सुर और लय अर्थात संगीत की तुलना जादू से की जाती है। इसे आत्मा का भोजन भी कहा जाता है। संगीत (Indian Music History) से अधिक प्रभावकारी कला शायद कोई और नहीं है। यही वह कला है जिसका प्रभाव मनुष्यों पर ही नहीं बल्कि समस्त प्राणिजगत पर होता है। हिन्दुस्तानी संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से होता है। एक विश्वास यह है कि इसकी सृष्टि स्वयं ब्रह्मा ने सामवेद से की और नारद मुनि ने महादेवजी के सामने खुद गाया। हिन्दुओं में संगीत को मुक्ति का मार्ग माना गया है। कहा जाता है कि संगीत एक दिव्य वस्तु थी जिसे पृथ्वी पर लाने का श्रेय भरत और नारद मुनि को प्राप्त था।

धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था, “हे नारद, न तो मैं बैकुंठ में रहता हूँ, न ही योगियों के हृदय में। लेकिन मेरे भक्त जहाँ गाना गाकर मुझे याद करते हैं वहीं मैं मौजूद रहता हूँ।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि संगीत शुरू से ही भक्ति की आराधना का साधन रहा है। कन्फ्यूशस का भी कथन है, “ऐ संगीत तू उस परमपिता परमेश्वर की भाषा है।” भर्तृहरि कहते हैं, “साहित्य, संगीत कला विहीना, साक्षात पशु पूंछ विषाण हीना ।”

हिन्दुस्तानी संगीत पर पहला ग्रंथ भरत मुनि का ही था जिसका नाम नाट्यशास्त्र था। यह ग्रंथ किस युग में लिखा गया इसके बारे में भिन्न-भिन्न मत हैं। विभिन्न इतिहासकारों ने इसे ईसा मसीह के जन्म से सौ वर्ष पहले से चौथी सदी ईसवी तक के युग में रचित ग्रंथ बताया है। मगर अब काफ़ी छानबीन के बाद यह विचार ठीक माना जाता है कि यह ग्रंथ तीन हज़ार वर्ष पहले लिखा गया। इस ग्रंथ में भरत ने उन सभी वाद्यों का वर्णन किया है जो उस काल में प्रयुक्त थे अर्थात् वीणा, मृदंगम् और खड़ताल आदि।

भरत मुनि के युग में भी संगीत को चालीस वाद्यों में वृन्दवाद्य के रूप में प्रस्तुत करने की प्रथा थी। इसे ‘कुतूपा’ कहते थे और नाट्यशास्त्र में सविस्तार वर्णन किया गया था कि नाटक में कौन-सा वाद्य किस स्थान पर और दूसरे वाद्यों से कितनी दूर रखा जाए। उन दिनों संगीत के तीन तत्त्व थे-गायन, वादन और नृत्य इन तीनों तत्त्वों से मिलकर संगीत पूर्ण होता था। किन्तु इसमें गायन श्रेष्ठ माना गया है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में संगीत के तीनों तत्त्वों का वर्णन था। गीत को श्रेष्ठ मानने के बारे में कहा जाता है कि गीत में सुर, लय, कविता के अतिरिक्त एक भाव है जिसे संदेश की गरिमा प्राप्त है।

इसके बाद संगीत विद्या पर 500 वर्ष के बाद एक पुस्तक लिखी गई, जिसका नाम वृहदोपनिषद् था। ऐसा जान पड़ता था कि पुस्तकें तो लिखी गई होंगी परंतु कोई सुरक्षित नहीं रही। केवल दतिल्ला की पुस्तक ‘दत्यलम’ ही उपलब्ध रही। मगर कई सदियों बाद उसका भी नामो-निशाँ नहीं रहा। कालिदास ने अलबत्ता अपनी कुछ रचनाओं में जैसे शाकुंतलम् और मालविकाग्निमित्रम् में अपने युग के संगीत का अर्थात् पाँचवीं सदी में बहुत सुंदर चित्रण किया है। वात्सयायन के कामसूत्र में भी उसके काल में संगीत, नृत्य, कविता और नाटक की जो प्रतिष्ठा थी, उसकी बड़ी प्रभावकारी झलक मिलती है।

