1982 एशियाड खेलों के लिए शहर में बनाए गए तीन बड़े स्टेडियम

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

केन्द्रीय सरकार में हो या राज्य सरकार में, अस्थिरता और अनिश्चय का गहरा प्रभाव दिल्ली शहरवालों की जिंदगी पर पड़ता है। एक तरफ़ दिल्ली लगातार बड़े आयोजनों का केन्द्र बनी रही तो दूसरी तरफ सनसनीखेज घटनाओं का भी। इसके अलावा देश में होनेवाली बड़ी घटनाओं की धमक भी सबसे ज्यादा यहीं सुनाई पड़ती थी।

राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों ने भी लगातार दिल्ली का भौगोलिक कायाकल्प किया है। 1982 में एशियाड खेलों के सिलसिले में शहर के तीन हिस्सों में तीन बड़े स्टेडियम बने थे। कोटला के पास ‘इन्दिरा गांधी स्टेडियम’, लोधी रोड के आगे विशाल ‘जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम’ और उधर उत्तरी दिल्ली में ‘छत्रसाल स्टेडियम’। बाद में इन तीनों का उपयोग तरह-तरह के आयोजनों के लिए होता रहा। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का उद्घाटन इन्दिरा गांधी स्टेडियम में ही हुआ था।

एशियाड खेलों में भाग लेनेवाले खिलाड़ियों की आवासीय व्यवस्था के निमित्त एक तथाकथित ‘एशियाड विलेज’ बसाया गया, जिसके परिसर की पहचान प्रदूषण-मुक्त शान्त वातावरण और हरियाली थी। इस योजना ने निकटवर्ती शाहपुर जट्ट नाम के ग्रामीण क्षेत्र के बहुत बड़े हिस्से को लील लिया। इस घटना का गहरा असर पूरे शाहपुर जट्ट के सांस्कृतिक जीवन पर पड़ा। अब वहां की गली-गली में दिल्ली के तमाम मशहूर ‘बुटीक’ और दस्तकारी और डिज़ाइनर कपड़ों की दुकानें बसी हैं। बिकाऊ प्रॉपर्टी एक सिरे से गायब या फिर आसमान- छूती कीमत पर।

यह प्रसंग इसलिए याद करने की ज़रूरत है, क्योंकि दिल्ली एक बार फिर 2010 में एक बड़े कायाकल्प की तैयारी में थी। इस बार पसारा यमुना-पार वास्तुकला की अनूठी मिसाल ‘अक्षरधाम’ के निकटवर्ती क्षेत्र में होना तय हुआ। दिलचस्प बात यह है कि देश के दूसरे राज्यों में राजनीतिक उथल-पुथल के बावजूद दिल्ली के कार्यक्रम अपनी चाल से चलते रहते हैं। केन्द्र में तख्ता पलटने पर भी इन योजनाओं में कोई परिवर्तन नहीं होता। हर पार्टी की सरकार ऐसे आयोजन का श्रेय अपने खाते में डालकर बहती गंगा में हाथ धो लेती है।

दिल्ली में बड़ी धूमधाम से 1995 में 2-4 मई के बीच सार्क सम्मेलन हुआ और ठीक छह दिन बाद हथियारबन्दों ने श्रीनगर में चरारे-शरीफ को आग लगा दी। उधर, इसी वर्ष उत्तर प्रदेश में भाजपा समर्थन से मायावती के मुख्यमन्त्री बनने और चार ही महीने बाद सरकार गिरने का नाटक चल रहा था।

इसी बीच दिल्ली में एक चमत्कार घटित हुआ। सितम्बर में अचानक एक अफवाह फैली कि किसी मन्दिर में प्रतिष्ठित गणेश की मूर्ति दूध पीने लगी है। अन्ध श्रद्धा की मारी जनता ने यह सवाल भी नहीं पूछा कि आखिर मूर्ति को दूध पिलाने की चेष्टा ही क्यों की गई। मीडिया ने जमकर इस चमत्कारिक घटना का प्रसार किया और देखते-देखते मन्दिर-मन्दिर ‘भई भक्तन की भीर’।

हर गणेश प्रतिमा दुग्ध-पान करने लगी। लम्बी कतारों में दूध के छोटे-बड़े पात्र लिए, पंक्तिबद्ध भक्तों ने वास्तव में दूध की नदियां बहा दीं। कहना न होगा कि इनमें तमाशबीन भी कम नहीं थे। खबर बड़ी जल्दी राष्ट्रीय सीमा पार कर गई और घर-घर विदेशी मित्रों- रिश्तेदारों के फ़ोन समाचार की पुष्टि के लिए खड़कने लगे।

पर दिल्ली थी कि सनसनीखेज खबरों का सिलसिला बन्द होने का नाम नहीं लेता था। मूर्तियों के दूध पीने का प्रकरण समाप्त हुआ तो आन्तरिक सुरक्षामन्त्री की हैसियत से राजेश पायलट ने ‘गॉडमैन’ चन्द्रास्वामी की गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया। देश के राजनीतिक और व्यापारिक हलकों में सन्तों, बाबाओं और स्वामियों की प्रभावी भूमिकाएँ किसी से छिपी नहीं हैं। ऐसी किसी शख़्सियत पर हाथ डालना, भले ही वह कानूनी दृष्टि से वैध हो, साहस का काम था। एक बार शहर सकते में आ गया। चारों तरफ़ उनके सम्बन्धों, कारगुज़ारियों और इस घटना के सम्भावित परिणामों के बारे में अटकलों और अफवाहों का माहौल पैदा हो गया।

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