दादा भाई नैरोजी को दी गई भारतीय राष्ट्रवाद के जनक भी उपाधि
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
दादाभाई नौरोजी एक ऐसे उत्कृष्ट बुद्धिजीवी और निःस्वार्थ देशभक्त थे जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर दिया। सभी उन्हें प्यार और आदर से ‘भारत का महान युगपुरुष’ और ‘भारतीय राष्ट्रवाद का जनक’ कहते थे।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
नौरोजी पालनजी डोरडी और मानिकबाई के पुत्र दादाभाई नौरोजी का जन्म 4 सितंबर 1825 को बम्बई में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा शहर के एक प्राथमिक विद्यालय में हुई। उनके एक शिक्षक की सलाह पर दादाभाई को माध्यमिक शिक्षा के लिए एल्फिन्स्टन इंस्टीट्यूट (अब एल्फिन्स्टन कालेज), बम्बई भेज दिया गया जहां पर उनका विद्यार्थी-जीवन प्रतिभा से परिपूर्ण रहा।
उन्होंने वर्ष 1840 में प्रतिष्ठित क्लेयर छात्रवृत्ति सहित अनेक छात्रवृत्तियां और पुरस्कार प्राप्त किए। गणित, प्राकृतिक दर्शन और राजनीतिक अर्थव्यवस्था में दादाभाई की गहरी रुचि थी और वर्ष 1845 में उन्होंने स्नातक की उपाधि प्राप्त की। सात दशक बाद वर्ष 1916 में बम्बई विश्वविद्यालय ने दादाभाई को एलएल.डी. की मानद उपाधि से सम्मानित किया।
लंदन के विश्वविद्यालय में पढ़ाया
स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात् दादाभाई के लब्धप्रतिष्ठ जीवन का प्रारंभ एल्फिन्स्टन इंस्टीट्यूट, बम्बई में ‘नेटिव हेड असिस्टेंट’ के रूप में हुआ। वर्ष 1850 में, वह गणित तथा प्राकृतिक दर्शन के असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त हुए और इस प्रकार, उन्होंने इस इंस्टीट्यूट में इस पद पर नियुक्त होने वाले प्रथम भारतीय होने का गौरव प्राप्त किया।
वर्ष 1855 में, वह ‘कामा एंड कंपनी’ की व्यावसायिक फर्म में साझीदार के रूप में कार्य करने के लिए इंग्लैंड गये। इंग्लैंड में अपने व्यवसाय के अतिरिक्त उन्होंने लन्दन के यूनिवर्सिटी कालेज में गुजराती भाषा के प्रोफेसर के रूप में भी कार्य किया इस पद पर उन्होंने लगभग एक दशक तक कार्य किया।
बड़ौदा के दीवान नियुक्त
वर्ष 1861 में दादाभाई नौरोजी ने लन्दन जोरोस्ट्रियन एसोसिएशन की स्थापना की और वर्ष 1865 में उन्होंने लन्दन इंडिया सोसायटी की स्थापना की तथा इसके अध्यक्ष बने और 1907 तक इस पद पर रहे।
उन्होंने 1 दिसम्बर, 1866 को द ईस्ट इंडिया एसोसिएशन, लन्दन की स्थापना की और इसके सचिव बने। वर्ष 1869 में वह बम्बई लौट आए। वर्ष 1874 में उन्हें बड़ौदा का दीवान नियुक्त किया गया लेकिन महाराजा और “रेजीडेन्ट” के साथ मतभेद होने के कारण उन्होंने एक वर्ष बाद ही त्यागपत्र दे दिया।
जस्टिस आफ द पीस बनें
जुलाई 1875 में दादाभाई नौरोजी बम्बई नगर निगम के सदस्य के रूप में उसी वार्ड से चुने गये जिसमें पचास वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ था। उसी वर्ष सितम्बर में वह इस निगम की नगर परिषद् (वित्त समिति) के लिए चुने गए। वर्ष 1883 में उन्हें “जस्टिस ऑफ द पीस” नियुक्त किया गया। बाद में वह बम्बई नगर निगम के लिए दूसरी बार निर्वाचित हुए।
