1857 की क्रांति : बगावत के दूसरे हफ्ते तक मौलवी मुहम्मद बाकर भी, जो पहले बहुत जोश में थे, यह देखकर ठंडे पड़ गए थे कि शहर में क्या हो रहा है । 24 मई को वह अपने देहली उर्दू अख़बार में लिखते हैं:

“सारी आबादी इस लूटमार से तंग आई हुई है। चाहे शहर के लोग हों या बाहरी लोग, सब इसमें शामिल हैं। पुलिस थानों का कोई नियंत्रण ही नहीं। कर्नल जेम्स स्किनर की कोठी इतनी बुरी तरह से लूटी और बर्बाद की गई है कि बयान से बाहर है। शहर में और इसके इर्द-गिर्द आफत मचा दी गई है। सब सड़कें बंद हैं और हज़ारों घर लूटे और जलाये जा चुके हैं। दिल्ली के सारे अमीर और संभ्रांत लोगों के लिए हर तरफ ख़तरा है… शहर तबाह हो रहा है।

बाकर ने यह भी स्पष्ट किया कि सिर्फ सिपाही ही लूटमार नहीं कर रहे थे बल्कि शहर के गुंडों और बदमाशों की भी उतनी ही भूमिका थी, जिनमें से कुछ अक्सर सिपाहियों के लिबास में होते थे। उनका कहना थाः

“अस्लहाखाने और अंग्रेज़ों की कोठियों से बंदूकें, पिस्तौल, गोलियां और हथियार लूटकर लोग तिलंगों का भेस बदलकर लूटमार कर रहे हैं। कल पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया। बाद में मालूम हुआ कि उनमें से कुछ मोची थे, जो छावनी में काम करते थे, और दो चमार थे। उन्हें उस पलटन में ले जाया गया, जहां उनका कहना था कि वह भर्ती हैं, और जब उनका झूठ पकड़ा गया, तो पलटन के सूबेदार और सिपाहियों ने उन्हें खूब पीटा और अब वह कैद में हैं।

बाकर समझ रहे थे कि इस मनमौजी लूटमार की असली वजह दरअसल प्रशासन की अक्षमता और अनुपस्थिति थी। बगावत से पहले विभिन्न पलटनों में आपस में कुछ ताल्लुक और संपर्क जरूर था, लेकिन अब हर रेजिमेंट ने अलग-अलग अपने स्तर पर बगावत की थी और खुद दिल्ली आई थी, और वह सिर्फ अपने सूबेदार का ही आदेश मानती थी।

हर रेजिमेंट स्वतंत्र थी और अलग-अलग जगहों पर ठहरी हुई थी और किसी एक केंद्रीय अफसर का आदेश मानने को राजी नहीं थी और न ही उसे किसी और रेजिमेंट के कमांडर की ताबेदारी करना स्वीकार था। शहजादों ने भी अपने आपको अलग-अलग रेजिमेंटों से जोड़ लिया था। इसलिए मिर्ज़ा मुग़ल को अपनी इस कोशिश में कुछ ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली कि उनको एक केंद्रीय कमांडर-इन-चीफ माना जाए। मुगलों के पास न तो सिपाहियों को तंख्वाह देने का जरिया था और न ही वह मुलजिम सिपाहियों और सरकश रेजिमेंट को ठीक से सजा दे सकते थे, इसलिए वह सिर्फ एक हद तक ही उनको कंट्रोल कर सकते थे। और ज़्यादातर पलटनें अपने-अपने स्वतंत्र सूबेदार के तहत अलग-अलग प्राइवेट फौजों की तरह रह रही थीं। राजा कपूरथला के एक समाचार संवाददाता ने उनके बारे में बिल्कुल सही लिखा, “बाग़ी बगैर लीडर के हैं।

इससे भी बदतर यह कि दूसरे हफ्ते ही पैदल और घुड़सवार दस्तों में झगड़े शुरू गए। मेरठ और दिल्ली के सिपाहियों में ख़ासतौर से बहुत मतभेद थे और अक्सर उनमें लूट के सामान के बटवारे को लेकर झगड़े और मारपीट हो जाती थी।

