मुगलों के शासन काल में दिल्ली में लोगों का एक छोटा-सा तबका ऐसा भी था जिससे दिल्ली की जिन्दगी महकती रहती थी। ये दिल्ली के बांके थे। बांका उस आदमी को कहते थे जो सुंदर, जवान, शिष्ट, शालीन और निराली सजधज हो। बांकों का व्यक्तित्व और उनकी वेशभूषा दूसरों से बिल्कुल भिन्न होती थी। वे कमजोरों और गरीबों की मदद भी करते थे और गुंडे उनसे डरते थे। सारे इलाके में उनकी धाक जमी होती थी।

वे अपने साथ हर वक्त अनेक चेले रखते थे। किसी गुडे की ख़बर ली, किसी कमजोर और बेबस को बचाया और उनकी ख्याति आनन-फानन फैल गई। हरेक बांके का अपना अलग ढंग, तौर-तरीका, लिबास और चाल-ढाल होता थी। दूर से देखकर ही चाहे उस तरफ उनकी पीठ ही क्यों न हो-यह पता लग जाता था कि अमुक बांका है।

कोई बांका अपना सर मुंडवा लेता मगर घनी दाढ़ी बढ़ा लेता। दूसरा, आधी मूंछ साफ करवाकर आधी इतनी लंबी बढ़ाकर लटका लेता कि उसे अपने एक कान के गिर्द कई बट देकर बांध सकता था। तीसरा, ऐसा पायजामा पहनता जिसकी एक टांग सिर्फ घुटने तक आती और दूसरी गट्टे तक लटकी होती और यह पायजामा अतलस का भी हो सकता था। कुछ बांके शाही हरकारे का लिबास पहनकर घूमते और कुछ अपने कंधे पर हनुमान की तरह गदा उठाए चलते कोई खांडा, कोई बरछी, कोई भाला और कोई तीर-कमान लिए फिरता मुहम्मद शाह रंगीले के काल में बांकों के वारे-न्यारे थे। उन्हें शाही संरक्षण प्राप्त था और लोग उन्हें सिर-आँखों पर बिठाते थे और उनकी खूब तारीफ़ करते थे।

दिल्ली के बांके आमतौर पर अच्छे घरानों के होते थे। कुछ रईसों के लड़के भी बांक बनकर घूमते थे। सब बाके किसी-न-किसी लड़ाई की कला में दक्ष होते थे और उसके लिए वे नियमित रूप से किसी उस्ताद से शिक्षा ग्रहण करते थे। बांके जिन कलाओं में रुचि लेते थे, वे थीं-फिकैती, पटेबाजी, बिनोट, बांक, बरछा, भाला, तीर-अंदाज़ी और कुश्ती। हर बांका छड़ी, डंडा या कोई गुप्त हथियार जरूर रखता था। वह अपनी ताकत और हुनर में उस्ताद होने की वजह से दो-तीन गुंडों की मरम्मत तो अकेला ही कर सकता था। मगर आमतौर पर इसकी नौबत नहीं आती थी क्योंकि बांका अकेला कभी-कभार ही घूमता था और उसके दो-चार चेले हमेशा उसके साथ रहते थे।

बांके अपना रौब जमाने और अपने प्रदर्शन में विश्वास रखते थे। सख्त जाड़ों में जब गरम कपड़े पहने हुए भी लोग कंपकपाते फिरते थे और बत्तीसी बजती थी, तो बांके बारीक से बारीक मलमल के कुरते में सीने के बटन खोले और आस्तीनें चढ़ाए रखते थे। कोई-कोई चौका तो अपने मलमल के कुरते पर पानी भी छिड़क लेता था। अगर बांके किसी लड़ाई में भी हिस्सा लेते तो ढाल या जिरह बक्तर अपनी रक्षा के लिए पहनना शान के ख़िलाफ समझते थे। बहुत-से बांकों को किसी युद्ध या अभियान के रूप में तत्काल बुला लिया जाता था। बांकों की एक शान यह भी थी कि चोट पर चोट या जख्म सहते मगर उफ न करते।

