कायस्थों के स्वादिष्ट खाने

महेश्वर दयाल ने दिल्ली (delhi) को एक शहर है किताब में कायस्थ परिवारों के खाने पर विस्तार से लिखा है। उन्होंने लिखा है कि दिल्ली में कायस्थ घरों में भी बड़ा उम्दा खाना बनता था। क्योंकि कायस्थों और मुसलमानों का बड़ा मेल-जोल था, मुसलमान अपने कायस्थ दोस्तों के यहां खाना बड़ी दिलचस्पी और प्रेम से खाते थे। दिल्ली के माथुर कायस्थों के यहां गोश्त की एक क़िस्म बड़ी स्वादिष्ट बनती थी जिसे ‘शबदेग’ कहा जाता था। गोश्त को कई सब्जियों में मिलाकर और उसके अंदर विभिन्न ख़ास मसाले डालकर घंटो धीमी आंच पर पकाया जाता था। मछली के कोफ्ते (मरगुल) और अदले, पसंदे रोज खाए जाते थे। कायस्थ घरों में अरहर, उड़द और मसूर की दाल भी बहुत उम्दा बनती थी। अरहर और उड़द की दाल धुली-मिली ‘मिलवा’ बनाते थे और ‘खिलवां’ भी खिलवां अरहर और उड़द की दाल में एक-एक दाना अलग नज़र आता था। कायस्थ घरों में बेसन के ‘टके-पीसे’ भी सब्ज़ी के तौर पर बनाए जाते थे। बेसन का एक गोल रोल-सा तैयार करके उसे उबालकर उसके गोल-गोल ‘टके पीसे’ काटकर उनकी रसेदार सब्जी बनाते थे जो बड़ी स्वादिष्ट होती थी। मसूर की दाल मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों में बड़ी उम्दा बनाई जाती थी और उसे इतना स्वादिष्ट समझा जाता था कि यहीं से वह कहावत मशहूर हुई- ‘यह मुंह और मसूर की दाल।’

पराठे

दिल्ली वालों को पराठे खाने का बड़ा शौक था। दिल्ली की मशहूर पराठेवाली गली में पराठे सादा, बलदार, रवे के, मैदे के, कई-कई परतवाले और खस्ता, हर किस्म के मिलते थे। आलू और गोभी के पराठे, धनिए की चटनी के साथ बड़ा मज़ा देते थे। आज पुरानी बातें बस खत्म-सी हो गई। मगर बहुत से दिल्ली वालों के घरों में आज तक उजली-उजली कटोरियों और थालियों में खाना खाया जाता है। हिन्दुओं में सुबह कच्ची रसोई और शाम को पक्की रसोई बनती थी। बड़े-बूढ़े पुरानी कहावत याद दिलाकर कहते थे, “फकत दाल-रोटी और सब बात खोटी ।”

अचार-मुरब्बे

दिल्ली वाले चटोरे मशहूर हैं। अचार, मुरब्बे, कांजी वग़ैरह के बिना कौर नहीं तोड़ते। सारा साल घरों में अचार-मुरब्बे पड़े रहते हैं। आमों के दिनों में घर-घर सरोता चलता और फाड़ियों सुखाई जातीं छोटी नारंगी, कमरख ककरोंदें और नींबू के अचार पड़ते और चुकंदर, बैंगन, करेले, कट्टू, शलजम, मूली, आलू कचालू, कटहल, लहसूड़े, कमलककड़ी और टैंड के भी मुरब्बे भी तरह-तरह के तैयार किए जाते थे-आम का, इमली का, आंवले का सेब का और फ़ालसे वगैरह का मुरब्बा आम बनाया जाता था। आंवले का, चांदी का वरक लगा, मुरब्बा सवेरे नाश्ते के वक़्त खाते थे। बड़े कहते थे, “कातक जो आंवले खाए, कुटुंब समेत बैकुंठ जाए।”

गंजे नहारी वाले

मुसलमान और नानवाइयों के यहां शीरमाल’, बाकुर-खानी’ कुलचे, खमीरी’ और रूमाली रोटियां बिकती थीं। जाड़े भर ये नहारी की दुकान भी लगाते थे। नहारी बारह मसालों की चाट होती थी। अमीर-गरीब सब चाव से खाते थे। नहारी का रिवाज दिल्ली के सिवा और कहीं नहीं था। सबसे ज्यादा मशहूर गंजे नहारी वाले की दुकान थी, जो क़ाबिल अत्तार के कूचे और सेदानियों की गली के बीच में बैठता था। नहारी के शौक़ीन बड़ी दूर-दूर से उसके पास पहुंचते थे। गरम-गरम रोटी और देग से निकली हुई नहारी, जितनी नलियां चाहे झड़वाएं, ऊपर से भेजा डलवाइए, प्याज से कड़कड़ाता हुआ असली घी, अदरक का लच्छा, कतरी हरी मिर्चे, ऊपर से निचड़ा हुआ खट्टा । लोग चटखारे ले-लेकर खाते थे। गंजे नहारी वाले की दुकान पर सूरज निकलते ही भीड़ लग जाती। दस लोग अंदर बैठे हुए खा रहे होते और बाकी हाथों में बरतन लिए खड़े होते। एक पैसे से लेकर एक रुपए तक के ग्राहक होते थे। नहारी अब दिल्ली के मुसलमानों को बहुत पसंद है और सूईवालान, काली मस्जिद, चूड़ीवालान वगैरह में अब भी दुकानें हैं। मगर न अब वे मसाले हैं और न असली घी। गंजे नहारी वाले जो नहारी खिला गए, उसकी बात ही कुछ और थी।

घुम्मी कबाबी

घुम्मी कबाबी भी बड़ा मशहूर था। जामा मस्जिद की सीढ़ियों से लेकर दिल्ली दरवाज़े और फाटक हबश ख़ां तक उसके कबाब खाए जाते थे। दुकान तो अब भी मौजूद है और कबाब भी उस पर बिकते हैं मगर घुम्मी वाली वह बात अब कहां ? जाड़ों में शाम को पांच बजे के बाद और गरमियों में मग़रिब की अज़ान के क़रीब दुकान लगती थी। कलेजी, गुर्दे और बकरी के भेजे, तले हुए अलग और भुने हुए अलग रखता था। कीमा सीखों पर चढ़ाया जाता और आप ही आप बोलता रहता। ग्राहकों से बड़ी लच्छेदार ख़ास दिल्ली की ज़बान में बात करता। ग्राहक कबाब खाते रहते थे और उसकी मज़ेदार बातों से अपने लुत्फ को दूना कर लेते। रात को देर तक दुकान खुली रहती और हर रोज़ का सामान हर रोज़ खत्म हो जाता।

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