दादा भाई नौरोजी का करियर
नागरिक कार्य और जन-कल्याण के प्रति दादाभाई में अद्भुत उत्साह भर। हुआ था। जनवरी 1885 में, जब ‘बॉम्बे प्रेसीडेंसी एसोसिएशन’ की स्थापना हुई, तब वह उसके एक उपाध्यक्ष चुने गये। अगस्त, 1885 में दादाभाई नौरोजी गवर्नर लार्ड रिये के निमंत्रण पर बम्बई विधान परिषद् के सदस्य बन गये। वर्ष के अंत में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना करने में अग्रणी भूमिका निभाई तथा तीन बार अर्थात् 1886, 1893 और 1906 में उसके अध्यक्ष बने।
ब्रिटेन के पहले भारतीय सांसद बनें
दादाभाई 1886 में पुनः इंग्लैंड गये ताकि वह वहां भारत के लोगों की शिकायतों को व्यक्त कर सकें और उन्हें उचित सुनवाई और न्याय दिला सकें। दादाभाई इतने दृढ़ निश्चयी और अटल प्रवृत्ति के व्यक्ति थे कि वह 1892 में सेन्ट्रल फिन्सबरी निर्वाचन क्षेत्र से ब्रिटेन की संसद के सदस्य निर्वाचित हुए और इस प्रकार वह ब्रिटेन की संसद में चुने जाने वाले पहले भारतीय बने।
ब्रिटेन की संसद में अपने अल्पकाल (1892-1895) के दौरान ही दादाभाई की विशेष भूमिका ने ब्रिटिश सरकार पर गहरी छाप छोड़ी। वर्ष 1897 में संक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया, जार्ज हैमिल्टन ने ब्रिटेन की संसद में दादाभाई नौरोजी की कार्यविधि और उनको निर्भीकता तथा भारतीय हित के बारे में उनके प्रबल समर्थन के संबंध में भारत के वायसराय, लार्ड एल्गिन को बताया।
अपने सहयोगियों, सर विलियम वेडरबर्न और डब्ल्यू.एस, कैन की सहायता से दादाभाई ने भारतीय संसदीय समिति का गठन किया जिसने देश की पर्याप्त सेवा की। दादाभाई द्वारा संसदीय क्षेत्र में किए गए श्रम के परिणामतः उन्होंने ब्रिटेनवासियों को धनसंपदा के ‘निर्गमन’ का सिद्धांत समझाया जिसमें तथ्यों और आंकड़ों को प्रस्तुत करते हुए, ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत के संसाधनों को योजनाबद्ध रूप से रिक्त करना दर्शाया गया था। यह ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध उनका आरोप था और उन्होंने इसकी जांच करने के लिए तत्काल एक ‘रॉयल कमीशन’ नियुक्त करने की मांग की। इसके परिणामस्वरूप, ब्रिटिश शासन ने 1895 में भारतीय व्यय संबंधी “रॉयल कमीशन” की नियुक्ति की। दादाभाई नौरोजी ऐसे पहले भारतीय थे जिन्हें रॉयल कमीशन में बतौर सदस्य शामिल किया गया था। बाद में उनका ‘निर्गमन सिद्धांत’ (ड्रेन थ्योरी) ‘पावर्टी एंड अन-ब्रिटिश रूल इन इंडिया’ शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ।
दादाभाई ने सदैव संवैधानिक तरीके अपनाने का समर्थन किया और भारत की मांगों की गम्भीरता और न्यायसंगतता से अंग्रेजों को परिचित कराने के लिए भारत के लोगों को प्रेरित किया। ब्रिटेन की जनता और सरकार के समक्ष उन्होंने जो सर्वाधिक महत्व की मांगें रखी थीं, वह विधान परिषदों में सुधार करने, सेवाओं का भारतीयकरण करने, भारत और इंग्लैंड के बीच उचित आर्थिक संबंध स्थापित करने और कार्यपालिका तथा न्यायपालिका को पृथक् करने से संबंधित थीं।