पांचवी सदी से ग्यारहवीं-बारहवीं सदी तक भारतवर्ष में संगीत फलता-फूलता रहा और उसमें नई-नई चीजें जोड़ी गई। कहा जाता है कि सातवीं सदी में सितार का आविष्कार हुआ। मतंग ऋषि का संगीत पर प्रसिद्ध ग्रंथ वृहद्देशी भी जिसका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है, सातवीं सदी में ही लिखा गया। छह बड़े राग गाए जाने लगे और उनके साथ जुड़े हुए और कई रागों का प्रचलन हुआ। उस काल के बाद संगीत विद्या पर एक बहुत प्रामाणिक और महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संगीत रत्नाकर है जिसकी रचना शारंगदेव ने की थी। यह ग्रंथ 1230 ई. में लिखा गया था।

शारंगदेव कश्मीरी निवासी थे और संगीत विद्या के बहुत बड़े पंडित। उन्हें यह योग्यता अपने पूर्वजों से विरासत में मिली थी। उनके पिता कश्मीर छोड़कर देवगिरी में जाकर बस गए थे जिसे अब औरंगाबाद कहते हैं। उन्हें अपने अध्ययन के लिए दक्षिण भारत का यह प्रदेश शांतिपूर्ण और अनुकूल लगा। शारंगदेव यद्यपि व्यवसाय से एक उच्च स्तर के लेखा अधिकारी थे लेकिन संस्कृत और संगीत में उनकी विद्वता अनुपम थी। संगीत रत्नाकर में उन्होंने वैदिक काल से अपने समय तक के संगीतशास्त्र का सार और उसके सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों को प्रस्तुत किया है। यह केवल एक विद्वतापूर्ण कृति ही नहीं है वरन् इसमें संगीत विद्या के चार मूलभूत पक्षों पर बड़ी विस्तृत जानकारी मिलती है। दूसरे शब्दों में यह राग, ताल, जाति, शैली और वाद्य पर बहुत सुंदर टीका है।

सच तो यह है कि अगर हमारे सामने संगीत रत्नाकर न होती तो नाट्यशास्त्र को समझना कठिन हो जाता। प्रकारान्तर से संगीत रत्नाकर, नाट्यशास्त्र की कुंजी और उस पर एक श्रेष्ठ समीक्षा है। इसमें उन सभी वाद्यों का भी बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है जो उस समय प्रयुक्त होते थे। समुद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का उल्लेख करते हुए इतिहास- वेत्ताओं ने लिखा है कि भारतीय संगीत अरबवासियों ने सीखा और यहाँ के कलाकार, ख़लीफ़ा हारून अर्रशीद के समय में बग़दाद बुलाए गए। गुरु नानक देव जी के साथ उनका शिष्य भाई मर्दाना जी (जो रबाब बजाने में प्रवीण था) उनके साथ था। गुरु नानकदेव जी फ़ारस, अरब और विशेषकर मक्का और मदीना भी गए थे।

भारतीय संगीत पर ईरानी प्रभाव

संगीत रत्नाकर के बाद हिन्दुस्तानी संगीत में महान् परिवर्तन हुए। विदेशी आक्रमणों और देश की पराजय ने भारतीय कलाओं और विशेष रूप से संगीत को प्रभावित किया। इसमें ईरानी प्रभाव प्रमुख था। तंबूरा, शहनाई और चंग, बरबत और छोटा दफ़ ईरानी वाद्य हैं जो हिन्दुस्तान में ईरान से आए। ईरानी संगीत का आधार बारह ‘मक़ाम’ थे। हिन्दुस्तान में उनके लिए ‘संस्थान’ का प्रयोग करने लगे जो. ‘मक़ाम’ शब्द का संस्कृत प्रतिरूप है। आगे चलकर यहाँ के वादक उसी संस्थान को “ठाठ’ कहने लगे।