जैसा कि गालिब ने उस जमाने में अपनी डायरी में लिखा: “हज़ारों फ़ौजी बगैर सरदार के और बेशुमार सिपाही बगैर किसी नेता के, मगर जंग लड़ने को तैयार। बादशाह भी इन हालात से उतने ही दुखी थे। एक जासूस के बयान के मुताबिक एक खूरेज लड़ाई के बाद, जिसमें दिल्ली और मेरठ की रेजिमेंटों ने अपने कमांडर की बात मानने से भी इंकार कर दिया था और आपस में खूब मार-पिटाई हुई, ज़फ़र ने बड़े अफसोस के साथ सिर हिलाकर कहा, हमारे सर पर आसमान टूट पड़ा है।

बाकर भी इन हालात से बहुत शंकित थे, “हर कोई कोतवाल की मुस्तैदी की बहुत तारीफ करता है,” उन्होंने अख़बार में लिखा। “लेकिन ऊंचे और निचले वर्ग के सब लोग तिलंगों पर नियंत्रण की कमी से बहुत परेशान हैं। गरीब लोग लगभग भूखे मर रहे हैं। सब साहूकार तिलंगों के डर से छिपे बैठे हैं। दो बातों की बहुत अहम और फ़ौरन जरूरत है, एक तो तंख्वाह बांटने की और दूसरी तिलंगों को काबू करने की।०

लेकिन मुश्किल यह थी कि अगर सिपाही दूसरी पलटनों के सूबेदारों का आदेश मानने से भी इंकार कर रहे थे, तो दिल्ली पुलिस के काबू में कैसे आते। जब भी पुलिस उन्हें लूटमार करने से रोकना चाहती, तो वह फौरन लड़ना शुरू कर देते। लाहौरी दरवाज़े पर जब एक पुलिसवाले ने कुछ तिलंगों को लूटने से रोकना चाहा, तो उन्होंने उसे बुरी तरह मारा। ‘किले की दीवार के नीचे एक बर्कअंदाज़ (पुलिस का सिपाही) ने देखा कि लूट कुछ बोरियां दीवार के पास रखी हैं तो उसने उनके मालिक को टोका,’ स्थानीय पुलिस प्रमुख ने नए कोतवाल मुईनुद्दीन को बतायाः

“उनका मालिक एक तिलंगा था। उसने बहस करना शुरू कर दिया और तलवार निकाल ली। कुछ देर तक ऊंची आवाजें और धक्का-मुक्की चलती रही फिर उस तिलंगे के कुछ और साथी उसकी मदद को आ गए और उन्होंने उस बेचारे बर्कअंदाज़ को इतना मारा कि वह ख़ूनम-ख़ून हो गया और फिर उन्होंने उसको गिरफ्तार कर लिया। तिलंगों को तो शाही नौकर होना चाहिए! अगर यही हालात रहे, तो अनुशासन और अमन कायम रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा।

एक और मौके पर गली कासिम जान में एक पुलिसवाले ने कुछ सिपाहियों को लोगों से जबरन पैसा वसूली से रोकना चाहा। वहां के थानेदार का कहना था कि “वह लोग लूट और चोरी के सामान को वहां से गुजरने देने के लिए रिश्वत मांगते हैं और अगर उनको रिश्वत मिल जाती है, तो वह उन लोगों को जाने देते हैं, लेकिन अगर कोई नहीं रिश्वत नहीं दें, तो उसे बहुत परेशान किया जाता है। जब भी इस पुलिस चौकी के बर्कअंदाज़ इस पर ऐतराज करते हैं, तो वह उनको खूब बुरा भला कहते और धमकाते हैं। अब तो हालात और भी बदतर हो गए हैं। जिस किसी से वह पैसे वसूल नहीं कर पाते हैं उसे गिरफ्तार कर लेते हैं, और हमसे कहते हैं कि हम सबको थाने से निकल जाना चाहिए और उनके मामलों में बिल्कुल दखल नहीं देना चाहिए।

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