बांकों का जिक्र पुरानी दास्तानों में भी कहीं-कहीं मिलता है। यूरोप के प्राचीन इतिहास में भी बांकों जैसा ही एक गिरोह वहां की सामंती व्यवस्था में भी नज़र आता है। जिनके तौर-तरीके बिल्कुल यहां के बांकों की तरह ही थे। उन्हें ‘नाइट’ कहा जाता था। यह एक प्रकार की उपाधि थी जो वहां के अमीर ऐसे मुसाहिबों को प्रदान करते थे। इंग्लैंड में अभी तक ऐसी उपाधियों का सिलसिला जारी है। मौलाना अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने दिल्ली के बांकों का जिक्र इन शब्दों में किया—दिल्ली दरवार में भारी संख्या में कंधारी आकर फ़ौज में नौकर होते वे लोग चूँकि बहुत बहादुर समझे जाते थे इसलिए यहाँ के आम फ़ौजियों में उनका रंग-ढंग, लिवास, आदतें और खुसलते प्रचलित होने लगीं और उन्हीं की बरकत और सोहबत का असर था कि दिल्ली में बाँके बड़े-बड़े कलियोंदार पायेंचों के पायजामे पहनते थे। दिल्ली के अंतिम दौर में बाँकों के रखरखाव और वीरता इतनी लोकप्रिय हो गई कि सैकड़ों शरीफ घरानों के लड़कों ने बाँक़ों में शामिल होकर उन्हीं के रंग-ढंग अपना लिए और वही शरीफ़ लोग जिनमें ज्यादातर ऊँचे ओहदों पर थे, सब-के-सब बाँके बने हुए थे।”

बाँके बड़े हठी और अपनी आन पर मर मिटने वाले होते थे। किसी से कोई वादा कर लेते तो जरूर पूरा करते। अपनी बेइज़्ज़ती ज़रा भी सहन न करते। उनके क़ौल पर भी सब लोग यकीन करते थे। अगर कोई बाँका किसी महाजन के पास कुछ रुपए उधार लेने जाता तो उसका वादा कि अमुक तारीख तक वापस कर दूंगा, पत्थर की लकीर समझा जाता। इस सिलसिले में एक दिलचस्प कहानी मशहूर है। एक बदमाश ने एक रोज यह देख लिया कि एक बाँके ने अपनी मूंछ का एक बाल तोड़कर एक महाजन को जमानत के तौर पर दिया और कई सौ रुपए उधार ले गया। उन

दिनों बीके जरूरत के वक्त महाजनों से हजारों रुपए सिर्फ़ अपनी मूंछ का एक बाल रखकर ले जाते थे। बदमाश को यह तरीका बड़ा आसान नजर आया और अगले दिन वह एक बाँके का स्वाँग भरकर उस महाजन के पास पहुँचा और उससे उधार माँगा। वचन के रूप में उसने बाँके की तरह अपनी दाई तरफ की मूंछ से एक बाल तोड़कर उसे दे दिया। महाजन को उस आदमी की बातचीत के ढंग से पता चल गया कि वह बाँका नहीं है। आज़माइश के तौर पर महाजन ने बदमाश से कहा कि मुझे बाईं तरफ़ की मूँछ का बाल चाहिए, यह बाल तुम वापस ले लो। इस पर बदमाश ने दूसरी तरफ़ की मूँछ का बाल तोड़कर उसे दे दिया और महाजन की तसल्ली के लिए कहने लगा कि एक-दो बाल और चाहिए तो वो भी तोड़ देता हूँ। महाजन को पता लगा गया कि यह आदमी बाँका नहीं है। महाजन ने उस आदमी को कर्ज देने से इन्कार कर दिया और उसे शर्मिंदा करते हुए बोला कि यह जालसाजी कहीं और करना तुमको मालूम होना चाहिए कि मैं अगर किसी असली बाँके से मूँछ का दूसरा बाल माँगता तो इस वक़्त मेरा सिर इस नाली में तड़पता होता।

मुहम्मद शाह रंगीले के दौर में मुग़ल साम्राज्य की स्थिति बहुत बिगड़ गई थी। बादशाह अपना सारा समय रंगरेलियों में बिताता था जिसके फलस्वरूप दिल्ली में भी अव्यवस्था फैली हुई थी और शरीफ़ घरानों की बहू-बेटियों की इज्ज़त और मर्यादा भी ख़तरे में थी। दिल्ली के कुछ बदमाशों ने यह हरकत शुरू कर दी कि अगर उनके मुहल्ले से कहार डोली ले जाते तो उसमें बैठी जवान शरीफ़ लड़की को गायब कर देते। इन वारदातों के सरगना एक ही खानदान के तीन भाई थे जो हर वक्त अपने मकान के सामने इसी ताक में बैठे रहते कि कोई जवान औरत डोली में बैठकर निकले और वे हमला करके उसे अगवा कर लें जब इसकी सूचना एक बाँके को मिली तो उसने गिरोह का काम तमाम करने की ठान ली क्योंकि बांकों की यह परिपाटी थी कि लोगों को जुल्म और हिंसा से निजात दिलाएँ।

