1857 की क्रांति : विलियम डेलरिंपल अपनी पुस्तक आखिरी मुगल में लिखते हैं कि बगावत के समय बादशाह बहादुर शाह जफर के निर्देश से करीब ब्रितानिया अफसरों के परिवारों की 50 महिलाओं और बच्चों को किले में छिपाकर रखा गया था। इस बात की भनक बागियों को लग गई। सिपाहियों ने अपनी तलवारें निकालकर महल को घेर लिया।

उस वक़्त एक सिपाही ने उन अंग्रेज़ कैदियों का जिक्र किया, जिनको जफर ने किले में पनाह दी थी। जबसे नए कोतवाल मुईनुद्दीन के जरिए शहर में कुल्लेआम की वजह से छिपे कई खानदानों को वहां लाने के बाद उनकी तादाद 52 हो गई थी। इसलिए सिपाहियों ने हकीम और ख्वाजासरा पर इल्जाम लगाया कि उन्होंने कैदियों को इसलिए जिंदा रखा है कि जब अंग्रेज़ आएं, तो वह उनको हाजिर कर दें और सिपाहियों को मरवा दें और वाकई दोनों के दिमाग में यही इरादा था।”

फिर सिपाहियों ने उन सब कैदियों को बुलवाया, जिन्हें ज़फर ने लाहौरी दरवाज़े की तरफ किले के बावर्चीखाने के पास छिपा रखा था, जहां उनके खाने-पीने का व्यवस्था भी थी। उनको बांधकर वह किले के नक्कारखाने के सामने एक उथली हौज के पास, पीपल के पेड़ की तरफ ले गए और उनको ताने देने लगे कि अब तुम्हारी मौत करीब है।

जीवनलाल का कहना है कि शुरू में यह सोचकर कि सिपाही क्या करने का इरादा रखते हैं, ‘बादशाह अपने दरवारी कठपुतलियों की तरह चुपचाप खड़े रहे। फिर बादशाह ने सिपाहियों को आदेश दिया कि वह अलग-अलग ग्रुप बना लें। हिंदू एक तरफ और मुसलमान दूसरी तरफ। फिर उन्होंने दोनों गुटों से इल्तेजा की कि वह अपने-अपने मजहबी रहनुमाओं से पूछें कि कहां वेबस आदमियों, औरतों और बच्चों के कत्ल की इजाज़त दी गई है।” “उनके कत्ल की हरगिज इजाज़त नहीं दी जाएगी,” ज़फ़र ने कहा, और साथ में यह भी कहा कि मलिका भी इस कत्ले-आम के बिल्कुल खिलाफ हैं।” सईद मुबारक शाह का कहना है:

“फिर बादशाह सलामत रोने लगे और बागियों से मिन्नत करने लगे कि मजबूर औरतों और बच्चों की जान नहीं लें और यह “ध्यान रखो अगर तुमने ऐसी हरकत की तो ख़ुदा का कहर तुम पर टूटेगा। मासूम लोगों को क्यों मारते हो?” लेकिन बागियों ने उनकी नहीं सुनी और जवाब दिया, “हम उन्हें जरूर मारेंगे, और तुम्हारे किले के अंदर ही मारेंगे, ताकि आगे चलकर जो भी हो उसमें हम और तुम एक ही मानें जाएं और तुम भी अंग्रेज़ों की नज़र में बराबर के मुजरिम ठहराये जाओ।

कोतवाल मुईनुद्दीन और जहीर देहलवी जो दोनों वहां मौजूद थे, बयान करते हैं कि बादशाह बराबर उनसे बहस करते रहे और उन्होंने कत्ल की इजाज़त देने से इंकार कर दिया। आखिरकार हकीम अहसनुल्लाह खां ने उनको खामोश कर दिया। हकीम साहब पहले ही से अपने ख़त का राज फाश हो जाने से बहुत डरे हुए थे, इसलिए अब उन्होंने बादशाह को आगाह किया कि अगर वह बहस करते रहे, तो दोनों की जिंदगियां ख़तरे में पड़ जाएंगी।

जब जहीर ने देखा कि सिपाही कत्ल की तैयारी कर हैं, तो उन्होंने फिर एक बार हकीम से इल्तेजा की कि इस कत्ले-आम को रोकने की एक और आखरी कोशिश करें।

‘मैंने उनसे कहा कि मैंने कैदियों को ले जाया जाते देखा है और कि मुझे डर है कि वह उनको मारने वाले हैं। मैंने फिर उनसे मिन्नत की, लेकिन उन्होंने जवाब दिया। कि मैं क्या कर सकता हूं। मैंने उनसे इल्तेजा की कि यह वक्त अपनी वफादारी साबित करने का है। और अगर आप बादशाह को बचाना चाहते हैं, तो आपको यह कोशिश करना ही पड़ेगी कि बागियों को इस जुर्म से रोकें और कैदियों को बचाएं वर्ना जब अंग्रेज़ आएंगे तो दिल्ली को तहस-नहस कर देंगे और इन बेगुनाहों के खून के इंतकाम में इस शहर को एक बंजर जमीन बना देंगे। इस पर अहसनुल्लाह खां का कहना था कि तुम अभी बच्चे हो, तुम्हें अंदाज़ा नहीं है कि दुनिया के मामलों में इंसान को अपनी अक्ल इस्तेमाल करना पड़ता है और वह जज्बात से काम नहीं ले सकता। अगर इस वक्त हम उन बागियों से ज़्यादा बहस करेंगे, तो वह अंग्रेजों को मारने से पहले हमको मार देंगे और फिर बादशाह को।

बहरहाल अब बहुत देर हो चुकी थी। जब तक अहसनुल्लाह की बात ख़त्म हुई, सिपाहियों और किले के बाग़ी लोगों ने अपना काम शुरू कर दिया था।

‘उन्होंने सब कैदियों को बिठा दिया और एक सिपाही ने अपनी बंदूक उन पर चलानी शुरू कर दी। फिर बादशाह के दो निजी हथियारबंद सिपाहियों ने तलवारों से कत्ल कर दिया। ज़फ़र के लिए भी यह कत्ले-आम सब कुछ बदल डालने वाला वाकेया था। सिपाहियों का कहना बिल्कुल सही था कि अंग्रेज़ कभी उन बेगुनाहों के कल्ल को माफ नहीं करेंगे और ज़फ़र का उसको नहीं रोक पाना उनके और उनकी नस्ल के लिए उतना ही विनाशकारी साबित हुआ, जितना उन कातिलों के लिए।

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