ईरानी संस्कृति और संगीत की भारत को सबसे बड़ी देन अमीर खुसरो (1253-1324) थे। यद्यपि उनके पिता ईरानी थे लेकिन उनकी माता हिदुस्तानी थीं और उनका जन्म उत्तर प्रदेश में इटावा जिले के पटियाली नामक स्थान में हुआ था। उन्होंने बलबन से लेकर अलाउद्दीन खिलजी और गयासुद्दीन तुग़लक तक कई बादशाहों की नौकरी की। उन्होंने हिन्दुस्तानी संगीत में बड़ी दिलचस्पी ली और उसे न केवल स्वयं सीखा बल्कि हिन्दुस्तानी और ईरानी रागों के मिश्रण से उसमें बहुमूल्य वृद्धि की। उन्होंने बहुत से मिश्रित रागों और तालों का आविष्कार किया जिनमें से के नाम हैं-

साज़गरी, ऐमन, मुआफ़िक़, फ़रग़ाना, सरपदरा, क़ौल-ओ- कल्बाना, नक़्श-ओ-गुल के अतिरिक्त ग़ज़ल भी अमीर खुसरो के दौर में प्रचलित हुई।

गजल इतनी लोकप्रिय तर्ज है कि आम और ख़ास सभी लोग पसंद करते हैं। इसमें आमतौर पर इश्क़-मुहब्बत के भाव व्यक्त किए जाते हैं और यह ज़्यादातर उर्दू और फ़ारसी में गाई जाती है। क़व्वाली का विषय आमतौर पर नातिया ‘ होता था और यह ज़्यादातर मज़ारों पर उर्स के मौके पर गाई जाती थी। आज भी ग़ज़ल और क़व्वाली बड़ी लोकप्रिय हैं और क़व्वालों की हर जगह माँग है। नक़्श-ओ-गुल में बहार के विषय प्रस्तुत किए जाते थे मगर इसका रिवाज अब लगभग समाप्त हो गया है। अमीर खुसरो खुद भी फ़ारसी के मशहूर शायर थे। दिल्ली में निजामुद्दीन औलिया के प्रति उनकी बड़ी श्रद्धा थी और वे उन्हें अपना पीर मानते थे। उन्हीं के पहलू में दफ़्न भी हुए। मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद ‘आब-ए-हयात’ में लिखते हैं- “संगीत में उनकी स्वाभाविक वृत्ति थी, वह एक ऐसी बीन थी जो बिन बजाए बजती रहती थी। इसलिए ध्रुपद की जगह क़ौल-ओ-कलबाना बनाकर बहुत-से रागों का आविष्कार किया और उनमें से अधिकतर गीत आज तक हिन्दुस्तान के स्त्री-पुरुषों की जबान पर हैं। बीन को छोटा करके सितार का भी आविष्कार किया गया।”

फिरोदस्त एक ताल है। यह हिन्दुस्तानी ताल चाचड़ या दीपचंदी की चौदह मात्रा का एक दायरा है। अमीर खुसरो एक ऐसे विद्वान, शायर और सूफ़ी थे जो सदियों तक पैदा नहीं होते। भारतीय सभ्यता और संस्कृति का श्रीगणेश करने में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उनमें पक्षपात तो नाम को भी नहीं था और उन्होंने हिन्दवी यानी हिन्दी भाषा न केवल सीखी बल्कि बड़ी उदारता से उसका प्रयोग करके उस समय की भाषा और साहित्य को मालामाल कर दिया। अंत में वे तसव्वुफ़ में ऐसे डूबे कि उसके सिवा हर चीज को नगण्य समझने लगे। वे एक बाकमाल और गुणी इंसान थे जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। संगीतशास्त्र में नए-नए आविष्कार करके उन्होंने उसकी सतह को बहुत बुलंद किया।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here