उस बाँके ने एक दिन जनाना लिबास पहना, अपने आपको क्रीमती जेवरों से सजाया, हाथ-पैरों में मेंहदी लगाई और सभी हथियार साथ रखकर कहारों से कहा कि डोली उस रास्ते से लेकर चलो जहाँ वे बदमाश बैठे रहते हैं और इस तरह की वारदातें होती हैं। पहले तो कहारों ने उधर जाने से इन्कार कर दिया मगर इनाम के लालच में और जान की हिफ़ाजत के बाँके के वादे पर चल पड़े। ‘बेगम’ ने डोली में से ताकना-झाँकना शुरू कर दिया। बाँका कभी-कभी अपना हाथ बाहर निकालकर अपने जेवरात का प्रदर्शन भी करता देखने वाले को पता लग जाए कि किसी नौजवान औरत की सवारी है। जब डोली बदमाशों के मकान के सामने से गुजरी तो उन्होंने उस पर हमला कर दिया। हमला करना था कि बाँका डोली कूद पड़ा और तलवार चलानी शुरू कर दी। चूँकि बॉका युद्ध कौशल में निपुण था उसने तीनों बदमाशों को ठंडा कर दिया। बाँके की मदद पालकी उठाने वालों ने भी की। जब इस घटना की ख़बर मुहम्मद शाह रंगीले को हुई तो उसने उस बाँक को बुलवा भेजा। बाँका उसी जनाना लिवास में बादशाह के पास पहुंचा, जिसे पहनकर वह बदमाशों का सर कुचलने के लिए गया था बादशाह ने पूरी घटना सुनने के बाद बाँके की तारीफ़ की और उसे इनाम आदि दिए और चलते समय कहा कि अब इस जनाना लिवास को उतार दो। इस पर बाँक ने हाथ जोड़कर अर्ज की कि चूँकि मैंने इस लिवास में शरीफ़जादियों को निजात दिलाई है इसलिए मुझे इसी लिवास में रहने की इजाजत दी जाए। उसी दिन से यह बाँका शहर में ‘बेगम’ नाम से मशहूर हो गया। जब बाद में बादशाह की फ्रीज ने करनाल में बगावत को दबाने के लिए कुछ किया तो बेगम बाँका हरावल दस्ते में था और जंग में मारा गया। बादशाह को इस बाँके की मौत पर बड़ा दुःख हुआ।

मुहम्मद शाह रंगीला यों भी बाँकों का संरक्षक था और उसके समय में बॉकों का बड़ा जोर था। बल्कि यहाँ तक मशहूर था कि वह जनानों और बाँकों की एक नियमित सेना रखता था। जनानों के बारे में यह मशहूर था कि हालाँकि वे बहादुर थे मगर तलवार का हर प्रहार करके ‘उई’ कहते थे। जहाँ तक बाँकों का संबंध था उनका काम अपनी शान और शक्ति का प्रदर्शन करना होता था। उनकी सजधज कितनी भी हास्यास्पद होती मगर किसी की यह मजाल नहीं थी कि मुस्करा भी दे, क्योंकि उसका मतलब जान से हाथ धोना था। बाँके अमीरों और बादशाह तक को कुछ न समझते थे। आन इतनी थी कि नाक पर मक्खी बैठने नहीं देते थे और किसी की बात नहीं सहते थे। नवाब सआदत अली के जमाने के मशहूर नकटे बाँके जहाँगीर बेग ने, जिनकी तस्वीर लाल किले में अब तक मौजूद है, अपनी नाक जरा-सी बात पर काटकर फेंक दी थी। उनके वालिद नवाब साहब के मुसाहिब थे। नवाब साहिब जहाँगीर वेग की किसी बात पर बिगड़ गए और उनके वालिद ने उनकी शिकायत करते हुए कहा कि अपने बेटे से कह दीजिए कि अपने बाँकेपन पर न जाए। उनकी नाक न कटवा दी तो मेरा नाम सआदत अली नहीं। जहाँगीर बेग के बाप ने घर आकर बताया कि नवाब साहब ऐसा-ऐसा कहते हैं। इस पर जहाँगीर बेग को तैश आ गया और जब शाम को उनके वालिद घर आए तो उन्होंने तलवार से अपनी नाक काटकर बाप की तरफ़ फेंकते हुए कहा, “बस, इसी नाक को काटने की नवाब साहब धमकी देते थे? लीजिए यह नाक हाजिर है, उनको दे दीजिए।”

