दिल्ली विधानसभा चुनाव का गौरवशाली और परिवर्तनशील सफर पढ़िए
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi Assembly Election 2025: दिल्ली भारत की राजधानी है। यह न केवल प्रशासनिक और राजनीतिक केंद्र है, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र का एक जीवंत उदाहरण भी है। आज़ादी के बाद दिल्ली ने कई चरणों में प्रशासनिक और विधायी विकास देखा। 1952 में सीमित शक्तियों वाली पहली विधानसभा से लेकर 1993 में पूर्ण विधान सभा के गठन तक, यह यात्रा दिल्ली और भारत दोनों के लिए ऐतिहासिक रही है।
दिल्ली की विधायी यात्रा न केवल लोकतांत्रिक विकास का प्रतीक है, बल्कि यह यह दर्शाती है कि कैसे समय के साथ एक राजधानी शहर ने अपने नागरिकों की अपेक्षाओं और जरूरतों को ध्यान में रखते हुए खुद को पुनर्गठित किया।
1952: दिल्ली की पहली विधानसभा
भारत के स्वतंत्र होने के बाद, 17 मार्च 1952 को दिल्ली की पहली विधानसभा का गठन हुआ। यह देश के संविधान के तहत स्थापित की गई पहली विधान सभाओं में से एक थी। उस समय दिल्ली के प्रशासन में निम्नलिखित प्रावधान किए गए थे:
- विधानसभा में 48 निर्वाचित सदस्य थे।
- दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री के रूप में चौधरी ब्रह्म प्रकाश ने कार्यभार संभाला।
- मुख्य आयुक्त को दिल्ली के प्रशासन का प्रमुख अधिकारी बनाया गया।
- मंत्रिपरिषद को विधानसभा द्वारा चुना गया, लेकिन इसके अधिकार सीमित थे।
यह व्यवस्था दिल्ली के लिए एक नई शुरुआत थी, लेकिन इसकी सीमाएं जल्द ही सामने आईं। मुख्य मुद्दा यह था कि दिल्ली जैसे बड़े और जटिल शहर के प्रशासन के लिए यह मॉडल पर्याप्त नहीं था।
1956: दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश बनी
1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के बाद, दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया। इसके साथ ही विधानसभा और मंत्रिपरिषद को भंग कर दिया गया।
बदलाव के मुख्य बिंदु:
- दिल्ली को सीधे केंद्र सरकार के नियंत्रण में लाया गया।
- एक नया प्रशासनिक ढांचा तैयार किया गया, जिसमें दिल्ली नगर निगम की स्थापना शामिल थी।
- दिल्ली के प्रशासन में जनता की भूमिका सीमित हो गई।
इस बदलाव के पीछे तर्क यह था कि राजधानी होने के कारण दिल्ली को विशेष निगरानी और नियंत्रण की आवश्यकता है। हालांकि, इस फैसले से स्थानीय नेतृत्व की भूमिका सीमित हो गई।
1966: महानगर परिषद की स्थापना
1966 में, दिल्ली प्रशासन अधिनियम के तहत महानगर परिषद की स्थापना की गई।
महानगर परिषद की प्रमुख विशेषताएं:
- परिषद में 56 निर्वाचित और 5 नामित सदस्य शामिल थे।
- उपराज्यपाल (एलजी) को प्रमुख प्रशासक के रूप में नियुक्त किया गया।
- परिषद की भूमिका केवल परामर्श तक सीमित थी।
प्रमुख कार्यकाल:
महानगर परिषद ने 1966 से 1990 तक काम किया। इस अवधि में:
- परिषद के 8 प्रमुख कार्यकाल रहे।
- इन कार्यकालों में 17 से 20 सत्र आयोजित किए गए।
हालांकि, परिषद के पास विधायी शक्तियां नहीं थीं, और यह केवल प्रशासन में सुझाव देने की भूमिका निभाती थी। इस व्यवस्था ने जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थता दिखाई।
1987: सरकारिया समिति का गठन
दिल्ली के प्रशासनिक ढांचे की पुनरावलोकन के लिए, 1987 में सरकारिया समिति का गठन किया गया। बाद में, इसे बालकृष्णन समिति के रूप में पुनर्गठित किया गया।
समिति के उद्देश्य:
- दिल्ली प्रशासन की वर्तमान व्यवस्था की समीक्षा।
- एक स्थिर और सशक्त प्रशासनिक मॉडल की सिफारिश।
- दिल्ली को राजधानी के रूप में विशेष दर्जा देने की आवश्यकता पर विचार।
समिति की प्रमुख सिफारिशें:
- दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में बनाए रखा जाए।
- एक विधान सभा और मंत्रिपरिषद का गठन किया जाए।
- विधानसभा को राज्य सूची के अधिकांश विषयों पर कानून बनाने का अधिकार दिया जाए।
- पुलिस, भूमि और सार्वजनिक व्यवस्था जैसे विषय केंद्र सरकार के अधीन रखे जाएं।
1991: संविधान का 69वां संशोधन
बालकृष्णन समिति की सिफारिशों के आधार पर, संसद ने संविधान का 69वां संशोधन पारित किया।
इस संशोधन के मुख्य बिंदु:
- अनुच्छेद 239एए और 239एबी को संविधान में जोड़ा गया।
- दिल्ली को विशेष दर्जा देते हुए इसे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCT) के रूप में परिभाषित किया गया।
- दिल्ली के लिए एक विधान सभा और मंत्रिपरिषद का प्रावधान किया गया।
- पुलिस, भूमि और सार्वजनिक व्यवस्था केंद्र सरकार के अधीन रहे।
1993: दिल्ली की पुनः स्थापित विधानसभा
1 फरवरी 1992 से संविधान के संशोधित प्रावधान लागू हुए। इसके तहत, दिल्ली में एक नई विधान सभा का गठन हुआ।
प्रमुख घटनाएं:
- विधानसभा का पहला सत्र 14 दिसंबर 1993 को आयोजित हुआ।
- दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री के रूप में मदन लाल खुराना ने कार्यभार संभाला।
- इस नई व्यवस्था ने दिल्ली को एक सीमित लेकिन सशक्त स्वायत्तता दी।
वर्तमान में दिल्ली का प्रशासनिक ढांचा
आज, दिल्ली एक अनूठा मॉडल है, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों की व्यवस्थाएं शामिल हैं।
प्रशासनिक विशेषताएं:
- दिल्ली विधानसभा 70 सदस्यों वाली है।
- मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद को स्थानीय मुद्दों पर अधिकार है।
- पुलिस, भूमि और सार्वजनिक व्यवस्था केंद्र सरकार के अधीन हैं।
महत्वपूर्ण चुनौतियां:
- केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच अधिकारों का विवाद।
- स्थानीय मुद्दों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में जटिलताएं।
निष्कर्ष
दिल्ली की विधायी यात्रा भारतीय लोकतंत्र के विकास का प्रतीक है। 1952 में सीमित शक्तियों वाली विधानसभा से लेकर 1993 में विशेष दर्जा प्राप्त करने तक, यह यात्रा संघर्ष, सुधार और विकास की कहानी है। दिल्ली का यह मॉडल, भले ही अद्वितीय और जटिल हो, लेकिन यह दर्शाता है कि कैसे एक राजधानी शहर ने अपने नागरिकों के लिए बेहतर प्रशासन की दिशा में काम किया।