Contribution of students of Delhi's schools, colleges in the country's independence
15 अगस्त 1947..ये वो तारीख है, जब भारत को 200 सालों की गुलामी से आजादी मिली थी। पूरा देश जश्न में डूब गया। उत्तर से लेकर दक्षिण, पूर्व से लेकर पश्चिम तक लोगों ने जी भर के जश्न मनाया। लेकिन इस आजादी के लिए सैकड़ों वीरों ने कुर्बानी दी। सिर पर कफन बांधकर निकले क्रांतिकारियों ने सीने पर गोलियां खायी। कई रातें भूखे गुजरी तो कईयों को तो घर-परिवार ही छोड़ना पड़ गया था। क्रांतिकारियों की तपस्या के फलस्वरूप ही आजादी मिली है। इस आंदोलन में दिल्ली के लोगों ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। क्या युवा, क्या बुजुर्ग, क्या महिलाएं सभी महात्मा गांधी के एक बोल पर जेल जाने तक को तैयार थे। दिल्ली के कालेजों में जहां छात्रों ने आंदोलनों को धार दी वहीं महिलाओं, गृहणियों ने चारदीवारी के भीतर ही आजादी के आंदोलनों की ऐसी रुपरेखा तैयार की कि कई बार अंग्रेज भी गच्चा खा जाते। हाथों में तिरंगा लिए महिलाओं का समूह बेखौफ होकर चांदनी चौक, कश्मीरी गेट में निकलता। तो वहीं युवाओं का उत्साह तो देखिए जिन्होंने कभी थियेटर के जरिए क्रांतिकारियों के लिए सहयोग राशि एकत्रित की तो कभी अंग्रेज अधिकारियों के मुंह पर भारत माता की जय बोल अपनी देशभक्ति प्रदर्शित की।
छात्रों को हॉस्टल से निकाला
दिल्ली अभिलेखागार विभाग में मौजूद दस्तावेजों के मुताबिक 29 अगस्त 1942 को हिंदू कालेज ने एक नोटिस निकाला। जिसमें कहा गया था कि द्वितीय वर्ष के तीन छात्र आरके सोनी, केसी जैन और पीएन सूद ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया है। छात्रों को 24 घंटे के अंदर हास्टल खाली नहीं करने पर कालेज से निकालने की भी धमकी दी गई।
सांडर्स की हत्या के बाद पोस्टर
30 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन भारत आया। पूरे देश में ‘साइमन कमीशन वापस जाओ’ के नारे लगे। इस विरोध की अगुवाई पंजाबी शेर ‘लाला लाजपत राय’ कर रहे थे। पुलिस की लाठियों से जख्मी लाजपत राय ने 17 नवंबर 1928 दम तोड़ दिया। एक माह बाद 17 दिसंबर 1928 दिन स्कॉट की हत्या के लिए निर्धारित किया गया। लेकिन निशाने में थोड़ी सी चूक हो गई। स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुप्रीटेंडेंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स निशाना बन गए। सांडर्स जब लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर से निकल रहे थे, तभी भगत सिंह और राजगुरु ने उन पर गोली चला दी। सांडर्स की मौत के बाद दिल्ली की गलियों में जगह जगह पोस्टर लगाए गए। जिसमें लिखा था कि ब्यूरोक्रेसी बी अवेयर। 30 करोड़ भारतीयों के सम्मानित नेता लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लिया गया। आज दुनिया ने यह देख लिया कि भारतीयों का खून ठंडा नहीं है। इसमें हुकूमत को भारतीयों पर जुल्मों सितम बंद करने की भी चेतावनी दी गई।
स्वतंत्र भारत चिरंजीवी हो
देहली विद्यार्थी संघ (दिल्ली स्टूडेंट फेडरेशन) ने कमर्शियल कालेज हास्टल, 4 दरियागंज से एक पंपलेट जारी किया, जिसे पूरी दिल्ली में चस्पा किया गया था। इसमें लिखा गया था कि स्वतंत्र भारत चिरंजीवी हो। यह भी दिलचस्प है कि यह पोस्टर आजादी के पहले ही जारी किया था। इसमें कहा गया कि संगठन राष्ट्रीय जंग के लिए सैनिक तैयार करना, राष्ट्रीय जन आंदोलनों को विद्यार्थियों से जोड़कर मजबूत बनाना समेत कई अन्य मसलों पर छात्रों की आवाज मुखर करना था। सन 1938 में होने वाले छात्र सम्मेलन को सफल करने के लिए छात्रों को संगठन से जुड़ने की अपील भी इस पंपलेट में की गई थी।
नौवीं कक्षा के छात्रों से सहमे अंग्रेज
