-आजादी के दिन पुरानी दिल्ली में उत्सव सा था माहौल

कहीं मिठाईयां बंट रही थी तो कहीं ढोल नगाड़े पर लोग नृत्य कर रहे थे। सबके चेहरे पर खुशी थी। हर कोई मस्त मौला होकर दिल्ली की गलियों में झूम रहा था। दुकानों पर तिरंगा झंडा लहरा रहा था तो गलियों में लगे लाउड स्पीकर देशभक्ति का तराना छेड़ रहे थे। माहौल, बंधुत्व की जड़े और गहरा कर रहा था। मिलने पर एक दूसरे से दुआ सलाम भी जय हिंद बोलकर ही हो रहा था। पहली आजादी का जश्न कुछ इसी अंदाज में दिल्लीवासियों ने मनाया था। लोगों का हुजूम लाल किला, परेड ग्राउंड पर ही नहीं रामलीला मैदान, इंडिया गेट पर उमड़ा था। दिल्ली के पुराने बाशिंदों ने किताबों में शब्दों के जरिए अपने अनुभवों को साझा किया है। तो आइए चलते हैं, उनकी यादों के साथ आजादी के पहले जश्न को तरोताजा करने-

इंडिया ऑफ द पास्ट में विजय लिखते हैं कि उनका बचपन धर्मपुरा गली, चांदनी चौक में बीता। यहीं जैन प्राइमरी स्कूल में पढ़ाई की। आजादी से चंद दिन पहले हर तरफ भय और डर का माहौल था। हिंदु और मुस्लिम दोनों ही एक दूसरे से डरते थे। रात-रात भर पहरेदारी होती थी। हालांकि, शुक्र है कि ऐसा कुछ हुआ नहीं। हां, शरणार्थियों के आने से पुरानी दिल्ली का रहन सहन, बोल चाल जरुर बदल गया। रोजमर्रा की भाषा एवं बोली में कई नए शब्द जुड़ गए। यही नहीं खाने में भी छोले भटूरे और कुल्चे जैसे जायके नए आ गए। पुरानी दिल्ली के जलेबी का जो आकार पहले गोल्डेन था वो बड़े पीले टुकड़ों में बदल गया। पहले हमारी गली में सिर्फ देशी घी की खुशबू आती थी अब वहां अदरक, प्याज, सिरका की खुशबू आने लगी। मिलने पर आम बोलचाल की जगह की हाल है, तुसी दसा(यू टेल मी) और चंगा (बेहतर) जुड़े।

विजय लिखते हैं कि शरणार्थियों के आने के बाद नया लाजपत राय मार्केट खुला। धीरे धीरे यह पूरा इलाका इतना भीड़ भाड़ वाला हो गया कि लोगों की पसंदीदा ट्राम चलनी बंद ही हो गई। पहले स्वतंत्रता समारोह के दिन जैन स्कूल के मास्टर जी ने पूरा इंतजाम किया था। उन्होंने पहले हमें आजादी में योगदान देने वाले नेताओं के बारे में बताया। एवं फिर प्रभात फेरी निकाली गई। समारोह से कुछ दिन पहले ही गलियों में नियमित सफाई की जाने लगी थी, लाउडस्पीकर बालकनी, इलेक्ट्रानिक पोल्स में लगाए जा रहे थे। पूरी गली में तिरंगा लहरा रहा था। झंडा फहराने के बाद हमने जन गण मन एवं वंदे मातरम गाया। बच्चों में मिठाई बांटी गई। एवं फिर हम परेड ग्राउंड गए जहां प्रधानमंत्री का भाषण सुना। पूरा भाषण आल इंडिया रेडियो द्वारा लगाए गए लाउडस्पीकर के जरिए साफ साफ सुना जा सकता था।

न्यूजीलैंड में रहने वाले सर्जन डॉ मुनीर कादिर पोस्टर स्पेस में लिखते हैं कि मैंने मन बना लिया था कि मैं दिल्ली जाकर पहले स्वतंत्रता समारोह का साक्षी बनूंगा। महात्मा गांधी से बड़ोदरा में मुलाकात हुई। उन्होंने कहा- क्या तुम पागल हो। सेलिब्रेशन जैसा क्या है। मैं उस दिन खून के आसूं रोउंगा। लेकिन मैं जाना चाहता था। कादिर लिखते हैं कि मैं गांधी को नौ वर्ष की उम्र से जानता था। जब वो जामिया मिलिया आए थे। उस समय वह प्राइमरी स्कूल था, जिसमें 75 बच्चे, 15 अध्यापक थे। सिर्फ मुझे गुजराती आती थी, इसलिए मुझे महात्मा गांधी का स्वागत करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। खैर, मैं अपने दोस्त के साथ 13 अगस्त की सुबह दिल्ली पहुंच गया। सीधे जामिया कैंपस गया। जाकिर हुसैन से मुलाकात हुई, जिन्होंने पार्लियामेंट के दो पास दिए। जाकिर हुसैन बाद में राष्ट्रपति बने। 14 अगस्त की रात 9 बजे हम पार्लियामेंट पहुंचे। विजिटर गैलरी खचाखच भरी थी। भीड़, गांधी-नेहरू जिंदाबाद के नारे लगा रही थी। मैंने यहां नेहरू समेत अन्य नेताओं के भाषण सुने। रात काफी हो गई थी, फिर भी दिल्ली में मानों दिन सा नजारा था। लोग घुम रहे थे। मैं भी अपने दोस्त के साथ सीधे चांदनी चौक चला गया। यहां घंटा घर को बड़े ही खूबसूरत तरीके से सजाया गया था। लाइटों से घंटाघर जगमग हो रहा था। यह पूरा दिन कैसे गुजर गया, पता ही नहीं चला।

दिल्ली मानों त्योहार मना रही थी। हर तरफ लोग खुश होकर इस दिन को सेलिब्रेट कर रहे थे। 16 अगस्त को तड़के सुबह ही हम लाल किला पहुंचे। क्यों कि यहां तिरंगा झंडा फहराया जाना था। देहात से लोग बड़ी संख्या में लाल किला आा रहे थे। ऊंट, बैलगाड़ी, घोड़ा गाड़ी पर बैठकर लोगों का हुजूम पहुंच रहा था। इन्हें देखना किसी सुखद अनुभव से कम नहीं था। जय हिंद के नारे लग रहे थे। सुबह करीब 10 बजे ध्वजारोहण कार्यक्रम हुआ। इस तरह लाल किले में पैर रखने तक की जगह नहीं थी। जहां देखो वहीं लोगों का हुजूम दिखाई दे रहा था। अगली फ्लैग सेरेमनी शाम साढ़े चार बजे रामलीला मैदान में होनी थी। यहां से भीड़ फिर दोबारा रामलीला मैदान की तरफ कूच की। मुझे पहली कैबिनेट के मंत्रियों से भी मुलाकात का मौका मिला था।

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