समाज सुधारक नौरोजी
उन्होंने भारत के राष्ट्रीय नेताओं, विशेषकर युवा पीढ़ी से आग्रह किया कि वे, परिस्थितियों और ब्रिटेन के रवैये के प्रतिकूल होने के बावजूद अपना संघर्ष और भी अधिक शक्ति, जोश और उत्साह के साथ जारी रखें। एक अग्रणी समाज सुधारक, दादाभाई नौरोजी जातिवाद और जातिगत बंधनों के विरुद्ध थे, महिला-शिक्षा के समर्थक तथा पुरुषों और महिलाओं के लिए समान कानून के पक्षधर थे।
भारतीय आर्थिक विचारधारा के इतिहास में दादाभाई भारत की राष्ट्रीय आय के मूल्यांकन में अपने महत्वपूर्ण कार्य के लिए काफी विख्यात थे। अपने समय के उत्कृष्ट अर्थशास्त्रियों में से एक होने के कारण उन्होंने उन बातों का पता लगाया और विश्लेषण किया जो आवश्यकताओं, साधनों के अभाव और बेरोजगारी से परेशान तथा भारी कराधान के बोझ से कराह रहे भारतीयों को दयनीय आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेदार थीं।
स्वराज का अर्थ स्पष्ट किया
वर्ष 1906 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता में हुए अधिवेशन में दादाभाई के भाषण का प्रमुख विषय “स्वराज” था। “स्वराज” का अर्थ स्पष्ट करते हुए दादाभाई ने कहा था:
जिस प्रकार सभी सेवाओं, विभागों और अन्य कायों में ब्रिटेन का प्रशासन उस देश की जनता के हाथों में होता है, वैसा ही भारत में भी होना चाहिए।
जिस प्रकार ब्रिटेन और उसके उपनिवेशों में सभी प्रकार का कर-निर्धारण और विधान संबंधी कार्य तथा करों के व्यय करने की सारी शक्तियां जनता के प्रतिनिधियों के हाथों में होती हैं, वैसा ही भारत में भी होना चाहिए और इंग्लैंड एवं भारत के बीच वित्तीय संबंध बराबरी के सिद्धांत पर आधारित होने चाहिएं।
न्याय चाहिए
हमें अनुकम्पा नहीं बल्कि न्याय चाहिए। ब्रिटेन के नागरिकों के रूप में अपने अधिकारों के पुनः वर्गीकरण या विस्तार में जाने की बजाय सारी बात को मात्र एक शब्द “स्वशासन” अथवा “स्वराज” में व्यक्त किया जा सकता है।
दादाभाई ने आत्मनिर्भरता का समर्थन किया तथा कुटीर उद्योगों को अत्यधिक महत्व दिया। उन्होंने घोषणा की कि “स्वदेशी, भारत के अस्वाभाविक आर्थिक दलदल से बचने के लिए बलात् लादी गई आवश्यकता है। जब तक आर्थिक स्थिति अस्वाभाविक तथा निर्धन बनाने वाली रहेगी…..तब तक भारत की स्थिति में आर्थिक कानून लागू करने की बात जले पर नमक छिड़कने जैसा होगा।”
लेखन से जगाई राष्ट्रवादी विचारों की अलख
दादाभाई ने अपने राष्ट्रवादी विचारों को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सतत लेखन के माध्यम से व्यक्त किया। प्रारंभिक वर्षों में वह एल्फिन्स्टन कॉलेज, बम्बई में “स्टूडेंट्स लिटरेरी एण्ड साइंटिफिक सोसायटी’ द्वारा निकाले जाने वाले पत्र “स्टूडेंट्स लिटरेरी मिस्सिलेनी” में लगातार लिखते रहे।
