दिल्ली के फेरीवाले बड़े निराले अंदाज में पान बेचते थे। वो दिल्ली की गलियों में घूमकर पान बेचा करते थे। दिल्ली वालों में औरतों और मर्दों दोनों को पान खाने का बड़ा शौक था और हर घर में पानदान होता था। एक पैसे के छह या आठ साबित पान मिलते थे। फेरीवाले अपनी टोकरी या ढोली में गीले कपड़े बंधे हर छोटे-बड़े पान बेचते थे और कदम कदम पर आवाज लगाते थे-

ले लो बंगला पान, करारा पीला पत्ता बनारस का

कानपुर का तीखा रसीला पान, पान लो पान।

आज से कोई सौ-सवा सौ साल पहले खानम के बाजार में एक मशहूर पनवाड़ी था। उसका नाम हुसैनी था। हुसैनी जब बाज़ार में आता तो लाल पगड़ी बांधे, साफ-सुथरा लाल अंगरखा पहने होता। एक थाल हाथ में होता था जिसके अंदर पान की गिलौरियां लगी- बंधी, चांदी के वरक में लिपटी रखी रहतीं। चौक में खड़ा हो जाता और बड़ी सुरीली आवाज में लच्छेदार भाषा में राहगीरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता रहता-

ले लो पान की गिलौरी, मैं पान का बेपारी

यह पान है सरकारी, इसको खाते हैं दरबारी।

बड़ा बड़ा पान है, लाल-लाल शान है।।

बदख़्शां की दुकान है, यह पान है यह पान है।

खा लो मेरा बीड़ा, यह बीड़ा है पान का, बढ़िया दुकान का है।

जुदाई की रात में साथ रहता है, मिलाप की रात वह मजा दिखाता है, मेरे पान का यह बीड़ा है।

हरियाला है, मतवाला है, अच्छे जोबन वाला है, मेरे पान का यह बीड़ा।

कुंदन को शरमाती है, जोबन को चमकाती है,

अच्छे मुंह को सुहाती है।

गोरी जब चबाती है, होंठों आग बरसाती है

दिलदार की इक शान हैं, यह पान उसकी जान है

और जान भी इक पान है, ले लो मेरे पान की गिलौरी।

दिल्ली में कई गुंजान मुहल्लों में औरतें भी फेरी पर सौदा बेचती थीं। जरा दिन चढ़ता तो काछन अपना छीबा लिए पहुंच जाती। बड़े मज़ेदार कचालू बेचती। उसके अलावा फलों की चटपटी चाट बना देती। दो पैसे के पत्ते में मजा आ जाता और औरतें होंठ चाटती हुई रह जातीं। आलू, शकरकंद, अमरूद, कमरख, खीरा और केले के दो-दो टुकड़े ढाक के पत्ते पर रखकर मिर्च-मसाला लगा, नींबू छिड़ककर और दोनों हाथों से पत्ते के दोने को ऊपर-नीचे करके और पतली सींक लगाकर दे देती और कहती-

“बीबी फल तो होवे ही है, मगर हाथ का कमाल होता है।

लो चखो, याद रखोगी, थोड़ी-सी सी-सी तो होगी।”

बीबी पत्ता हाथ में लेकर बोलती, “बच्चों के भी बना दे, मगर सिर्फ नमक और चटनी डालियो।” इतने में बच्चे भी आ धमकते और उनके पत्ते बनने लगते। काछन पत्ते बनाती रहती और बच्चों को दुआएं देती रहती, “अल्लाह उमर दे, नेक नसीबा हो।”

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