू की विधायक पल्लवी पटेल से मिल कर लोकप्रियता के सवाल पर उन्होंने केशव को घेर कर रख दिया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत चुनाव परिणाम पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए शीर्ष नेतृत्व पर बराबर प्रहार कर रहे हैं। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के बायोलॉजिकल नहीं होने की बात पर भागवत भी राहुल गांधी की तरह चुटकी लेने से नहीं चूके थे। सामाजिक समरसता के बदले हिन्दू मुस्लिम के नाम पर धुव्रीकरण के प्रयास पर उनकी प्रतिक्रिया चर्चाओं में है। भाजपा के करोड़ों कार्यकर्ताओं के सामने संघ के पचास लाख स्वयंसेवकों पर पार्टी अध्यक्ष नड्डा की बातों को उन्होंने अहंकार का प्रतीक माना है। इनका वास्तविक खामियाजा चुनाव में भुगतने के बाद संघ और भाजपा से जुड़े हस्तियों की प्रतिक्रिया पर हार का टोटा हावी है। क्या विधान सभा उप चुनाव पर इस बात का असर नहीं होगा?
इस बीच कांवड़ मेला के नाम पर खाने पीने की दुकानों पर मालिकों का नाम लिखने के फरमान पर सियासत होने लगी है। हालांकि हलाल सत्यापन की पैरवी करने वाले सेक्युलर नेतागण इसे सांप्रदायिक कह कर विरोध कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट इस पर अंतरिम रोक लगा कर राजनीति को दिशा दे रही है। बहुसंख्य समाज पर इस आदेश का कोई असर नहीं पड़ा है। नतीजतन मुस्लिम दुकानदारों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। वोट बैंक की इस राजनीति में शामिल तमाम दल विरोध में शामिल हो गए हैं। किंतु बहुसंख्य समाज इसे प्रदेश सरकार की अहम उपलब्धि मान रही है। बुलडोजर की राजनीति की तरह इसके पक्ष विपक्ष में बातें चल रही है। इनसे आम जनता की नब्ज पर योगी की और मजबूत होती पकड़ भी जाहिर होती है।
उप मुख्यमंत्री के रुप में दो सहयोगी बैठा कर आलाकमान ने योगीजी पर अंकुश लगाने का काम किया। उत्तर प्रदेश के नए सांसदों में 10 विधायक हैं। इनमें से इंडिया ब्लॉक के 5 और राजग के 5 विधायकों में 3 ही भाजपा नेता हैं। विधान सभा की इन सीटों पर होने वाले उपचुनाव के लिए योगी की तैयारी चकित करती है। इसमें जीत दर्ज करने के लिए प्रदेश सरकार तीस मंत्रियों की टीम बना कर मैदान में उतर गई है। दोनों उप मुख्यमंत्रियों को इससे बाहर रख कर उन्होंने आलाकमान को साफ संकेत दिया है। योगी की पसंद का तीन मंत्री प्रत्येक विधान सभा क्षेत्र को साधने का काम करेगा। प्रतिपक्ष इस अंतर्कलह को भुनाने के प्रयास में लगा है।
आलाकमान का शह पाकर ही केशव प्रसाद मौर्य बगावत को हवा दे रहे। यह हिन्दू हृदय सम्राट और नेतृत्व शिखर पर बाबा के पहुंचने के मार्ग में बाधा खड़ी करने का काम है। इसके खिलाफ बुलडोजर बाबा की रणनीति से चित्त और पट्ट का टॉस बाबा के पाले में है। त्याग पत्र की मांग करने वाले बैक फुट पर हैं। लेकिन इससे अंतर्कलह थमता नहीं है। शिकायतों और वादों के बदले परिस्थिति और स्थिति की व्याख्या से यह उजागर होती है।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे सिंधिया और छत्तीसगढ़ में डा. रमण सिंह की तरह उत्तर प्रदेश से योगीजी की विदाई आसान नहीं है। उनके राजनीतिक पैंतरे का असर भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री रहे इन सभी कद्दावर नेताओं पर पड़ेगा। अपनी हैसियत बनाए रखने के लिए मोदी, शाह व नड्डा कद्दावर नेताओं के पर कतरने से नहीं चूकते हैं। ऐसा पहली बार हुआ कि अनुशासित मानी जाने वाली पार्टी में बगावत इस कदर मुखर हो गया है। संघ और उत्तर प्रदेश की जनता का सहयोग, सहानुभूति व समर्थन योगीजी के साथ है। ऐसे में क्या भाजपा आलाकमान उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन कर सकेगी? परमात्मा और आत्मा की एकरुपता की अनुभूति करने वाले नरेन्द्र मोदी के सामने अमित शाह और योगी आदित्य नाथ में से किसी को नंबर दो बताने की शर्त भले नहीं है। परन्तु अंतर्कलह और दुविधा की स्थिति का लाभ विपक्ष को मिलेगा। हालांकि यह राहुल गांधी और अखिलेश यादव पर निर्भर करता है। केजरीवाल के जेल में होने से हवा में नमी बनी रहेगी।
देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री होने के लिए भाजपा के कई नेता मैदान में हैं। पार्टी शीर्ष नेतृत्व की मदद पाकर इनमें से बगावत के लिए तैयार होने वाला भी मिल सकता है। बाहुबली राजपूत भाजपा नेता ब्रजभूषण शरण सिंह और योगी की बनती नहीं। लेकिन उत्तर प्रदेश में अमित शाह के समर्थक माने जाने वाले नेतागण योगी आदित्य नाथ का समर्थन केवल राजपूत विधायक तक सीमित मान कर उन्हें खारिज करते हैं। खेमेबाजी की इसी राजनीति की वजह से भाजपा को समाजवादी पार्टी और कांग्रेस पार्टी के सांसद उम्मीदवारों के सामने मुंह की खानी पड़ी थी। इस बार उप चुनाव में सीट गंवाने पर योगी आदित्य नाथ को महंगी कीमत चुकानी पड़ सकती है।
जातिवाद की इस राजनीति का गढ़ माने जाने वाले सूबे में ठाकुरवाद और वर्चस्व के समर्थन और विरोध में सक्रिय लोगों की कमी नहीं रही है। क्या आज पार्टी आलाकमान आसन्न संकट से अपना ही बचाव करती नहीं दिखती है? उत्तर प्रदेश विधान सभा उपचुनाव के बाद इस पर फिर विचार करना होगा। बहरहाल हार की जिम्मेदारी के नाम पर योगी की सूबे से मुक्ति जनाकांक्षाओं को तिलांजलि दे कर ही संभव है। देश के सबसे बड़े सूबे में सूबेदार बनने की होड़ में लगे नेता और अपनी कुर्सी बचाने में लगे शीर्ष पर बैठे नेता मिल कर एक दिन बाबा को शिखर पर पहुंचा कर ही दम लेंगे।
(नोट-यह लेखक के निजी विचार हैं)