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कव्वाली संतों, सूफियों और करामात वालों की महफिलों में पैदा हुई, पली और परवान चढ़ी। हिन्दुस्तान में संगीत का संबंध शुरू से भक्ति से रहा है। संगीत को मंदिरों में प्रथय मिला और उपयोग भी अधिकतर यहीं हुआ। कव्वाली का लालन-पालन बल्कि उसका जन्म ही खानकाहों में हुआ। परवरदिगार और अपने पीर-मुरशिद की प्रशस्ति के लिए कव्वाली को श्रेष्ठ माध्यम समझा गया। कव्वाली शब्द ‘कौल’ से ही निकला है, जिसका अर्थ बोल या कोई बात कहना है। भारत में इसका प्रचलन चिश्तिया निजामी सूफियों से शुरू हुआ ।अल्तुतमिश के काल में चिश्ती खानकाह में कव्वाली का गाया जाना एक लाजिमी बात बन गई और दूर-दूर से कव्वाल आकर अपनी कला का प्रदर्शन करने लगे। अमीर खुसरो के हाथों यह एक ऐसा फ़न बन गया जिसकी अपनी हस्ती और विशेषता थी। शुरू-शुरू में क़व्वाली को बिना साजों के गाया जाता मगर बाद में इसे साजों के साथ ऊंची आवाज में बड़े जोश-खरोश के साथ गाया जाने लगा यानी लगातार तालियों, ढोलक, तबला, सारंगी और हारमोनियम के साथ यह हिन्दुस्तानी हरिकीर्तन का प्रभाव है जो वैदिक काल से चला आ रहा है। history of qawwali

कव्वाली के अपने शुद्ध रूप में कुछ स्पष्ट नियम होते हैं। सबसे पहले ख़ुदा की तारीफ़ की जाती है, फिर हज़रत मुहम्मद साहब की, उसके बाद हज़रत अली और अंत में सूफ़ियों का गुणगान किया जाता है। क़व्वाली में तीन ज़रूरतों को पूरा करना होता है अर्थात ‘मकान’ (देश) ‘जमान’ (काल) और ‘इवान’ (भाई-बंधुओं) की।

कव्वाली उसी समय गाई जानी चाहिए जब नमाज़ का वक़्त न हो। (काल), इसे ऐसी जगह पर गाया जाना चाहिए जो पाक-साफ और अलग-अलग हो (देश), इसे केवल उन लोगों के बीच गाना चाहिए जिनके खयालात पाक साफ़ हो न कि गंदे और बेतरतीब। इससे जाहिर होता है कि क़व्वाली सिर्फ़ ख़ानक़ाहों और मज़ारों तक सीमित थी। अब क़व्वाली एक तफ़रीह का जरिया भी बन गई है और ‘इख़्वान’ और शायद ‘जमान’ की भी कोई पाबंदी नहीं है।

क़व्वाली के तीन दर्जे होते हैं। पहला ‘कैफियत’ जिसमें एक पाक माहौल पैदा होता है और सुनने वाले अपना ध्यान दुनियादारी से हटाकर खुदा-ए-पाक की तरफ़ लगाते हैं। दूसरा ‘वज्द’ जिसमें क़व्वाल और श्रोता एक होकर एक प्रकार के आत्म-समर्पण की दशा में पहुंच जाते हैं। इस सतह से भी ऊपर उठकर क़व्वाली की तमाम महफ़िल एक ऐसी मंजिल या दरजे में दाखिल होती है जिसे ‘हाल’ कहते हैं और जिसे हिन्दुओं की समाधि या खुदा से एकात्म होने के समकक्ष माना जाता है।

अक्सर देखा गया है कि जब कव्वाली उस सतह पर पहुंचती है तो कुछ लोग अपने कपड़े तक फाड़ देते हैं, अपना सर जमीन पर मारते हैं और क़व्वाल की तान और लय पर सर धुनते या नृत्य करते हैं। कहा जाता है कि परवरदिगार से ऐसी एकात्मकता वह चरमावस्था है जो बंदों को अपनी जिंदगी में बहुत कम और बड़े नसीब से मिलती हैं। हजरत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी जो अजमेर शरीफ़ के ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के मुरीद थे, इस दशा में लगातार पांच दिन रहने के बाद अल्लाह को प्यारे हुए जबकि क़व्वाल यह शेर गाता रहा-

कुश्तगान-ए-खंजर-ए-तसलीम रा

हर जमान अज गैब जान-ए-दीगर अस्त’

क़व्वाली की महफ़िल जवाबी गाने, उसे ताल और सुर में दोहराने, मौक़ा-ब-मौक़ा गाकर न पढ़ने और गाह-ब-गाह नृत्य पर भी होती है। यह एक ऐसी महफ़िल होती है जिसमें क़व्वाल और उसके साथियों के साथ श्रोताओं की टोली भी शरीक़ होती है। कभी-कभार अगर श्रोताओं की ‘दशा’ ऐसी होती है कि किसी ख़ास शेर या लफ़्ज को दोहराना ज़रूरी मालूम हो तो क़व्वाल उसे दोहराता रहता है ताकि उनके दिलों पर असर पैदा हो। बुनियादी तौर पर क़व्वाली अनेक इन्सानी आवाज़ों के उतार-चढ़ाव, तालियों और जिस्म की हरकतों का मिश्रण है। ये सभी तत्त्व शायरी को एक जिस्म और रुह प्रदान करते हैं और शेरों में एक चिंगारी या शोले की शक्ति आ जाती है। इस तरह से क़व्वाली एक मुक्कम्मल फ़न की शक्ल इख़्तियार कर लेती है। अमीर ख़ुसरो क़व्वाली को सुनते-सुनते हाथ ऊपर उठाकर नृत्य करने लगते हैं। उनके पीर-मुरशिद हजरत निजामुद्दीन औलिया ने एक बार उन्हें हाथ बंद करके और नीचे रखकर नाचने की हिदायत दी क्योंकि, “जैसे तुम बादशाह (खुदा) के दरवार में जाते हो तुम्हारा दुनिया से फिर भी ताल्लुक रहता है।”

कव्वाली एक ऐसी कला है जो आपको इबादत और इज्ज़ (नम्रता) से एकरूप कर देती है। क़व्वाली यद्यपि फ़ारसी शेरों की पैदावार है मगर हिन्दी और हिन्दुस्तानी संगीत को भी उसने खूब अपनाया। हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया राग पूरवी के शौक़ीन थे और उनकी इच्छा के अनुसार कम-से-कम एक क़व्वाली उनकी खानक़ाह में इस राग में गाई जाती थी। वक़्त के गुजरने के साथ हिन्दुस्तानी में क़व्वाली की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि मेलों-ठेलों, उत्सवों और महफ़िलों में भी क़व्वाली गाई जाने लगी। जहाँ सूफ़ियों के मज़ारों और ख़ानक़ाहों में उर्स के मौक़ों पर तो क़व्वाली बदस्तूर वैसे ही होती है, वहाँ यह होटलों और तफरीहगाहों में भी इतनी लोकप्रिय हो गई है कि इसे सुनने के लिए लोग बेताब रहते हैं और सुनते-सुनते उन पर एक जादू-सा हो जाता है।

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