जब निकल्सन रिज कैंप पहुंचा तो अंग्रेजी सैनिकों ने क्या कहा

1857 की क्रांति: ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकल्सन शुक्रवार 14 अगस्त को दिल्ली के रिज पर ब्रिटिश कैंप में सुबह के नाश्ते से कुछ देर पहले पहुंचा। उसके साथ 1,000 ब्रिटिश सिपाही थे। 600 अनियमित फौजी घुड़सवार जो सब पंजाबी मुसलमान थे। एक ब्रिटिश तोपचियों का दस्ता था और 1,600 सिख सिपाही पीछे आ रहे थे। इस तरह विल्सन की छोटी सी फौज दोगुनी हो गई थी, लेकिन इस फौज से ज़्यादा अहम निकल्सन की अपनी मौजूदगी थी, जिसने संकटग्रस्त दिल्ली फील्ड फोर्स पर बहुत अच्छा असर किया।’ होडसन ने अपनी बीवी को लिखा कि “निकल्सन अपने आपमें एक सेना है। अब सारे कैंप में खुशी की लहर दौड़ गई है कि कोई निर्णयात्मक कदम लिया जाएगा।”

चार्ल्स ग्रिफिथ्स ने भी जो आमतौर से खामोश रहता था, उसकी तारीफ में बहुत अतिश्योक्ति से काम लियाः “हीरो निकल्सन के आने से हम सबकी हिम्मत बहुत बढ़ गई थी। हमने उसकी ताकत और कारगुजारी की बहुत कहानियां सुनी थीं। वह दुबला-पतला, लेकिन बहुत रोबदार था। उसका पूरा व्यक्तित्व ऐसा था जैसे वह ‘लोगों का बादशाह’ हो। शांत, आत्मविश्वासी, विल्कुल निडर, जिसका कोई मुश्किल रास्ता नहीं रोक सकती थी। उसके अदम्य साहस ने सारी फौज में एक नई रूह फूंक दी। हर एक की जबान पर निकल्सन का नाम था और हर सिपाही को इल्म था कि अब बहुत जोरदार कदम उठाए जाएंगे, जिनकी वजह से फतह यकीनी होगी।”

मई में पेशावर छोड़ने से पहले निकल्सन एक गुमनाम सिपाही था, जो उत्तर-पश्चिम सूबों का एक 36-वर्षीय सैनिक और सिविल सर्वेट था, जिसे उसके चंद दोस्तों के सिवाय कोई नहीं जानता था। लेकिन अब वह कुछ हफ्तों में एक दास्तान बन गया था। अंग्रेजों को भी एक हीरो की सख्त जरूरत थी, क्योंकि उन्होंने इतनी गलतियां और बेइंसाफियां की थीं, जिसकी वजह से बगावत शुरू हुई थी, और फिर शुरू-शुरू में उन्होंने उसे इतने धीमेपन, हिचकिचाहट और अनाड़ीपन से रोकना चाहा कि वह और तेजी से फैलती गई। उस वक्त निकल्सन की धार्मिकता, हिम्मत और गंभीरता, और उसके साथ-साथ उसकी बेतहाशा आक्रामकता और क्रूरता की क्षमता की बहुत जरूरत थी ताकि जो नाउम्मीद सिपाही रिज के ऊपर अपनी ढालों के पीछे जमा थे उनमें फिर से हिम्मत और जान आ जाए। फील्ड फोर्स के दस्ते दो महीनों के रोज़ाना हमलों से थक चुके थे।