अभिलेखागार दिल्ली के एमबी स्कूल के नौवीं कक्षा के छात्रों ने अंग्रेजों के विरोध एवं राष्ट्रीय आंदोलनों के प्रति समर्थन का ऐसा तरीका निकाला कि अंगे्रजों के हाथ पांव फूल गए। दरअसल, छात्रों ने शर्ट के बटन पर भगत सिंह की तस्वीर लगा ली। जिसे देखकर बड़े लोग भी हैरान रह गए। अंग्रेज इस कदर परेशान हुए कि सीआईडी के सुपरिटेंडेंट आफ पुलिस ने 5 नवंबर 1930 को स्कूल प्रशासन को पत्र लिखकर छात्रों को सख्त हिदायत तक दे डाली। साथ ही हेडमास्टर और सेकेंड मास्टर को इसके लिए जिम्मेदार तक ठहरा दिया।
थियेटर से आंदोलन में सहयोग
आजादी की लड़ाई में सिर्फ भारी भरकम राशि से ही मदद नहीं की जा सकती है। ऐसी ही एक राह सुझायी दिल्ली स्टूडेंट फेडरेशन ने। जिसने 10 नवंबर, 1938 को दिल्ली में हर जगह एक पोस्टर चिपकाया था। इसमें लिखा था कि आंदोलन में सहयोग के लिए एक थियेटर का आयोजन किया जा रहा है। छात्रों द्वारा आयोजित नाटक में एक रुपये का टिकट लेकर भी प्रवेश मिलेगा। यह राशि बतौर सहायता राशि आंदोलनकारियों को दी जाएगी। टिकट 1 रुपये, 2, 3, 5 और 10 रुपये की थी।
इनकी आवाज सुनकर आंदोलन में कूदी महिलाएं
अरुणा आसफ अली ने स्मारिका शताब्दी पत्रिका(1885-1985)में एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने दिल्ली की उन महिलाओं का जिक्र किया है, जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने लिखा है कि सन 1920 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी ने संभाला। उस समय तक पुरुषों की ओर से महिलाओं को घरों से बाहर की गतिविधियों में भाग लेने की इजाजत नहीं मिलती थी। तथापि गांधी के सिविल नाफरमानी आंदोलन ने स्त्री पुरुषों को प्रभावित किया और महिलाएं बड़ी संख्या में आंदोलन में भाग ली। सन 1931-32 सिविल नाफरमानी, 1941-44 के आंदोलनों में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। सत्यवती देवी दिल्ली की अग्रणी महिला नेता थी। उनके भाषणों से प्रेरित होकर कई महिलाओं ने एवं मैं स्वयं अपने सुरक्षित एवं आरामदेह गृह जीवन को त्याग बाहर निकली हूं। सत्यवती को बाद में क्षय रोग हो गया और सन 1945 में महज 41 साल की कम उम्र में उन्होंने दम तोड़ दिया।
बाल विधवा ने थामी आंदोलन की कमान
अरुणा आसफ अली लिखती हैं कि सत्यवती के व्यक्तित्व से कालेजों की छात्राएं, गृहणियां प्रेरित हुई। विशेषकर हिंदू कालेज, इंद्रप्रस्थ गर्ल हाईस्कूल की छात्राएं। इन कालेज छात्राओं ने ऐसी गृहणियों का दल भी गठित किया जिन्होंने कभी धरना प्रदर्शन में भाग भी नहीं लिया था। इन गृहणियों में प्रमुख थी मेमोबाई। जो दिल्ली के अत्यंत ही रुढ़िवादी परिवार की बाल विधवा थी। जब ये स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रुप से हिस्सा लीं तो अनपढ़ थी लेकिन यहां इन्हें लिखना पढ़ना भी सिखाया गया। सत्यवती के प्रयासों से दिल्ली की सरस्वती गाडोदिया, पार्वती डिडवानिया, दमयंती साहनी, चांदबीबी और चांद कोहली जैसी महिलाएं आंदोलन की सक्रिय सदस्य बनीं।
इंद्रप्रस्थ की सरकारी सहायता बंद
लड़कियों के इंद्रप्रस्थ स्कूल और कालेज ने इस आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। दिल्ली के चीफ कमिश्नर ने इंद्रप्रस्थ स्कूल को मिलने वाली सरकारी सहायता बंद करने की धमकी तक दे डाली थी। किंतु लोगों ने ना केवल सरकार के इस कदम की निंदा कि बल्कि जनता के बीच जाकर स्कूल की मदद की गुहार लगाई। नतीजा, चंदा के रुप में काफी धनराशि एकत्रित हुई थी।
शाहदरा में नमक सत्याग्रह
आसफ अली ने लिखा है कि नमक सत्याग्रह के समय शाहदरा के पास एक दलदली स्थान पर जमीन के नीचे खारा पानी था। यहां नमक बनाने का फैसला लिया गया। कानून तोड़ नमक बनाते वक्त करीब 50 लोग रहते थे। हम लोगों ने दस तीन तक वहां जाकर नमक बनाया। नमक तैयार कर मुफ्त में लोगों में बांट देते। इससे तिलमिलायी पुलिस हमपर आसूं गैस के गोले और लाठीचार्ज पर आमद हो गई।