पदरी जेनिंग्स ऐसे वक्त हिंदुस्तान आया जब हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को बढ़ता हुआ ख़तरा महसूस हो रहा था कि अंग्रेज़ अपनी बढ़ती ताकत उनके मज़हबों के कानूनी रस्मो-रिवाज ख़त्म करने के लिए इस्तेमाल कर हैं और इसके बदले बहुत बेहिसी से ज़बरदस्ती ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे हैं। 1829 में उन्होंने सती की रस्म को गैरकानूनी करार दे दिया था, जिससे रूढ़िवादी हिंदू बहुत खफा थे और फिर एक और कानून जारी किया गया जिसके तहत हिंदू विधवाओं को फिर से शादी करने की इजाजत दी गई।

यह खबरें भी सुनने में आ रही थीं कि ब्रितानिया हुकूमत सरकार द्वारा स्थापित अनाथालयों में अनाथों को ईसाइयत की शिक्षा दे रहे हैं। यह बात और भी पक्की हो गई जब 1832 में यह कानून पास हुआ कि धर्मपरिवर्तन करने वालों को भी ख़ानदानी जायदाद में हिस्सा मिल सकता है, जोकि शरीयत के एकदम खिलाफ था।

यह अफवाहें भी फैल रही थीं कि मिशनरियों को कंपनी की जेल में गिरफ्तार कैदियों के बीच धार्मिक प्रचार करने की खुली छूट है। और यह इल्ज़ाम गलत भी नहीं था क्योंकि जेल का सुपरिटेंडेंट भी जेनिंग्स की कमेटी का सदस्य था।” इससे भी ज्यादा गंभीर बात यह थी कि हिंदुस्तान पर कब्जा करने के बाद जमीनों पर कब्जे का फैसला किया गया था, जिसमें सैकड़ों मस्जिदें, मंदिर, सूफी दरगाहें और मदरसे थे। यह कहकर कि वक्फ के कागज सही नहीं हैं या कभी किसी और निरर्थक कारण से। दिल्ली में नौ ऐसी मस्जिदें थीं जो अपनी जमीन से किराया वसूल कर सकती थीं लेकिन उनकी जमीन पर भी कब्जा कर लिया गया जिससे नामवर मौलाना शाह अब्दुल अजीज बहुत नाराज थे।” कभी-कभी मस्जिद और मंदिर ढहाकर वहां सड़क बना दी जाती या उनकी जमीन जब्त करके मिशनरियों को चर्च बनाने के लिए दे दी जाती। इससे भी ज़्यादा अफसोस और बेहिसी की बात यह थी कि अक्सर यह ज़मीन या पुरानी मस्जिदें मिशनरियों और पादरियों को रहने के लिए दे दी जाती थीं।”

हालांकि यह मिशनरी उत्तरी भारत में ज़्यादा लोगों को धर्मांतरण के लिए तैयार नहीं कर पाए लेकिन उनके खिलाफ अवाम में इतनी दहशत फैल गई कि अगर अंग्रेज़ कोई अच्छा कदम भी उठाते तो वह शक की नज़र से देखा जाता। जब सहारनपुर में अंग्रेज़ एक अस्पताल बनवाना चाह रहे थे तो लोगों में बेचैनी की लहर दौड़ गई कि यह पर्दे के रिवाज़ को ख़त्म करवाने के लिए है क्योंकि पर्दानशीन औरतों से कहा जा रहा था कि वे घर पर इलाज कराने के बजाय अस्पाताल जाएं। इसी तरह सारे स्कूल और कालेजों को भी मिशनरी कार्रवाइयां करने और फैलाने का ज़रिया समझा जाने लगा।”

यही शिकायत बेगम हजरत महल को भी थी जब उन्होंने लखनऊ में अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई शुरू की थी। बगावत के आखिर में उन्होंने एक ऐलान में अंग्रेज़ों को धार्मिक आज़ादी देने के दावे का मजाक उड़ाया। “सूअर और गाय का गोश्त खाना, मिठाइयों में सूअर की चिकनाई मिलाना, चर्बी लगे कारतूसों को मुंह से काटना, चर्च या सड़क बनाने के बहाने मस्जिदों और मंदिरों को ढहाना, पादरियों के जरिए गली-कूचों में ईसाई धर्म की शिक्षा फैलाना और लोगों को अंग्रेज़ी विज्ञान सीखने के लिए वजीफे देना, जबकि आज तक सब हिंदुओं और मुसलमानों के पूजास्थलों की तरफ से बिल्कुल लापरवाही बरती गई है। इन सब बातों के बावजूद लोग किस तरह यकीन कर सकते हैं कि धर्म में बिल्कुल दखल नहीं दिया जाएगा।”

इसीलिए यह कोई इत्तेफाक की बात न थी कि जेनिंग्स के 1852 में दिल्ली आने के बाद वहां के उलमा की ओर से पहली बार एक जवाबी हमले के संकेत प्राप्त हुए। इसी साल एक नामवर आलिम मौलाना रहमतुल्लाह कैरानवी ने एक निबंध “अज़ालतूल अवहाम” (वहमों को मिटाने वाली) प्रकाशित करके बंटवाया। मौलाना लिखते हैं:

शुरू में आम मुसलमानों ने मिशनरियों के उपदेशों पर कोई खास ध्यान नहीं दिया और न ही उनकी किताबें और पत्रिकाएं पढ़ीं। इसलिए किसी हिंदुस्तानी आलिम ने उसकी काट करने पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन कुछ वक्त के बाद कुछ लोग कमज़ोर पड़ने लगे और उनमें से कुछ अनपढ़ मुसलमान लड़खड़ाने लगे। इसलिए हममें से कुछ इस्लामी उलमा को इसको गलत साबित करने की तरफ ध्यान देना पड़ा।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here