नवाब सआदत अली खाँ के समय की एक और घटना मशहूर है जिससे बाँकों की दिलेरी और हौसलामंदी का और भी सबूत मिलता है। एक बाँके ने अपनी नंगी तलवार अपनी ड्योढ़ी पर लटका रखी थी और ऐलान कर रखा था कि हर वह शख्स जो उधर से गुजरे बगैर सलाम किए न जाए, वरना अपनी जान से हाथ धोएगा।

बड़े-बड़े शरीफ़ और अमीर लोगों का रास्ता वही था और सब परेशान हो गए। नवाब सआदत अली तक यह बात पहुँची तो उन्होंने हुक्म दिया कि हमारी सवारी उस रास्ते से लेकर चलो। जब उनका जुलूस उस सड़क के नुक्कड़ पर पहुँचा जहाँ से बाँके के मकान को सड़क मुड़ती थी तो चौराहे के मोड़ पर वही बाँका उनके हाथी के सामने नंगे सिर आकर खड़ा हो गया। बादशाह ने सवारी रुकवाकर पूछा कि यह कौन है तो मुसाहिबों ने बताया कि यह वही बाँका है जिसने अपने दरवाज़े पर तलवार टाँग रखी है। बाँके ने शाहाना आदाब बजा लाते हुए हाथ जोड़कर अर्ज़ की कि हुजूर जुलूस का रुख बदलिए वरना अगर जुलूस इधर से गुज़रा तो यह गुलाम जहाँपनाह पर से कुरबान हो जाएगा और घर पर मुसीबत टूट पड़ेगी। नवाब सआदत अली ख़ाँ फ़ौरन उसका मतलब ताड़ गए और हुक्म दिया कि जुलूस का रुख दूसरी तरफ़ मोड़ दिया जाए। अगले दिन बाँके को दरबार में बुलाकर उसे इनाम दिया और बाँके ने भी खुद ही तलवार अपनी ड्योढ़ी से हटाने की रजामंदी दे दी।

इन बाँकों की एक विशेषता यह थी कि ये अदना दर्जे के सिपाहियों से लड़ना अपनी शान के ख़िलाफ समझते थे। सिर्फ़ अपने बराबर के आदमियों से मुक़ाबिला करते और मुक़ाबिले में प्रतिद्वंद्वी कमजोर पड़ता तो फ़ौरन हाथ रोक लेते और उसके घायल होने पर अगर घर जाने में उसे तकलीफ़ होती तो उसे सहारा देकर उसके घर पहुँचा आते।

औरंगजेब के शासन के बाद मुग़ल सल्तनत पतनोन्मुख हो गई थी। उसकी ताक़त कम होने लगी थी। मुहम्मद शाह रंगीला की हुकूमत अपेक्षतः काफ़ी समय तक बनी रही और कुछ एकता और स्थिरता बनी रही। दिल्ली में काफ़ी अराजकता रही फिर भी शाह रंगीला का दरबार अपनी तमाम कमज़ोरियों और ख़ामियों के बावजूद एक सांस्कृतिक केन्द्र बना रहा। उसके शासन का खात्मा हुआ तो तोड़-फोड़ करने वाली ताक़तों ने सर उठाया और शाही संरक्षण के अभाव में अनेक सांस्कृतिक मूल्य और जो अभी तक सबल और जीवित थे, समाप्त होने लगे। दिल्ली के बाँकों को तो कई नस्लों से शाही सरपरस्ती हासिल थी और जब यह सरपरस्ती जाती रही तो बाँके भी बदहाली का शिकार हो गए और वह वक़्त भी आ गया जब उनको कोई पूछने वाला न रहा। शायद उनकी इस दुःख भरी अवस्था पर किसी ने कहा है-

दिल्ली के बाँके जिनकी

जूती में सौ-सौ टाँके

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