1849 में सिखों को शिकस्त दे दी, तो वह अपने आपको दक्षिण एशिया का मालिक समझने लगे थे। अब उन्होंने अपनी हर विरोधी फौज पर फतेह हासिल कर ली थी। 1757 में बंगाल के सिराजुद्दौला, 1761 में फ्रांसीसी, 1799 में मैसूर के टीपू सुल्तान और 1803 में और फिर 1819 में मराठा फौज को हरा दिया था। और फिर पहली बार उन्हें अहसास हुआ कि वित्तीय, तकनीकी और राजनीतिक, और साथ ही सांस्कृतिक रूप से भी, अंग्रेज़ों को हिंदुस्तान से कुछ नहीं सीखना है, बल्कि अब वह बहुत कुछ सिखा सकते हैं। इसलिए उनमें सल्तनत का गुरूर पैदा हो गया। यह घमंड और ईसाइयों की बढ़ती हुई ताकत मिलकर आहिस्ता-आहिस्ता अंग्रेज़ों और हिंदुस्तानियों के रिश्ते के हर पक्ष को प्रभावित करने लगी।
दिल्ली कॉलेज को एक पश्चिमी यूनीवर्सिटी के बजाय एक मदरसे तरह कायम किया गया था। उसको भी कंपनी ने 1828 में बदल दिया और उसमें पूर्वी ज्ञान के साथ-साथ अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य का कोर्स भी शामिल कर दिया। इसकी नई कमेटी का कहना था कि इसका मकसद “हिंदुस्तान के अशिक्षित और आधे जंगली” लोगों को “ऊपर उठाना” था। यह प्लान चार्ल्स ट्रेवेल्यन का था जो थॉमस बैबिंगडन मैकॉले का बहनोई और चेला था। वही मैकॉले जिसने कहा था, “एक अच्छी यूरोपियन लाइब्रेरी के एक शेल्फ की किताबें सारे हिंदुस्तानी और अरबी साहित्य से ज़्यादा हैं।
जितनी ऐतिहासिक जानकारी संस्कृत की सारी किताबों में जमा है उससे ज़्यादा तो इंग्लैंड के एक प्रारंभिक कोर्स की संक्षिप्त किताब में मिल सकती है। पश्चिमी यूरोप की भाषाओं ने पूरे रूस को सभ्य बना दिया। और मुझे कोई शक नहीं कि वह हिंदुओं के साथ भी वही करेंगी जो तातारियों के साथ किया है।”
तो ट्रेवेल्यन ने ऐसे ही विचारों को यह कहते हुए दिल्ली कॉलेज में लागू कर दियाः “सिर्फ अंग्रेज़ी साहित्य का साफ-सुथरा झरना ही धार्मिक रस्मो-रिवाज और पूर्वाग्रह के अभेद्य बाधाओं को पार कर सकता है।”
कुछ ही समय बाद, 1837 में, अंग्रेज़ों ने सरकारी ज़बान फ़ारसी से बदलकर अंग्रेज़ी कर दी और कहीं-कहीं क्षेत्रीय भाषा । अब यह साफ़ ज़ाहिर हो गया था कि सब कानून अंग्रेज़ बनाएंगे और हिंदुस्तान को पूरी तरह उनके फैसलों, पसंदों और आदतों का पाबंद होना पड़ेगा।” लेकिन उन हिंदुस्तानियों के साथ भी अंग्रेज़ों का कोई खास अच्छा रवैया नहीं था जिन्होंने इस नए दिल्ली अंग्रेज़ी कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की थी।
इस कॉलेज के एक छात्र मोहन लाल कश्मीरी जो यहां के सबसे पहले पास होने वाले ग्रुप में से थे, उनका कहना था कि “जिस तरह अंग्रेज़ हमसे दूरी और नफरत भरी सुलूक करते हैं, उससे हमारी भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची है और हमको ब्रिटिश राज़ की सारी अच्छी बातों को भूलने पर मजबूर कर देती है। वह नहीं जानते कि वह लोगों को डरा-धमकाकर अपने हथियारों के बल पर कुचल तो सकते हैं, लेकिन जब तक वह लोगों का दिल नहीं जीतते तब तक शांति और स्नेह सिर्फ खोखले शब्द होंगे और हक़ीक़त नहीं बन सकते।