पहाड़गंज के देश बंधु गुप्ता रोड (Desh Bandhu Gupta Rd) अब अमृतसरी जायकों के लिए भी जाने जाने लगा है। यहां अमृतसर में परोसे जाने वाले स्वाद के साथ पुरानी दिल्ली के मसालों का चटपटा स्वाद भी शामिल हो गया है जो किसी के भी मुंह में पानी लाने के लिए काफी है। इस मार्ग पर कदम कदम पर चूर चूर के नान की दुकानें और खोमचे लग गए हैं । शायद इसलिए यहां से गुजरने वाले लोगों और पर्यटकों के लिए इस रास्ते पर यूं ही जायकों की तलाश में चले आना महज इत्तेफाक नहीं होता। कुछ लोग अपने सफर को जायकों से लजीज बनाने के लिए भी यहां से अकसर गुजरते हैं। इस रास्ते पर सबसे पुरानी दुकान चावला चूर चूर के नान (chawla ke chur chur naan paharganj) काफी लोकप्रिय हो चुकी है।

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन (new delhi railway station) के नजदीक अजमेरी गेट की तरफ जाने वाली देशबंधु गुप्ता रोड अब अमृतसरी जायकों का नया ठिकाना है। पिछले दो दशकों में यहां कई तरह के नान और दाल मखनी के जायकों का लोग लुत्फ उठा रहे हैं। इस रोड पर छोटी बड़ी करीब आधा दर्जन दुकानें खुल चुकी हैं लेकिन चावला चूर चूर के नान की मशहूरियत दूर दूर तक है। खासकर पर्यटकों के लिए स्वाद के इस ठिकाने में सात तरह के नान का स्वादिष्ट स्वाद मौजूद है। आलू, गोभी, पनीर, पालक, दाल, मिर्च, मूली के नान की थाली में दाल मखनी, छोले, रायता और चटपटी चटनी के साथ लच्छेदार प्याज।

अमृतसरी थाली (amritsari thali) को लगाने के तरीके और इन जायकों को देख कर ही मुंह में पानी भरने लगता है। इस दुकान के संचालक मनोहर चावला बताते हैं कि पहले उनके पिताजी स्वर्गीय वजीर चंद ने इसी रोड पर कुल्फी, रबड़ी, भल्ले पापड़ी की रेहड़ी लगाई। फिर किसी काम से उन्हें अमृतसर जाना पड़ा। वहीं किसी ढाबे में नान को चूर चूर कर परोसते देखा। इसका स्वाद इतना स्वादिष्ट था कि वहीं से उन्होंने इसे दिल्ली में भी आजमाने की सोची। करीब 35 साल पहले इसी रोड पर आईस्क्रीम की ठेली छोड़ उन्होंने चूर चूर के नान बनाना शुरू किया। शुरुआत से ही यहां सात तरह के नान पकाए जाने लगे। उस समय नान की थाली की कीमत आठ रुपए हुआ करती थी। लेकिन नान का गर्मागर्म, कुरमुरा स्वाद ने लोगों को अपना मुरीद बना लिया। यह स्वाद यहां के लोगों को भी भाया और फिर क्या वो सफर आज भी बदस्तूर जारी है। मनोहर बताते हैं कि पिताजी की तरह नान और छोलों में घर पर तैयार मसालों का ही इस्तेमाल किया जाता है।

वे बताते हैं कि तीस दशक पहले भी इस दुकान पर लोग खाने पर जमा हुआ करते थे, खासकर चुनाव के समय जब नेता की तकरीरों में नान के जायकों का चटपटा और तीखा स्वाद शामिल हो जाया करता था। इतने साल बीतने के बाद भी चूर चूर के नान का नाम आज भी बरकरार है। आज 80-90 रुपए में भी लोग बड़े चाव से नान खाने आते हैं। इसके साथ लोग चाहे तो अमृतसरी लस्सी का स्वाद भी ले सकते हैं। मनोहर बताते हैं कि इस जायके ने उन्हें मशहूरियत दी इसलिए इसके स्वाद से कही कोई समझौता नहीं किया गया। इसी वजह से दूसरे लोगों ने भी इस स्वाद को अपनाने की कोशिश की। उन्होंने बताया कि पिताजी ने इसके लिए पंजाब में ढाबों वालों से ट्रेनिंग भी ली। एक महीने के ट्रेनिंग के दौरान वहां के जायके के साथ लाहौरी स्वाद भी जुड़ गया। सन 1947 में भारत पाक विभाजन के बाद लाहौर से आए हिन्दू लोगों ने पहाड़गंज में अपना नया बसेरा बसाया। सरहद पार से आए लोगों के पास कुछ सामान और कुछ हुनर की साथ आ पाया था। बड़ी हिम्मत से लोगों ने अपना बसेरा न केवल बसाया बल्कि लोगों को अपने खाना बनाने के हुनर से भी रूबरू कराया। कुल्फी की ठंडक से गर्मागर्म करारे आलू गोभी नान तक के जायके को लोगों ने खूब पसंद किया।

दिल्ली के लोगों के बेशुमार प्यार के कारण आज चावल चूर चूर नान एक नया पता बन गया है उस जायके का जिसका सफर अमृतसर में कही शुरू हुआ था। भट्टी, और बड़े पतीलों में सुबह तड़के ही नान बनाने के आटे माड़ने से लेकर स्टफिंग बनाने तक के अंदाज में कुछ अलग है जो थाली के स्वाद में भी झलकता है। मनोहर 65 वर्ष की उम्र में भी नान की थाली खुद लोगों को परोसते हैं, पैसे के साथ लोगों के चेहरे पर आती मुस्कुराहट ही मेहनत का इनाम है।

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