और इन खबरों से और परेशान थे कि सारे हिंदुस्तान में जगह-जगह बगावत शुरू हो रही है। लखनऊ से भी रेजिडेंसी की घेराबंदी और वहां के सबसे बड़े सुरक्षा लीडर सर हेनरी लॉरेंस की मौत की खबरें आ रही थीं, और सबसे बड़ी परेशानी की बात मेरठ में बूढ़े जनरल हैविट की पूर्ण अक्षमता और सठियापा थी, और फील्ड फोर्स के एक के बाद एक बूढ़े और बीमार कमांडर जनरल एंसन, बरनार्ड और रीड की मौजूदगी थी। उनके लिए निकल्सन का आना और भी खुशी की बात इसलिए थी कि वह उनके बिल्कुल उलट था। उसके आने से पहले ही दिल्ली में उसके बारे में बहुत कहानियां सुनने में आ रही थीं। किस तरह उसके मार्च करते हुए दस्ते को 46 मील रोजाना चलना पड़ता था और किस तरह जब उसके सिपाही साये में आराम कर रहे होते, तो वह खुद ‘जलते सूरज में बाहर बिल्कुल स्थिर और सीधा घोड़े पर बैठा रहता’ और कि वह कभी सोता नहीं था, और रात को जब और सब लोग आराम करते होते, तो वह अपने खत और रिपोर्ट लिखता रहता। और किस तरह वह ‘सिपाहियों से इतनी ज़्यादा नफरत करता था कि उसको बयान करने के लिए अल्फाज नहीं हैं।

और सबसे ज़्यादा ब्रिटिश कैंप वाले निकल्सन की त्रिमू घाट वाली हाल की फतह से बिल्कुल दंग थे, जहां उसने अपनी फौज को मजबूर करके कई हमले किए और सियालकोट की एक पूरी बागी रेजिमेंट का पीछा किया, जो दिल्ली की तरफ जा रहा था और उसको घेर लिया। फिर उनको रावी के किनारे पकड़कर कोशिश की कि एक-एक सिपाही को मारा जाए। इसलिए बहुत से सिपाही जान बचाने को बारिश से भरी नदी में कूद पड़े और वहीं डूबकर खत्म हो गए। सिर्फ कुछ पकड़े गए, जिन्हें गोली मार दी गई। अगस्त तक उसके खूनी दस्ते की कार्रवाइयों की खबर कलकत्ता पहुंच गई थी, जहां उसको सराहते हुए कैनिंग ने लिखा किः “निकल्सन सारे मुल्क में एक इंतकामी फरिश्ते की तरह गुजर रहा है और सब कंपकपाते दिलों में खौफ पैदा कर रहा है। बहुत कम लोग ऐसे थे, जो इस साम्राज्यवादी मानसिक रोगी को हीरो नहीं मानते थे, लेकिन कुछ अपवाद भी थे।

मार्च करने वालों में एक नौजवान लेफ्टिनेंट एडवर्ड ओमैनी था, जो निकल्सन की इस बेमक्सद बेरहमी पर दंग रह गया। 21 जुलाई को उसने अपनी डायरी में लिखा, “वह अपने आपको एक हैवान के रूप में दिखाना चाहता है। एक दिन उसने एक बावर्ची को सिर्फ इसलिए बुरी तरह मारा कि वह मार्च करते हुए उसके सामने आ गया था। उसका एक बहुत हट्टा-कट्टा अर्दली है, जो यह काम अंजाम देता है। जब उस बावर्ची ने शिकायत की, तो उसे फिर बुलाया गया और दूसरी बार की मार के बाद वह मर गया। ओमैनी इस पर भी भौंचक्का था कि उसने अपने सिपाहियों को खुली छूट दे रखी थी कि वह अपने बेबस कैदियों पर जितना चाहें जुल्म करें, ” एक अनियमित सिपाही, जिसने सियालकोट के क्रांतिकारियों  को घाट का रास्ता दिखाया था, के दोनों हाथ काट दिए गए। और फिर एक भाला उसके जिस्म से गुज़ारकर उसको पेड़ से लटका दिया गया। बहुत से कैदियों के हाथ बांधकर उनको जंगल में ले जाया जाता है और उन पर सिख छोड़ दिए जाते। इतने जुल्म का हमको कभी न कभी बदला चुकाना पड़ेगा। अगर उन लोगों ने हमारे साथ ऐसा किया था… तो यह कोई वजह नहीं है कि हम उनकी नकल करें। जो वाकई कुसूरवार हैं उनको बेशक गोली मार दें या फांसी चढ़ा दें (लेकिन जो बेगुनाह हैं उनको तो छोड़ देना चाहिए)।

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