उन्होंने “ज्ञान प्रसारक” पत्रिका का सम्पादन किया और सामाजिक विषयों पर अनेक लेख लिखे। उन्होंने 1878 में “पावर्टी ऑफ इंडिया” नामक एक पुस्तिका प्रकाशित की, जिसको उन्होंने बाद में संशोधित और विस्तृत रूप में “पावर्टी एण्ड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया” नामक पुस्तक का रूप दिया जो 1901 में लंदन से प्रकाशित हुई। वर्ष 1883 में उन्होंने बम्बई में “वायस ऑफ इंडिया” शुरू किया और बाद में इसे “इंडियन स्पेक्टेटर” में शामिल कर लिया।
उन्होंने 1889 में अपने कुछ सहयोगियों के साथ मिलकर एक गुजराती साप्ताहिक पत्रिका “रास्त गोफ्तार” (सत्यवादी) निकाली जा अपने उच्च और प्रगतिशील विचारों के लिए विख्यात थी और 2 साल तक इसका सम्पादन किया।
ब्रिटिश पत्रिकाओं में लिखें लेख
उन्होंने इंग्लैंड में “द कामर्स”, “द इण्डिया” “द्र कन्टेम्पोरेरी रिव्यू”, “द डेली न्युज”, “द पैनचेस्टर गार्डिगन” “द वीकली न्यूज एण्ड क्रोनिकल” और “द पीयरसन्म मैगजीत” जैसे अनेक अखबारों और पत्रिकाओं के लिए लेख भी लिखे।
“डॉयलाग्स ऑफ सॉक्रेटीज एण्ड डायोजेनेस” शीर्षक से उनके लेखों की एक श्रृंखला गुजराती समाचारपत्र “समाचार दर्पण” ने प्रकाशित की थी। दादाभाई अंग्रेजी और गुजराती दोनों भाषाओं के उत्कृष्ट वक्ता थे और उनके भाषण सरलता एवं ओजस्विता की दृष्टि से उत्कृष्ट होते थे।
निधन
अपने अंतिम समय में दादाभाई प्रायः अस्वस्थ रहते थे। दिनांक 1 जून, 1917 को प्रातः वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गए। बम्बई में 30 जून, 1917 की शाम को उनका निधन हो गया। उस समय उनकी आयु 92 वर्ष की थी। दादाभाई का पार्थिव शरीर पारसी रीति-रिवाज के अनुसार “टावर ऑफ साइलेंस” को अर्पित कर दिया गया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कलकत्ता में हुए अपने 32वें अधिवेशन में दादाभाई की, मृत्यु पर शोक प्रस्ताव पारित किया जिसमें गहरा दुःख व्यक्त करते हुए “भारत और उसकी जनता के प्रति उनकी लोक सेवा भावना से अर्पित बहुमूल्य सेवाओं” का स्मरण किया गया।
दादाभाई को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए,गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा:
“कितना आदर्श जीवन रहा है उनका… गंगा के समान पवित्र, पृथ्वी के समान सहनशील, अहंकार से एकदम शून्य, देशभक्ति से परिपूर्ण, प्रेम से ओत प्रोत और ऐसे उच्त्व उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील जब कोई इस पर विचार करता है तो उसे लगता है मानो वह एक महान शक्ति से अनुप्राणित हो उठा है।”
महादेव गोविंद रानाडे ने भारतीय अर्थशास्त्र और वित्त के मामले में दादाभाई को अनुकरणीय नेता कहा है।
महात्मा गांधी ने कहा कि “दादाभाई ने देश की जो निर्वाध और सतत् सेवा को, वह भारत के लिये एक अनुकरणीय आदर्श सिद्ध होगी”।
दादाभाई नौरोजी का निःस्वार्थ जीवन, राष्ट्रसेवा और उत्कट देशभक्ति भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहेगी।